1. महिला= मही(पृथ्वी) पर ला(लानेवाली)। {इसका अभिप्राय 'जन्मदात्री' है, न कि धरती पर पटकनेवाली}
सृष्टिकर्त्ता के रूप में ब्रह्मा जी का स्मरण वैदिक-संस्कृति में किया गया है, यह सत्य है, किन्तु वर्तमान में हमारी दैहिक-सृष्टि का कर्त्री यदि कोई है, जिसे हम साक्षात् जानते हैं, तो वह 'महिला' ही है, जो मातृत्व के द्वारा 'निर्मात्री' भी होती है और 'जननी' भी है।
'मह् पूजायाम्' धातु से निष्पन्न होने के कारण भारतीय संस्कृति में 'महिला' शब्द स्वाभाविक रूप से समादृत-व्यक्तित्व के लिये ही प्रयुक्त होता है।
2. गृहणी= 'गृह' (पूरा परिवार) हो जिसके अवदानों का 'ऋणी'। यद्यपि यह अर्थ भले ही व्यंग्यार्थ के रूप में ग्रहण किया जाता हो, परन्तु यह सुनिश्चित है कि 'गृह' की पूर्णता व सार्थकता तो गृहिणी के आधान से ही जीवन्त होती है।
3. स्त्री = 'स्त्यै शब्द-संघातयोः' धातु/क्रिया के अर्थ के अनुसार जिसके निमित्त से शब्दों का सृजन प्रारंभ होता है (ज्ञातव्य है कि विश्वस्तरीय अध्ययन से यह ज्ञापित होता है कि कोई भी शिशु अपने जीवन का प्रथम-शब्द 'माँ' का वाचक ही बोलता है और उस बालक की प्रथम-शिक्षिका भी उसकी माँ ही होती है।) अतः शब्द-प्रक्रिया के जन्म/आविष्कार एवं विकास में स्त्री-सत्ता का अनन्य-योगदान होने से उन्हें 'स्त्री' कहा गया है।
तथा 'परिवार' नामक प्राथमिक-संघटन का आधार भी स्त्री ही होती है। यदि स्त्री न हो, तो व्यक्ति कभी संघटित होने की मानसिकता में ही नहीं आयेगा। दूसरे शब्दों में कहा जाये तो मनुष्य को 'सामाजिक-प्राणी' कहा तो जाता है, किन्तु उसकी संघटनात्मक-सामाजिकता की सूत्रधार यही 'स्त्री' होती है।
4. वनिता= "यूनां परिणता तपस्येति मतं मम"-- यह परिचय कोशग्रन्थों में 'वनिता' शब्द का दिया गया है। इसका अर्थ है कि जो युवजनों को तपस्या/मेहनत में परिणत कर दे, वह 'वनिता' है। इसे मोटिवेशन/संप्रेरक अर्थ में लिया जाना चाहिये।
5. नारी= यह शब्द भले ही 'नर' का स्त्रीत्वबोधक रूप है, परन्तु 'नर' शब्द के जो अर्थ श्रेष्ठ, शौर्यवान्/पुरुषार्थी आदि किये जाते हैं, तो वे सभी अर्थ स्वाभाविक रूप से 'नारी' शब्द में परिगृहीत हो ही जाते हैं, क्योंकि यह नर शब्द का ही रूप है। 'नर' तो अकेला 'अवघड़' (बिना शरीर-संस्कारों के) ही रह जाता, उसे 'सुघड़' बनने की प्रेरणामूर्ति तो 'नारी' ही होती है।
'नारी' शब्द के विषय में कुछ लोग 'न+अरि=नारि' व्याख्या भी करते हैं, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि 'नारी के समान नर का कोई शत्रु/अरि नहीं है', बल्कि 'नारी नर की अरि' नहीं है-- यह लिया जाना चाहिये, क्योंकि वही नारी तो उसके हृदय में अनुराग का अंकुरण करती है।
6.भामा/भामिनी= यह सौन्दर्य एवं आभा/चमक का वाचक शब्द है। वे स्वयं भी आभावती होतीं हैं और पुरुषों के चेहरों की आभा को बढ़ा भी सकतीं हैं और प्रतिकूल होने पर उस चमक को गायब भी कर सकतीं हैं-- ऐसी विशिष्ट-क्षमता के कारण उन्हें 'भामा/भामिनी' कहा गया है।
7. भार्या= जो 'भवन' को 'घर' बना दे, और जो घर में समृद्धि की कारण बने, इस अर्थ में 'भार्या' शब्द का प्रयोग है। व्यंग्य-कवि इसे 'भार/भारी' के अर्थ में कहकर अपनी भड़ास निकालते अवश्य हैं, किन्तु यह तथ्य से परे है।
8. मादा= यह 'नर' के विपरीत-लिंगी के रूप में समझा जानेवाला वैदेशिक शब्द है, किन्तु भारत की प्राचीन जनभाषा प्राकृत में माँ/माता को ही 'मादा' कहा गया है-- "मादा दे पुज्जा जादा" कहकर उसे स्वाभाविक रूप से 'आदरणीया' कहा है।
*सभी महिलाओं को उनकी अन्तरराष्ट्रीय महिमा के स्वीकार-दिवस पर हार्दिक बधाई। यह एक दिन आपकी महिमा का विश्वस्तर पर मनाया जाता है, किन्तु हमारे देश में तो हर दिवस ही 'महिला-दिवस' होता है।
प्रो. सुदीप कुमार जैन, नई दिल्ली
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