स्वयं की प्रतिद्वंदी जब हो जाती हूं
स्वच्छंदता की जिज्ञासा होती है ।
अनेकों जिजीविषा और स्पृहा ,
मेरे सन्मुख आने लगते हैं तत्क्षण ।
स्वयं को निर्निमेष सी निहारती हूं तो,
किंकर्तव्यविमूढ़ सी महसूस होती है।
दिवास्वप्न के भांति अलौकिक सी
सुललित -ओज सी दृश्य सन्मुख होती है।
जैसी स्वयं को मैं क्षितिज पर पाती हूं,
दृढ़ मंतव्य का भान होता है मुझे ।
कभी-कभी उर्मिला सी हो जाती हूं
और स्वयं को अंकोर में भर लेती हूं।
तब कोई भी कार्य क्लिष्ट नहीं लगता है,
अभ्यस्त सी होने लगती हूं मैं।
जैसे-जैसे घोर निद्रा में स्पंदन होता है,
एहसास होता है मैं आपेक्षिक नहीं हूं।
जब अपने अस्तित्व का ज्ञान होता है,
ईश्वर के निर्दिष्ट का भी पहचान होता है।
- पूजा भूषण झा, वैशाली, बिहार।
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