घर-घर में मंथरा बैठी रावण घट घट बसता है
महंगाई सुरसा सी हो गई आदमी अब सस्ता है
ना लक्ष्मण सा भाई हनुमान सा भक्त कहां
मर्यादा पुरुषोत्तम फिर से आप आओ यहां
कलयुग में मर्यादा ढह गई मन में क्लेश भरता है
वैर भाव इर्ष्या घूमे दशानन क्यों नहीं मरता है
कोई कुंभकरण सा सोया मेघनाथ घन्नानाद करें
शूर्पणखा अब पंचवटी में बैठी पीर विषाद करे
ना रही अशोक वाटिका शोक संताप सब हरे
विभीषण सा भाई कहां बढ़कर हित की बात करें
लूट खसोट भरा है जग में भ्रष्टाचार रग रग में
माया का चक्कर हैं अभिमान ठहरा है मग में
रमाकांत सोनी
नवलगढ़ (राजस्थान)
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