"कुछ टूट रहा परिवारों में

पश्चिमी संस्कृति ने ऐसा रंग दिखाया,

बिखराव हो रहा संस्कारों में,

हँसी खो गई, ख़ुशी खो गई,

कुछ टूट रहा परिवारों में,

मान - मर्यादा सभी खो गई,

युवा पीढ़ी वाचाल हो गई,

आँखों की शर्म - लाज़ खो गई,

हया का पल्लू सरक गया है,

रही न वो बात नज़ारों में,

कुछ टूट रहा परिवारों में,

जिन्होंने तुमको पाला - पोसा,

सिसक रहें अंधकारों में,

हँसी खो गई, ख़ुशी खो गई,

कुछ टूट रहा परिवारों में,

माता - पिता जो मेढ़ थे घर के,

सुबक रहें सिर छुपा दीवारों में,

जीवन की खुशियाँ बेरंग हो गई,

क्या कमी रह गई संस्कारों में,

कुछ टूट रहा परिवारों में,

एक कमाता, दस खाते,

होली - दिवाली खूब मनातें,

दस - दस बच्चों को पाला,

रखी न कसर हज़ारों में,

एक को रखना भारी पड़ गया,

बँटवारें किये दीवारों में,        

कुछ टूट रहा परिवारों में,

चिता सँस्कारों की सजी है,

चिंगारी मत दिखलाओ तुम,

सुनों अब भी बाज़ आ जाओ,

भूली संस्कृति अपनाओ तुम,

न मानी बुज़ुर्गों की बातें,

सुनों मुँह की खाओगे,

हमने जैसे - तैसे काट दी,

तुम न काट पाओगे,

एक साँस भी दूभर होगी,

सिसकोगे दर - दीवारों में,

"शकुन" कुछ टूट रहा परिवारों में | 


- शकुंतला अग्रवाल

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