वास्तविकता

 वास्तविकता 

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नहीं दु:खों की कहीं थाह 

ईश-भजन ही एक राह 

"सुख-दुःख" जोड़े,

देन उसी की ।

हम सब भी हैं,

देन उसी की ।।

कटु सत्य का घूँट कड़वा,

सबको पीना ही पड़ता ।

इच्छानुसार ठीक उसी के,

वैसे ही जीना पड़ता ।।

गीतोपदेश रख ध्यान में,

हो जाओ उसके अर्पण ।

साये उसके ही पलता,

सृष्टि का सारा दर्पण ।।

एक एक पल उसी के हाथ 

हरि-नाम हो सदा साथ 


( बृजेन्द्र सिंह झाला"पुखराज")

     कोटा (राजस्थान)

मोक्ष प्राप्ति के साधक व वाधक तत्व



मोक्ष प्राप्ति के साधक व वाधक तत्व


आध्यात्म जगत में मोक्ष का उल्लेख मिलता है | जीवन का लक्ष्य मोक्ष होना चाहिए | भौतिक व लक्ष्मी के वरण का लक्ष्य बना भी लिया तो कौनसा बड़ा काम कर लिया, यह नश्वर है वह इस जन्म के बाद साथ नहीं जाने वाला है | अतः हमें ६ मोक्ष के साधक तत्वों पर विचार कर उनका अनुसरण करना  चाहिए | वे हैं - साध्य, साधन, साधु, साधना सिद्धि व सिद्ध | साध्य – मोक्ष, साधन – सम्यक दर्शन, ज्ञान व चारित्र, साधु – उनका पालन करने वाला, साधना मोक्ष की दिशा में होने वाला प्रस्थान, सिद्धि – लक्ष्य की प्राप्ति और सिद्ध – मुक्त आत्मा | उसी प्रकार मोक्ष के कुछ वाधक तत्व भी हैं – चंडता, गुस्सा, आवेश | गुस्सा हमारी कमजोरी है, हार है इससे बचकर हमें शांति के पथ पर अग्रसर होना चाहिए | कम खायें, नम जायें | मस्त, स्वस्थ तथा प्रशस्त रहें | होठों को सीना सीखें | महान वह जो कठोर वचन सुनकर अधीर न हो व उसे पीना जानता है व मौन रहना भी | हर श्वास को देखें, जीना सीखें व शुभ भावों में प्रवृत हों तथा दीर्घ श्वास का अभ्यास भी करें | आचार्य महाप्रज्ञजी नें ध्यान के कई शिविर लगाये | गर्व व घमंड भी मोक्ष प्राप्ति में वाधक बन जाता है | हम चुगली आदि से बचकर आत्मानुशासन का जीवन जीयें व क्रमशः मोक्ष की ओर अग्रसर होते रहें |

 प्रवचनकार – आचार्य महाश्रमण


 स्थल – बीदासर

सिन्धु घाटी की सभ्यता में श्रमण परंपरा : जैन धर्म के परिपेक्ष्य में

 


 सिन्धु घाटी की सभ्यता में श्रमण परंपरा : जैन धर्म के परिपेक्ष्य  में


 सिन्धु सभ्यता मे जैन पंरपरा पर सार गर्भित वक्तव्य डा0 मैनुअल जोजेफ जी ने  दिया  इष विषय पर वर्षों के गहन अध्ययन को सार रूप मे समाहित करते हुए सिन्धू घाटी की सीलो प्राप्त दिगम्बर प्रतिमाओं प्रतीकों के माध्यम से बहुत तथ्यपूर्ण रूप से बताया कि सिन्धु घाटी के ये प्रतीक अन्य धर्म एवं परपराओं के कम जैन परंपराओं के अधिक  निकट है जिषको उन्होने चित्रो और संदर्भो सहित प्रस्तुत किया तथा यह भी कहा कि वर्तमान  परंपराएं कहीं न कहीं उषी से निकली है तथापि इनका संबंध श्रमणों विशेष कर जैनो के पक्ष को प्रस्तुत करता है क्योंकि महावीर से पहले पार्श्व नेमि और ऋषभ उसी परंपरा के प्रतिनिधि है तथा योग पर विशेष बल देते हुये जैन धर्म के  विशेष गुणो को पतंजलि ने भी स्वीकारा है। 

इषी क्रम मे मुख्यअतिथि डा रेणुका पोरवाल जी ने अपने उद्बोधन मे कहा

 मथुरा के कुछ प्रतीकों का साम्य सिन्धु सभ्यता मे देखा जा सकता है जिषे मैने अपनी पुस्तक मे और लेखो के माध्यम से कहा है

 डा जोजेफ ने बहुत सुंदर सार्थक चर्चा  करी और  इस दिशा मे और शोध करने के लिए नई दृष्टि और प्रेरणा दी है।

अध्यक्षीय उद्बोधन मे डा नीलम जैन जी ने अपने विस्तृत वक्तव्य मे विषय पर प्रकाश डालते हुये कहा कि यह सभ्यता कितनी विशाल और प्राचीन है इससे सभी भारतीय परंपराओ की जडें जुडती है अपनी अनेक विदेशो की यात्रा का अनुभव चिंतन बताते हुये बताया कि माया सभ्यता पर मैने काफी अध्ययन किया है और कई परंपराये हमे समान दिखी स्वरूप थोडा जरूर बदलता है काल क्षेत्र भाषा कला के प्रभाव से पर मूल एक समान  है।

बहुत ही सुंदर संचालन आयोजन की सहसंयोजक  डा ममता जैन ने किया और आपने इष विषय मे रुचि रखने वाले युवाओ एवं शोधार्थियों को विशेष रूप से जोडकर इष आयोजन को सफल बनाया ।

कार्यक्रम के संयोजक शैलेंद्र जैन ने इस वेबीनार मे  सभी वरिष्ठ जनो एवं युवा साथियों का आभार प्रकट किया 

डा ममता  जैन

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