धुले हों भाव भक्तों के..


      (मर्मस्पर्शी-हिन्दी-कविता)

धुले हों भाव  भक्तों के,

                भक्ति  हर पाप  धोती है।

मन हो  सीप-गुणग्राही,

                तो हर परिणाम  मोती है।।

भविकजन! भाव को देखो,

                नहीं जड़कर्म को लेखो,

भावना शुद्ध कर लो तुम,

              जो भव का नाश करती है।।1।।


अरे! भवि आत्मसुध लेकर,

                  कर्मबंधन शिथिल करते।

नाद 'केका' का ज्यों सुनकर,

                अहि-बंधन शिथिल होते।।

बात ज्ञानी की त्यों सुनकर,

                मोहदृढ-बंध शिथिलाते।

"सिद्धवत् शुद्ध भगवन् हूँ",

              जानकर कर्म भग जाते।।

अनुभवी साधु की  वाणी,

              सदा अमोघ^ ही होती है।

वाणी हो सम्यग्ज्ञानी की,

              तो भवों के पाप धोती है।।

धुले हों भाव भव्यों के..............।।2।।

(*केका=मोर की आवाज।^अमोघ=अचूक-प्रभावशालिनी)


नाग जहरीले हों कितने,

                नहीं कुछ बात चिन्ता की।

जिघ्रते नागदमनी को ,

                नकुल अस्पृष्ट-विष रहते।।

"मैं त्रिकाल शुध-ज्ञायक", 

                यही है भवनाशिनी-बूटी।

जो भर लेते हैं भावों में,

              वे 'कलि' में भी सुधरते हैं।।

अविनाशी शुद्ध-ज्ञायक की,

                प्रीति पर से न होती है।

अनंतगुण-खान भगवन् हूँ, 

              सिद्धि खुद से ही होती है।।

धुले हों भाव भव्यों के.................।।3।।

(*जिघ्रते=सूँघते)


न कर्त्ता हूँ  न भोक्ता मैं,

                  मात्र ज्ञाता  सदा से मैं।

न पापी हूँ  न पुण्यात्मा,

                सदा शिवरूप  ही हूँ मैं।।

न देही हूँ  न वैदेही,

              नहीं परिचय  किसी पर से।

न परिणति हूँ  न गुणभेदी,

              नित्य निरपेेक्ष ही हूँ मैं।।

स्वयंसत्ता मैं अविनाशी,

            जो खुद आबाद होती है।

मैं हूँ पतितपावनी-गंगा,

              जो पर्यय-पाप धोती है।।

धुले हों भाव भव्यों के............।।4।।


अरे! जो पुण्य-अभिलाषी, 

                  स्वहित का है विरोधी वह।

अरे! पर का जो हित चाहे,

                'सत्' का धुर-विरोधी वह।।

मेरा ईश्वर नहीं कर्त्ता,

            नहीं किसी की कृति हूँ  मैं।

जो पर्यय में नहीं आता,

              मैं वह नित्य अपरिणामी ।।

नहीं कोई कम नहीं ज्यादा,

              सभी परिपूर्ण-प्रभु हैं ये।

यही परिपूर्णता-बुद्धि,

                अनंत-भवभ्रमण खोती है।।

धुले हों भाव भव्यों के..................।।5।।


  प्रो. सुदीप कुमार जैन, नई दिल्ली

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