(तथ्याधारित मननीय-आलेख)
'पर्यूषण-पर्व' और 'दसलक्षण-महापर्व' की पिछले आलेख में की गयी चर्चा से प्रेरित होकर आजकल एक नयी जिज्ञासा जनमानस में चल रही है और जनमानस को मथ भी रही है कि "तो फिर हम 'क्षमावणी-पर्व' के प्रसंग में श्वेताम्बर-आम्नाय के शब्द 'मिच्छामि दुक्कडं' का प्रयोग क्यों कर रहे हैं? हम अपने आम्नाय में प्रचलित 'उत्तम-क्षमा' का व्यवहार क्यों नहीं कर रहे हैं?"
ऊपरी तौर पर एवं पिछले सन्दर्भ को ध्यान में रखते हुये यह प्रश्न समीचीन प्रतीत होता है। किन्तु जो बात एक सन्दर्भ में फिट बैठे, कोई जरूरी नहीं है कि वही फार्मूला सभी जगह फिट बैठे। यही बात 'क्षमावणी-पर्व' पर 'मिच्छामि दुक्कडं' के प्रयोग पर भी लागू हो रही है।
सबसे पहले तो यही जान लिया जाये कि 'मिच्छामि दुक्कडं' का प्रयोग मूलतः कहाँ का है?
उत्तर यह है कि 'प्रतिक्रमणसूत्र' की प्रत्येक 'अंचलिका' के अंत में संकल्प-वचन के रूप में यह वाक्यांश प्रयुक्त होता है। इसका प्रयोग 'श्रावक-प्रतिक्रमण' और 'यति-प्रतिक्रमण' --दोनों में अनिवार्य रूप से किया जाता है। अतः यह कहना कि "यह वाक्यांश ('मिच्छामि दुक्कडं') मूलतः दिगम्बर-जैन-आम्नाय का नहीं होकर श्वेताम्बर-आम्नाय का है"-- पूरी तरह गलत है। यह मूलतः दिगम्बर-जैन-आम्नाय का ही है। यह अलग बात है कि इसका प्रयोग दोनों आम्नायों में समान रूप से पाया जाता है।
अब जिज्ञासा यह होती है कि क्या इसका मूलतः अर्थ "क्षमायाचना करना" होता भी है? क्योंकि हम तो 'क्षमावणी पर्व' के सुअवसर पर आपस में क्षमायाचना करते हैं? यह बहुत महत्त्वपूर्ण-प्रश्न है।
यह सच है कि 'मिच्छामि दुक्कडं' का शाब्दिक-अर्थ "मैं आपसे क्षमायाचना करता हूँ"-- यह सीधे रूप में नहीं होता है। इसका शाब्दिक-अर्थ होता है कि "मैं अपने दुष्कृतों को मिथ्या करता हूँ"।
तब प्रश्न होता है कि 'क्षमावणी-पर्व' के प्रसंग में इसका प्रयोग करना कितना व क्यों उचित है?
इसका सटीक-उत्तर जानने के लिये हमें 'क्षमावणी-पर्व' की वास्तविकता को गहराई से पहिचानना होगा।
क्या हम यह मानते हैं कि 'क्षमावणी-पर्व' पर की जाने वाली क्षमायाचना एक सामाजिक-औपचारिकता मात्र है? या इसका हमारे जीवन में कोई नैतिक और आध्यात्मिक-महत्त्व भी है और उसके लिये शाब्दिक-औपचारिकता से हटकर कोई भावपक्ष का दायित्व भी हमारा बनता है? सीधे शब्दों में कहें तो क्या हमारी 'क्षमावणी' मात्र शब्द-वर्गणा तक सीमित है। इसके पीछे हमारी संवेदनायें बिल्कुल भी नहीं हैं? और क्या हम हृदय से किसी को क्षमा करना या क्षमा माँगना नहीं चाहते हैं? क्या हम मात्र एक सामाजिक-रूढि का निर्वाह कर रहे हैं?
हो सकता है कि आज के परिवेश में यह आक्षेप किसी सीमा तक सत्य भी हो। परन्तु यह तो कदापि सत्य नहीं हो सकता है कि सदा से लोगों की श्रद्धा और समर्पण की यह महती-क्रिया ऐसे दिखावे और आडम्बर की शिकार रही होगी। हमारी संस्कृति में ऐसी परम्परायें मूलतः अत्यन्त सार्थक और भावप्रवण रहीं हैं।
अतः मूल में तो क्षमाभाव की वास्तविकता ही रही होगा, और आजकल भी न्यूनाधिक रूप में कुछ न कुछ भावप्रवण-क्षमावणी भी होती ही होगी। भले ही उसका प्रतिशत कितना ही न्यूनतर क्यों न रह गया हो। अतः हमें उस भावप्रवणता को समझना होगा, जिसके परिणामस्वरूप हमारे पूर्वज 'क्षमावणी-पर्व' को जीवन में चरितार्थ करते होंगे।
क्षमाभाव की इस सार्वजनीन और व्यापक-अभिव्यक्ति के लिये यह अनिवार्य-शर्त है कि इसको अनुष्ठित करनेवाले सभी लोग उस पावन-प्रक्रिया में समानरूप से सहभागी हों, जिसके फलस्वरूप 'क्षमावणी' की अद्वितीय-प्रक्रिया इतने व्यापकरूप में जीवन्त हो सकती है। वह है पहले दिन से अर्थात् 'उत्तम-क्षमा-धर्मांग' के दिन से, जो कि 'दसलक्षण-महापर्व' के पहले दिन अर्थात् भाद्रपद शुक्ल पंचमी-तिथि को अनुष्ठित होता है, सभी क्षमाभाव को अपने हृदयों में संजोयें। न केवल एक दिन, बल्कि प्रतिदिन निरन्तर इतने परिमाण में संजोयें, कि अंततः वह हृदय में न समाये और वचनों के द्वारा छलक पड़े।
इस उदात्त-अभिव्यक्ति के लिये हमें मानरहित होना (मार्दव) भी अनिवार्य-शर्त है, अन्यथा यह मानकषाय हमें चाहते हुये भी न तो किसी को क्षमा करने देगी और न ही क्षमायाचना करने देगी। अतः क्षमायाचना के लिये 'उत्तम-मार्दव-धर्मांग' की आराधना भी अनिवार्यतः अपेक्षित होगी।
तथा यदि हमारा अन्तःकरण पूरी तरह से निश्छल नहीं होगा, तो हमारी क्षमायाचना 'सशर्त' बन जायेगी। वह हृदय की निर्मलता का प्रतीक नहीं रहकर एकतरह का व्यापारिक-अनुबंध (बिजनेस-डील) बन जायेगी, जिसमें कहा जायेगा कि "तुम इतना कहोगे, इन शब्दों में कहोगे, इस जगह आकर कहोगे; तभी मैं क्षमा करूँगा या क्षमा माँगूँगा।" अतः 'उत्तम-आर्जव-धर्मांग' की आवश्यकता भी रहेगी ही
हृदय और परिणामों की शुचिता के बिना भी यह प्रक्रिया कहीं न कहीं अपने लक्ष्य को प्राप्त ही नहीं कर सकेगी। क्योंकि मलिन-दर्पण में जब अपना ही चेहरा स्पष्ट दिखाई नहीं देता है, तो भला दूसरों का कैसे स्पष्ट दिखाई दे सकेगा? अभिप्राय स्पष्ट है कि उत्तम-शौचधर्म के बिना न तो अपनी गल्तियाँ समझ में आ सकेंगीं और न ही किसी दूसरे की गल्तियों को क्षमा कर सकने की उदारता मैले-मन में जन्म ले सकेगी। अतः परिणामों की शुचिता भी 'उत्तम-शौच-धर्मांग' के रूप में अनिवार्य-अंग होगा।
वचनों से हम कहना कुछ चाहते हैं, और अनुपयुक्त-वचन के प्रयोग से कहा कुछ और ही जाता है। अतः आत्मिक-सत्य के साथ-साथ वाचिक-सत्य के रूप में व्यावहारिक 'उत्तम-सत्य-धर्मांग' की भी अपेक्षा 'क्षमावणी-पर्व' को अनुष्ठित करने के लिये अपरिहार्य है।
क्षमा को पहले दिन से लेकर अंत तक संजोयें रखने के लिये व्यक्ति को आत्म-नियंत्रण की भी आवश्यकता होती ही है। अतः उत्कृष्ट-नियंत्रक के रूप में 'उत्तम-संयम-र्मांग' भी अपेक्षित है ही।
संसारी-व्यक्ति के लिये सांसारिक-प्रवृत्तियाँ और तत्संबंधी-अभिलाषायें तो अनादि-संस्कार के कारण सदैव विद्यमान रहतीं ही हैं। उनका निरोध किये बिना चित्त की चंचलता बनी रहेगी और क्षमा जैसी निधि का संरक्षण संभव नहीं हो सकेगा। इसके लिये "इच्छानिरोधस्तपः" की अनिवार्यता रहेगी ही। अतः 'उत्तम-तपः-धर्मांग' भी क्षमाभाव को संजोने के लिये अपरिहार्य हो जाता है।
"निश्चय राग-द्वेष निरवारै" के वचनानुसार वास्तविक-त्याग तो राग-द्वेष की कुत्सित-वृत्तियों का ही किया जाता है। क्योंकि जब तक राग-द्वेष की कुत्सित-वृत्तियाँ मानसपटल पर छायीं रहेगी, व्यक्ति लाख चाहे, तब भी वह "सबको क्षमा, सबसे क्षमा" जैसे सूत्रों को अमली-जामा नहीं पहिना सकता है। अतः 'उत्तम-त्याग-धर्मांग' के बिना भी 'क्षमावणी' संभव नहीं हो सकेगी।
त्याग की बात करना तब तक 'बात' तक सीमित रहेगी, जब तक कि मनुष्य का हृदय सांसारिक-अभिलाषाओं से ऊपर उठकर अंतर्मुखी होने की चेष्टा नहीं करता है। अतः अपने स्वरूप की परिपूर्णता के बोध के साथ पर-पदार्थों के प्रति अपनी निःस्पृहता को अकिंचन-वृत्ति में अनुष्ठित करके 'उत्तम-आकिंचन्य-धर्मांग' को चरितार्थ करते हुये ही संभव हो सकता है।
अन्ततः जिस अन्तर्मुखी-वृत्ति को पर-पदार्थों की आकर्षण-विहीन 'अकिंचनता' को पर्यवसित करने के लिये निजात्मस्वरूप में / चिद्ब्रह्म में अपने उपयोग को विश्रान्त करना ही होगा। तभी चित्तवृत्ति की हिलोरें शांत हो सकेंगीं और निज-नाथ-निरंजन का साक्षात्कार होकर कषायभाव की कलुषता नष्टप्रायः हो जायेगी। तभी तो वह साधक "सबको क्षमा सबसे क्षमा" को अन्तःप्रेरणा से कर सकेगा। जिसमें कोई दिखावा या बनावटीपन नहीं होगा। यही तो 'उत्तम-ब्रह्मचर्य-धर्मांग' का मूर्तिमान प्रतीक होगा।
इसप्रकार जब कोई साधक क्षमाभाव रूपी निधि को पहले दिन से सारी बाधाओं से बचाता हुआ निर्मल-हृदय में संजोकर जनसमूह के बीच पहुँचता है, तो उसे अतीत की कलुषता का स्मरणमात्र भी व्यथित कर देता है। चूँकि अब उसके पास धर्माराधना से प्राप्त इतना पर्याप्त आत्मबल भी है कि वह अपनी उन कलुषताओं और दुष्कृतों को मात्र "मिच्छामि दुक्कडं" कहकर न केवल अपने हृदयपटल से मिटा सकता है; बल्कि उसी आत्मबल के द्वारा वह दूसरों को भी उसीप्रकार की निर्मलता से ओतप्रोत पाता हुआ उनसे भी "मिच्छा मे दुक्कडं" अर्थात् "मेरे दुष्कृतों को मिथ्या कीजिये, अपने मानसपटल से मिटा दीजिये" -- ऐसा साग्रह-अनुरोध करता है।
यह एक जीवन्तरूप है , जिसमें 'क्षमा' शब्दों में नहीं, बल्कि साँसें लेती हुई हर धड़कन में व्याप्त होकर जीवन की प्रतिध्वनि बन जाती है।
इसलिये मैं यह कह सकता हूँ कि जब कोई साधक
"खम्मामि सव्वजीवाणं, सव्वे जीवा खमंतु मे"-- के आदर्श को मात्र शब्दायित करने की जगह जीवन की प्रतिध्वनि बनायेगा , तो उसके निर्मल-हृदय से केवल यही शांत-उच्छ्वास प्रतिध्वनित होगा कि "मिच्छामि दुक्कडं"-- "मैं अपनी ओर से अपने दुष्कृतों को मिथ्या करता हूँ अर्थात् मेट देता हूँ।"
और समानधर्मी सज्जनों से वह अनुरोध कर सकता है कि "हे साधर्मी! 'मिच्छा मे दुक्कडं' अर्थात् तुम भी मेरे दुष्कृतों को अपने मन से मिथ्या कर दो, मिटा दो।" ताकि दुष्कृतों को कम से कम हमारे व तुम्हारे हृदयों में बसने की जगह नहीं मिल सके।
यही सच्चा 'क्षमावणी-पर्व' है, जो औपचारिकता से हटकर यथार्थ के धरातल पर पुष्पित और पल्लवित होकर सामाजिक-पर्यावरण के साथ साथ हमारी हर साँस और हर सोच की विशुद्धि करता है।
परन्तु इसके लिये आवश्यकता किसी एक दिन की औपचारिकता की नहीं है। बल्कि एक पवित्र-जीवनशैली और चिंतनपद्धति की है; जिसमें 'क्षमा' माँगना और करना कोई अनुष्ठान न होकर अपनी चादर साफ करने जैसा हो। और जिस की अभिव्यक्ति "मिच्छामि दुक्कडं" से लेकर "मिच्छा
मे दुक्कडं" तक सहजरूप से हो।
प्रो. सुदीप कुमार जैन, नई दिल्ली
क्या 'क्षमावणी' के लिये "मिच्छामि-दुक्कडं" कहना गलत है??
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