{बुद्ध के वचन/ व्याख्या : कमलेश कमल}
बुद्ध-प्रणीत चार आर्य-सत्यों में दूसरा है- "दुःख का कारण है।" मनोवैज्ञानिक रूप से यह सूत्र इस अर्थ में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि होश और सजगता के अतिप्रभावकारी सूत्र इसमें अंर्तनिहित हैं।
बुद्ध कहते हैं कि "दुःख का कारण है।" इसका क्या अर्थ हुआ?
इसमें अंतर्निहित सबसे पहली बात तो यह कि किसी का भी दुःख अकारण नहीं है। अगर दुःख है, तो कोई न कारण होगा चाहे यह दिखे अथवा न दिखे। और, यह आर्य सत्य है- इसका अपवाद भी नहीं है।
दूसरी बात है कि यह आर्य-सत्य हमसे हमारे बहाने छीन लेता है। यह इंगित करता है कि ऐसा नहीं है कि दूसरा दुःखी है, तो उसका कारण है और हम दुःखी हैं तो बिना कारण ही या भाग्यवश दुःखी हैं। सीधे शब्दों में कहें, तो दूसरों को दुःख मिले तो कर्म का फल और हमें स्वयं दुःख मिले, तो बुरी क़िस्मत... यह बहाना नहीं चल सकता।
बुद्ध ने कहा कि अगर दुःख है, तो उसका कोई कारण भी है। इसका सीधा-सीधा अर्थ है कि हम भाग्य को न कोसें। स्पष्ट है कि यह आर्य-सत्य भाग्यवाद का निषेध कर हमें कर्मवाद की ओर उत्प्रेरित करता है। आगे बुद्ध ने तीन व्याधियों अज्ञान, वासना और घृणा को दुःख का मूल कारण कहा, जिन्हें व्यक्ति जिस सीमा तक मिटा सकता है, उस सीमा तक दुःख से मुक्त हो सकता है।
इस आर्य-सत्य का एक निहितार्थ यह भी है कि यह वैज्ञानिक (विशेष ज्ञान से युक्त) दृष्टिकोण का पोषण करता है। कार्य-कारण प्रभाव (cause and effect) की तरफ़ संकेत करते हुए यह हमें बताता है कि दुःख स्वयमेव ही कोई कारण नहीं है; यह यो किसी कारण का प्रभाव है। ऐसे में यह अपेक्षित है कि प्रभाव को देखने से पूर्व हम कारण को देखें। साथ ही, सजग होकर हमें देखना चाहिए कि दुःख के रूप में जो परिणाम हमें मिला है, उसका कारण कहाँ है। अगर यह प्रतिक्रिया है तो क्रिया क्या है?
पुनरपि, देखने का दृष्टिकोण वैज्ञानिक हो। जैसे भौतिकी में यह स्थापित सत्य है कि अगर किसी दिशा में त्वरण (acceleration) है, तो निवल बल (resultant या net force) उसी दिशा में है। यह हो सकता है कि कुछ बल विपरीत दिशा में भी हों, लेकिन सभी बलों का परिणाम उसी दिशा में होगा, जिस दिशा में त्वरण है।
ठीक इसी तरह, अगर जीवन में दुःख है, तो किञ्चित् सभी कर्मों का जोड़ (सकल नहीं निवल कर्म) ऋणात्मक है।
-यहाँ ध्यातव्य है कि मानव मन बड़ा चतुर होता है, बहाने बनाता है। कोई ग़रीब व्यक्ति यह बहाने बना सकता है कि वह ईमानदार है, इसलिए ग़रीब है और कोई अमीर इसलिए अमीर है; क्योंकि वह बेईमान है।
यह आर्य-सत्य हमें ऐसी चालाकियों के प्रति आगाह करता है। यह बताता है कि हम समग्रता में देखें।
ऐसा हो सकता है कि जिसे दुःख मिला हो, वह ईमानदार तो हो, पर मेहनती न हो, व्यवहार-कुशल न हो।
दूसरी तरफ़, जो अमीर हो, सम्भव है कि वह कुछ बेईमानी भी करता हो, पर मेहनती हो, विनीत हो, प्रतिभावान् हो, व्यवहार-कुशल हो।
और, उपर्युक्त संदर्भ में ऐसा भी है कि ग़रीब को उसकी ईमानदारी का प्रतिफल कहीं और मिल जाए, जबकि अमीर को उसकी बेईमानी की क़ीमत कहीं और चुकानी पड़े।
यह कुल मामला ऐसा ही है जैसे यह सम्भव है कि एक छात्र ख़ूब पढ़ाई करता हो, पर स्वास्थ्य का ध्यान न रखता हो; जबकि दूसरा छात्र पढ़ाई से कतराता हो, पर रोज़ जिमखाने जाता हो और खान-पान का भी ध्यान रखता हो।
अब पहले छात्र के ख़राब स्वास्थ्य का कारण पढ़ाई नहीं है और न ही दूसरे छात्र के अच्छे स्वास्थ्य का कारण पढ़ाई से कतराना है। जिसने जो निवल कर्म किया, उसे उसका प्रतिफल मिलेगा।
तो, दुःख के कारणों को समग्रता में देखने की आवश्यकता होती है। हम सुविधानुसार व्याख्या नहीं चुन सकते।
इस आर्य-सत्य का एक निहितार्थ हम यह भी देख सकते हैं कि दैवीय-व्यवस्था निर्दोष होती है। दुःख है, तो दुःख का कारण है। अगर मन मे दुःख है, कुछ खटकता रहता है, कुछ हैंग हुआ है, तो शायद कोई वायरस घुस गया है और हमारा सॉफ्टवेयर करप्ट हो गया है। उदाहरण के लिए, पर्यावरण प्रदूषण को लें।
पर्यावरण-प्रदूषण एक परिणाम है और इसके निश्चित कारण हैं। सामान्य व्यक्ति इसके कारणों को देखेगा, तो वृक्षों की कटाई, उद्योगों से निकलने वाला कचरा जैसे बाह्य कारणों पर विचार करेगा। लेकिन बोध और चेतना को प्राप्त कोई रहस्यदर्शी इसे भिन्न तरह से देखेगा। वह कहेगा कि यह सजगता का अभाव और बेहोशी का परिणाम है। पहले मन प्रदूषित होता है, फ़िर तन प्रदूषित होता है और तब जाकर वातावरण प्रदूषित होता है।
सामूहिक चेतना के निम्न स्तर पर ही यह सम्भव है कि हम पहले जलस्रोतों को प्रदूषित करें और फ़िर उसको शुद्ध करने के लिए सम्मेलन करें। पहले विनाश के आयुध एकत्रित करें और फ़िर निरस्त्रीकरण हेतु सम्मेलन करें।
इस संदर्भ में हमें यह समझना होगा कि सृष्टि किसी को बेवकूफियों के लिए एक निश्चित समय ही दे सकती है, उसके अनन्तर दुःख अवश्यम्भावी है।
दुःख का कारण है का एक महत्त्वपूर्ण निहितार्थ है कि हम इसे भाग्य पर न थोपें, न ही दूसरों को ज़िम्मेदार बनाएँ। हम गहराई में अवगाहन करें, सतही न बनें। यह नहीं कि एक संबंध में दुःख मिला, तो दूसरा बना लिया। दूसरे में दुःख मिला तो उसे छोड़कर तीसरा संबध बना लिया। यह तो ऐसा ही है कि -"हमारा चेहरा था टूटा हुआ और हम आईने बदलते रहे।"
दुःख के कारणों की समझ सजगता के बिना संभव नहीं। निर्भ्रान्त सत्य यह है कि बेहोशी में या निष्चेष्टता में दुःख के कारणों की पड़ताल की ही नहीं जा सकती।
काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह आदि पृथक्-पृथक् कारणों से होने वाले दुःख अपनी नियति, प्रकृति और विस्तृति में भी पृथक् ही होते हैं। ज्ञानमार्ग से दुःखमोचन हेतु इस संबंध का परिज्ञान आवश्यक है। और, जब तक हम कारण तक न पहुँचें, दुःख-निवृत्ति या दुःख-निरोध तक पहुँच ही नहीं सकते।
"दुःख का कारण है" पर विचार करने के क्रम में हमें एक बार क्रोधजन्य दुःख पर भी विचार कर लेना चाहिए। सच यह है कि क्रोध भले ही हमें दुःख देता है, पर क्रोध भी मूल कारण नहीं है। क्रोध भी परिणाम ही है- सजगता के अभाव का।
हमें जब अपने दुःख का कारण कोई अन्य दिखता है, तो हम उस पर क्रोध करते हैं। हमारा अज्ञान या हमारी बेहोशी उसे दुःख के कारण के रूप में लेती है। लेकिन, सजगता हमें दिखाती है कि कारण कोई अन्य नहीं, अपितु हम स्वयं हैं।
इसी तरह अहंजन्य दुःख अगर हमें मिला है, तो हमें यह देखना चाहिए कि उस अहं की प्रकृति कैसी है, जिसके कारण यह दुःख उद्भिद हुआ है। यही तो आगे दुःख निरोध का सूत्र दे सकता है, उदाहरण के लिए, अगर वस्तुगत-स्वामित्व से संबध्द अहं है, तो उसके प्रतिस्थापन या उसकी निस्सारता को समझना लाभप्रद होगा।
अगर संबंध-जन्य अहं से उद्भिद दुःख है, तो यह बोध वांछनीय है कि हमारा पुत्र, हमारी पत्नी या कार्यस्थल का कनिष्ठ कर्मचारी सब बस एक धागे से हमसे जुड़े हैं। उन सबकी अपनी-अपनी सत्त्ता भी है और वे भी सबसे पहले स्वयं के लिए महत्त्वपूर्ण हैं। ऐसे में, स्वामित्व-बोध भी उचित नहीं और मोह भी उचित नहीं। मोह को तो ऐसे भी होश की व्यतिरेकी (विरोधी) प्रवृत्ति का माना गया है। जीवन का मोह या जिजीविषा सबसे बड़ा मोह है, पर होश तो समझता है कि कुछ भी स्थाई नहीं।
इसी तरह, अपने व्यक्तित्व से जुड़े अहं से उद्भिद दुःख के निरोध के लिए भी हमें यह देखना चाहिए कि सबको अपनी पड़ी रहती है। सब अपने लिए महत्त्वपूर्ण हैं,जैसे मैं अपने लिए महत्त्वपूर्ण हूँ। अगर इसी वक़्त मैं एक दुर्घटना का शिकार हो जाऊँ, तो इस पृथ्वी पर कोई प्रलय नहीं आने वाला।
आत्मगत अहं के संदर्भ में एक प्रसिद्ध सूत्र है कि जब घमण्ड आ जाए, लोभ आ जाए, ईर्ष्या आ जाए, मत्सर आ जाए, तो स्वयं को समझाया जा सकता है कि पहले जब कभी विकट लोभ किया, घमण्ड किया तो परिणाम क्या रहा...लाभ हुआ या हानि मिली?
इस तरह देखें, तो दूसरा आर्य-सत्य काल-चिंतन से भी सम्बद्ध हो जाता है। यही सजगता का भी सूत्र है और तीसरे-आर्य सत्य का प्रवेश द्वार भी।
[नोट : बुद्ध पर लिखे 12 आलेखों में यह दूसरा है। आप अपने प्रश्न और सुझाव टिप्पणी में लिख सकते हैं।]
************
No comments:
Post a Comment