माता, बहन, प्रेयसी जैसे, महक रही घर -आँगन में l
कितने ही किरदार निभाती, बेटी अपने जीवन में l
. कोई कथानक गढ़ा गया हो,
माँ की शीतल छाव तले l
सामाजिक बंधन में फिर क्यों,
बेटी के निज स्वप्न जले?
फूल सी कोमल तितली जैसी, चंचलता है तनमन में l
कितने ही किरदार निभाती, बेटी अपने जीवन में l
जिसके दम पर तो सृष्टि का,
कालचक्र भी चलता है l
प्राणों का सुन्दर सृजन नव,
जिसके हाथों ढलता है l
जीवन देने वाली ममता, निज प्राणों की उलझन में l
कितने ही किरदार निभाती, बेटी अपने जीवन में l
भोर की प्रथम प्रभा सी बेटी,
माँ के अंगना खेल रही l
मंद -मंद मुस्कान सी आभा,
अंधकार को ठेल रही l
महक रही बनकर गुलाब तू, कांटे तेरे दामन में l
कितने ही किरदार निभाती, बेटी अपने जीवन में l
राम चले मर्यादा पथ पर,
वैदेही बनकर साथ चली l
कभी राष्ट्र सम्मान के ख़ातिर,
पद्मिनी बन अंगार जली l
शीश काट निज हाड़ा रानी, संबल देती है रण में l
कितने ही किरदार निभाती, बेटी अपने जीवन में l
. जिस घर में बेटी लक्ष्मी हो,
वो घर जन्नत होता है l
संस्कार के फूल जो महके,
वो घर उन्नत होता है l
मधुर कंठ से कोयल गाये, जैसे रिमझिम सावन में l
कितने ही किरदार निभाती, बेटी अपने जीवन में l
युगों -युगों से बिटिया का मन,
घायल होता आया है l
भोग वासना के छल में तन,
कायल होता आया है l
बेटी के अरमान कहीं अब, छलक न जाए नैनन में l
कितने ही किरदार निभाती, बेटी अपने जीवन में l
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