-स्वयं को...

 

स्वयं की प्रतिद्वंदी जब हो जाती हूं

स्वच्छंदता की जिज्ञासा होती है ।

 

अनेकों जिजीविषा और स्पृहा ,

मेरे सन्मुख आने लगते हैं तत्क्षण ।


स्वयं को निर्निमेष सी निहारती हूं तो,

किंकर्तव्यविमूढ़ सी महसूस होती है।


दिवास्वप्न के भांति अलौकिक सी

सुललित -ओज सी दृश्य सन्मुख होती है।


जैसी स्वयं को मैं क्षितिज पर पाती हूं,

दृढ़ मंतव्य का भान होता है मुझे ।


कभी-कभी उर्मिला सी हो जाती हूं

और स्वयं को अंकोर में भर लेती हूं।


तब कोई भी कार्य क्लिष्ट नहीं लगता है,

अभ्यस्त सी होने लगती हूं मैं।


जैसे-जैसे घोर निद्रा में स्पंदन होता है,

एहसास होता है मैं आपेक्षिक नहीं हूं।


जब अपने अस्तित्व का ज्ञान होता है,

ईश्वर के निर्दिष्ट का भी पहचान होता है।


- पूजा भूषण झा, वैशाली, बिहार।

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