दुनिया में सुख शांति लाना है तो आर्जव धर्म अपनाना चाहिए




डॉ. महेन्द्रकुमार जैन ‘मनुज’
22/2, रामगंज, जिंसी, इन्दौर 9826091247

सरल और निष्कपट विचारवान होकर वैसा आचरण करना आर्जव है। आज व्यक्ति, समाज, संगठन से लेकर देश दुनिया में कहते कुछ और हैं तथा करते कुछ और हैं। कथनी करनी में अन्तर, छल-कपट, बंचना, अत्यधिक महत्वाकांक्षाओं के कारण ही विद्वेष, वैमनस्य, अशान्ति जन्म लेती है। कभी देश आपस में टेबुल पर शांतिवार्ता कर रहे होते हैं और सीमाओं पर उन्हीं की सेनाएं घुसपैठ या आक्रमण की तैयारी में लगीं होतीं हैं। ये सब मायाचार है। मायावी की एक न एक दिन कलई खुल ही जाती है। आचार्यों ने कहा है-

मनस्येकं वचस्येकं वपुष्येकं महात्मनाम्।
मनस्यन्यत् वचस्यन्यत् वपुष्यन्यत् दुरात्मनाम्।।
महान् व्यक्ति की पहचान है कि वह जो मन में सोचता है वह कहता है और जो कहता है वही करता है। इसके उलट जो व्यक्ति मन में तो कुछ और वचन से कुछ और, करै कछु और ऐसे व्यक्ति को दुरात्मा की संक्षा दी गई है।
जैन धर्मावलम्बी पूजा आराधना में भी पढ़ते हैं-
‘मन में होय सो वचन उचरिये, वचन होय सो तन सौं करिये।

    भगवान् श्री राम में बहुत सरलता थी। एक प्रसंग आता है कि- जब राम और लक्ष्मण वनवास में थे, तब राम ने सरोवर में किनारे को ध्यानस्थ एक बगुले को देखा, तो उन्होंने उस बगुले की सरलता की प्रशंसा लक्ष्मण से करते हुए कहा- ‘पश्य लक्ष्मण! पम्पायां बकोयं परम धार्मिकः।’ हे लक्ष्मण! देखो सरोवर में यह बगुला कितना धार्मिक है? एक पैर पर खड़ा होकर ध्यान कर रहा है। इसी बीच उस बगुले ने धीरे से उठाया हुआ पैर पानी में रखा, तब लक्ष्मण जी कहते हैं- हां भैया- ‘‘शनैः शनैः पदं धत्ते, जीवानां वधशंकया।’’ वह पानी में धीरे धीरे पैर रख रहा है जिससे जीवों का धात न हो जाए। कहते हैं रामल-क्ष्मण की यह वार्ता उसी सरोवर की एक मछली सुन रही थी, उसने बाहर उछल कर कहा- ‘‘बकः किं स्तूयते राम! येनाहं निष्कुली कृतः, सहवासी हि जानाति, सहवासी विचेष्टितं।’’ हे रामचन्द्रजी! इस बगुले की क्या प्रशंसा कर रहे हैं जिन्होंने हम मछलियों के कुल को ही भक्षण करके नष्ट कर दिया है। दूर से सबको अच्छाई ही दिखाई देती है, सन्निकट रहने वाला ही पास वाले की दुर्जनता जानता है।

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