कितना सुंदर समय सुहाना।
किसी ने इसका मर्म न जाना।
भोर की इस मधुर बेला में,
शीतल पवन का छू कर जाना।।
अंधकार विलुप्त हो गया,
उषा रानी आई है।
चहुँ ओर स्वर्णिम आभा,
किरणों ने फैलाई है।।
चिड़ियाँ देखो चहक उठी हैं,
सारी बगिया महक उठी है।
भौंरे गुनगुन गीत सुनाते,
कली कली पर वे मँडराते।।
बैलों की घंटी बजी टन-टन,
ग्वालन की चूड़ी बजी खन-खन।
अजान सुनाई दे रहा है,
कृषक खेत को जोत रहा है।।
मंदिरों में पूजा हो रही है,
घंटी और शंख बज रहे हैं।
गायें बछड़ों के लिए रंभाती,
माँ-माँ बछड़े बोल रहे हैं।।
चहुँ ओर लालिमा है छाई,
प्रकृति ने छवि निराली पाई।
मन बावरा उड़ता जाए ,
दूर-दूर की सैर कर आए।।
सूरज के घोड़ों वाले,
रथ पर सवार होकर।
उषा रानी उतर रही है,
धीरे-धीरे धरती पर ।।
खुशियों का सामान लेकर,
दिल में कुछ अरमान लेकर।
सूर्य की किरणें उतर रही हैं ,
सबमें उत्साह भर रही हैं।।
रात अंधेरी बीत चुकी है,
अब सोने का समय नहीं।
भोर लालिमा फैल चुकी है,
अब अंधियारा कहीं नहीं।।
लाल रंग परिधान में लिपटी,
उषा रानी का रूप सुहाना।
सकुचाई सी अपने में सिमटी,
उषा रानी का धरती पर आना।।
कितना सुंदर समय सुहाना,
किसी ने इसका मर्म न जाना।
उषाकाल की स्वर्णिम बेला में,
ईश्वर का हमें ध्यान लगाना।।
सरला विजय सिंह 'सरल' चेन्नई
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