विद्या नृत्यांजली-अंतर्राष्ट्रीय नृत्य प्रतियोगिता

सन्त शिरोमणि आचार्य भगवन श्री 108 विद्यासागर जी महामुनिराज के आने वाले आचार्य पदारोहण दिवस २२नवम्बर२०२२ के पावन उपलक्ष्य में गुरुदेव निर्यापक मुनिपुंगव श्री 108 सुधासागर जी महाराज,मुनि श्री 108 पूज्य सागर जी महाराज,ऐलक श्री 105 धैर्य सागर जी महाराज, क्षुल्लक श्री 105 गम्भीर सागर जी महाराज के पावन आशीर्वाद से " श्री दिगम्बर जैन खंडेलवाल समाज,सूरत" द्वारा आचार्य भगवन के स्वर्णिम आचार्य पदारोहण दिवस को सम्पूर्ण विश्व मे हर्षोल्लास के साथ मनाने  व समाज की उत्कृष्ट प्रतिभाओं को मंच प्रदान करने के उद्देश्य से अंतर्राष्ट्रीय नृत्य प्रतियोगिता "विद्या नृत्यांजली का आयोजन  किया जा रहा है,जिसके लिए युवा कलाकारों से प्रतियोगिता में शामिल होने हेतु प्रिविष्ठियाँ आमंत्रित की जा रहीं है।

प्रतियोगिता में शामिल होने हेतु आवश्यक जानकारी निम्न प्रकार है:-

👉प्रतियोगिता में पंजीकरण कराने की अंतिम तिथि 5 नवम्बर है जो कि ऑनलाइन की जाएगी,निर्धारित तिथि के बाद पंजीकरण स्वीकार नहीं किये जायेंगे।

👉प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार 51,000रुपये, द्वितीय पुरस्कार 31,000 रुपये,तृतीय पुरस्कार 21,000 रुपये तथा 47 सांत्वना पुरस्कार 21,00 रुपये व सभी विजेताओ को आकर्षक स्मृति चिन्ह एवं सभी प्रतिभागियों को प्रमाण पत्र वितरित किये जायेंगे।  

👉प्रतियोगिता का आयोजन तीन राउण्ड में किया जाएगा ।

👉प्रतियोगिता में 15 वर्ष से 30 वर्ष आयु वर्ग के युवक, युवती, महिला,पुरुष भाग ले सकते है एवं प्रतियोगिता में सोलो(एकल नृत्य) प्रस्तुति ही मान्य होगी।

👉सभी प्रतिभागियों को अपना आधार कार्ड संलग्न करना आवश्यक होगा।

👉 प्रतियोगिता का प्रथम क्वाटर राउण्ड 15 नवम्बर,द्वितीय सेमिफाइनल राउण्ड 22 नवम्बर को ऑनलाइन किया जाएगा तथा तृतीय फाइनल राउण्ड 11 दिसम्बर को सूरत, गुजरात में ऑफलाइन किया जाएगा जिसमे टॉप 10 प्रतिभागियों को कार्यक्रम से एक दिन पूर्व अपने एक अभिभावक के साथ (माता,पिता,पति)बुलाया जाएगा तथा कार्यक्रम का पारस चैनल पर लाइव प्रसारण किया जाएगा ।

👉 जिन टॉप 10 प्रतिभागियों का चयन किया जाएगा उन्हें प्रस्तुति हेतु सूरत, गुजरात बुलाने पर आवास व्यवस्था, भोजन व्यवस्था व उनके आने-जाने का रेल्वे टिकिट आयोजकों द्वारा दिया जाएगा।

👉 सभी प्रतिभागियों को अपनी प्रस्तुति करने हेतु गाने आयोजकों  द्वारा ही दिए जाएंगे जिस पर प्रतिभागियों को 2 मिनट की प्रस्तुति तैयार कर vidhyanrityanjali.50@gamil.com पर e-mail करनीअनिवार्य होगी whatsapp video स्वीकार नहीं किये जायेंगे तथा एक प्रस्तुति का एक video ही मान्य किया जाएगा।

👉प्रस्तुति के आधार पर निर्णायक मण्डल द्वारा अगले राउण्ड के लिए प्रतिभागियों का चयन किया जाएगा।

👉अपनी प्रस्तुति रिकॉर्ड करते समय आपको मंच सज्जा करना आवश्यक होगा,आपकी रिकॉर्डिंग HD क़्वालिटी में ही होनी चाहिए,आपकी प्रस्तुति one take में ही होनी चाहिए एवं आपकी वेशभूषा आपकी प्रस्तुति(नृत्य) के अनुसार ही होनी चाहिए वेस्टर्न ड्रेस एवं प्रस्तुति में ऑरिजनल फूलों का इस्तेमाल मान्य नहीं किया जाएगा व Edited वीडियो मान्य नहीं किये जायेंगे।

👉 प्रतियोगिता में निर्णायक मण्डल द्वारा निम्न विषयों को देखकर प्रतिभागियों का चयन किया जाएगा।

परफॉर्मेंस

एक्सप्रेशन

बॉडी लैंग्वेज

ऐनर्जी लेबल

कॉस्ट्यूम

सेट डिज़ाइन

मेकअप

👉प्रतियोगिता पंजीकरण शुल्क मात्र 200/- रुपये रखा गया है। जिसे आप 7615060671 पर googal pay,phonepe,Ptm कर सकते है, शुल्क जमा कराने के पश्चात 7615060671  पर स्क्रीन शार्ट भेजना अनिवार्य है।

👇इस लिंक के माध्यम से आप अपना पंजीकरण कर सकते है:-

https://docs.google.com/forms/d/e/1FAIpQLSeUwUVpHx7JRQjrRqfNdbl7LZ-WqMfUmuPsTHPY762BjjlzgQ/viewform?usp=sf_link

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🌹आयोजक:-🌹

श्री दिगंबर जैन खंडेलवाल  समाज सूरत

 श्री राजीव जी भूच(अध्यक्ष)

श्री संजय जी गदिया(महामंत्री)

श्री पवन जी गोधा(कोषाध्यक्ष)

🌹निवेदक:-🌹

सकल दिगम्बर जैन समाज,सूरत, गुजरात

🌹समन्वयक:-🌹

श्रीमति शीला डोडिया,जयपुर

🌹कार्यक्रम निर्देशक:-🌹

अजय जैन मोहनबाड़ी,जयपुर

🌹गीत संगीत निर्देशक:-🌹

श्री अवशेष जैन,जबलपुर

🌹संयोजक:-🌹

चारु सत भैया,ललितपुर

अधिक जानकारी हेतु सम्पर्क करें:-

* 8854808400*

तनहाई


  तनहा- तनहा सफर है तनहा मंजिल पाकर भी हम रहे

 भरी महफिल है ,लोगों के हैं कह- कहे

 कोई लगा रहा हंसी के ठहाके

 पर हम तन्हा बुझे दिल से अपने मन की किस से कहें

 तन्हा ही चले थे सफर पर, मंजिल पाकर भी तन्हा ही रहे 

तनहा तनहा सफर है, तनहा मंजिल पाकर भी रहे 

यूं तो कहने को सब अपने हैं

 पर मन के भीतर मेरे अपने ,कुछ मेरे अपने, मेरे अपने सपने हैं

 खो जाते हैं भरी महफिल में भी 

उदास से हो जाते हैं भरी महफिल में भी

 तनहाई में लगा लेते हैं अब मेले

 उसमें फिर अपने ही सपनों से, हम अपने ही ढंग से खेले

 कभी लगता है महफिल जमी है ,कभी लगता है अकेले

 तन्हा तन्हा सफर है तन्हा मंजिल पाकर भी रहे

 खिलौने भी सपने हो लिए

 सपने ही अब अपने हो लिए

 सिखाया तनहाई ने सबक नया

 दर्द अपना हर कहीं न करना बया

  गुम हो गए हम अपनी तन्हाई में 

अब मैं अपना ही अक्स ढूंढती हूं अपनी परछाई में

 तन्हा तन्हा सफर है तन्हा मंजिल पाकर भी रहे

 जो तुम तक कभी आए तो महफिल मैं गीत खुशी के गाए

 झूम के नाचे भी कभी, और कभी आंखो के जगमग जगमग दीप जलाए

 कभी हंसी की छोङी फुलझड़ी है

 तो कभी खिल खिलाए पर फिर वही ठोकर लगी, जागे,,

 तो साथ चल पड़े तन्हाई के साए

 तन्हा तन्हा सफर है तन्हा मंजिल पाकर भी रहे 

अब रास आ गई है ,मुझे मेरी यह तन्हाई 

कभी राधा सी होती हूं तन्हा मै

 आंखों में नन्हा मोती भिगोती हूं तन्हा मै

 तो कभी हो जाती हूं मुरली बजाती कन्हाई में

 तन्हा तन्हा सफर है तन्हा मंजिल पाकर भी रहे

 खुश हूं मेरी तन्हाई के साथ

 अब लगता है

 अब लगता है

 हो गई है, जैसे प्रेम सगाई तन्हाई के साथ

 तनहा तनहा सफर है तनहा मंजिल पाकर भी रहे।।

 

 डॉ शीतल श्रीमाली उदयपुर

 राजस्थान

प्राकृत आगम वाक्यों को बनाएं ध्येय वाक्य


प्रो.डॉ. अनेकान्त कुमार जैन,नई दिल्ली


आपने देखा होगा कोई भी संस्था या कंपनी अपनी पहचान के लिए एक लोगो तैयार करवाती है जो बाद में जाकर उसकी पहचान बन जाता है । इस लोगो में संस्कृत या अन्य किसी भाषा में एक ध्येय वाक्य भी होता है । जो संस्था के उद्देश्य को या आदर्श को इंगित करता है । जैसे भारत सरकार 'सत्यमेव जयते' लिखती है । यह वाक्य मूलतः मुण्डक-उपनिषद का सर्वज्ञात मंत्र 3.1.6 है। पूर्ण मंत्र इस प्रकार है-


सत्यमेव जयते नानृतम सत्येन पंथा विततो देवयानः।

येनाक्रमंत्यृषयो ह्याप्तकामो यत्र तत् सत्यस्य परमम् निधानम्॥


अर्थात अंततः सत्य की ही जय होती है न कि असत्य की। यही वह मार्ग है जिससे होकर आप्तकाम (जिनकी कामनाएं पूर्ण हो चुकी हों) मानव जीवन के चरम लक्ष्य को प्राप्त करते हैं।

इसी प्रकार

हमें अपनी संस्था ,फर्म या कंपनी,समाचार पत्र,पत्रिका  का ध्येय वाक्य प्राकृत आगमों या साहित्य से भी ग्रहण करना चाहिए ।


संस्था ,मंदिर ,तीर्थ,पुस्तकालय की दीवारों पर इनको लिखवाया जा सकता है ।


पत्रकार बंधु अपने समाचार पत्र पत्रिका में प्रत्येक अंक में इस तरह की सूक्ति,ध्येय वाक्य प्रकाशित कर सकते हैं ।

 हम खोजें तो हमें अपने ही ग्रंथों में हज़ारों वाक्य मिल सकते हैं  जो हमारी  श्रमण संस्कृति का भी प्रतिनिधित्व करते हैं और प्राकृत भाषा का भी । यहां उदाहरण के रूप में मात्र कुछ वाक्य संग्रह करके प्रस्तुत किये जा रहे हैं । इस प्रकार अनेक वाक्य खोजे जा सकते हैं ।



1. अहमेक्को खलु सुद्धो।

समयसार 1/38

 मैं एक हूं और निश्चय ही शुद्ध हूं ।


2. जाणगभावो दु अहमेक्को ।

समयसार 7/6-7

 मैं तो एक ज्ञायक भाव हूँ ।


3. अपरिग्गहो अणिच्छो। 

समयसार 7/18-21

जिसके इच्छा नहीं है वह अपरिग्रही है ।


4. झाणस्स ण दुल्लाहं किंपि । 

आराधनसार /87

ध्यान से कोई भी वस्तु दुर्लभ नहीं है अर्थात ध्यान के द्वारा सभी कार्य सिद्ध हो सकते हैं ।


5. अज्झयणमेव झाणं । 

रयणसार/90

अध्ययन ही ध्यान है ।


6. अप्पा अपम्मि रओ । 

द्रव्यसंग्रह /56

आत्मा अपनी आत्मा में रमे।


7. कम्मिंंधणमहियं खमेण झाणाणलो दहइ । 

तिलोय प./9/22,भाग 3

ध्यान रूपी अग्नि बहुत भारी कर्म रूपी ईंधन को भी क्षण भर में जला देती है ।


8. णिच्चं जग्ग झाणपडहेण । 

मृच्छकटिक/8/1

ध्यान रूपी पटह( नगाड़े)से सदा जागृत रहना चाहिए ।


9. आदा मे संवरो जोगो । 

समयसार 8/41

मेरी आत्मा ही संवर और योग है ।


10. सत्थं समधिदव्वं । 

प्रवचनसार/ 1/93

शास्त्र का सम्यग प्रकार से अध्ययन करना चाहिए ।


11.सज्झाएण नाणावरनिज्जं कम्मं खवेइ  !(उत्तरा. 29/18)

  स्वाध्याय से ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय होता है !


12.

आगमो हु कादव्वो 

(भगवती आराधना-१५१)

आगम  का स्वाध्याय करना चाहिये ।


13.चारित्तं खलु धम्मो ।

(प्रवचनसार 7 )

चारित्र ही धर्म है ।


14.वत्थु सहावो धम्मो ।

( वारसाणुवेक्खा 476)

वस्तु का स्वभाव धर्म है ।


15.जीवाणं रक्खणं धम्मो ।

( वारसाणुवेक्खा 476)

जीवों की रक्षा धर्म है ।


16. आदा णाण पमाणं ।

(प्रवचनसार 23)

आत्मा ज्ञान‌ प्रमाण‌ है ।


17.णाणस्स सारमायारो ।

ज्ञान का‌ सार‌ आचार‌ है ।

( जैन विश्व भारती संस्थान,लाडनूँ का आदर्श वाक्य)


18.झाणं हवे सव्वं  । 

(नियमसार 119)

-ध्यान सर्वस्व है।


19.णमो जिणाणं ।

( पंचास्तिकाय 1)

जिनेंद्र भगवानों( जिन) को नमस्कार । ( पागद भासा समाचारपत्र का ध्येय वाक्य )


20. रयणत्तयं च धम्मो 

( वारसाणुवेक्खा 476)

रत्नत्रय धर्म है 


21.धम्मे एयग्गमणो

( वारसाणुवेक्खा 477)

धर्म में एकाग्र हो ।


22.णाणं पयासयं ( मूलाचार )

ज्ञान प्रकाशक है ।

(भारतीय ज्ञानपीठ,नई दिल्ली,मुमुक्षु आश्रम, कोटा तथा प्राकृत टाइम्स का ध्येय वाक्य)


‘णाणं पयासयं’ ज्ञान अज्ञानरूपी अन्धकार को दूर कर सम्यग्ज्ञानरूपी सूर्य को प्रकाशित करता है। 

णाणं पयासयं/णाणं पयासगं।- गाथा 97 अथवा 103, आवश्यक-निर्युक्ति, भद्रवाहु स्वामी, सम्पा.अनु.- डाॅ.समणी कुसुम प्रज्ञा, जैन विश्वभारती, लाडनूं, पहला संस्करण, 2006 ई.


23.

पण्णा समिक्खए धम्मं। 

(उत्तराध्ययन सूत्र 23/25)

धर्म की प्रज्ञा से समीक्षा करो। 


24.

पढमं नाणं तवो दया। 

(दशवैकालिक सूत्र ४-१०)

पहले ज्ञान फिर दया


25.

विणओ सिक्खाए फलं। 

(भगवती आराधना- १३०)

 शिक्षा का फल विनय है।  


26.सच्चं लोयम्मि सारभूयं | सत्य लोक में  सारभूत है |

(भोगीलाल लहेरचंद इंस्टिट्यूट ऑफ़ इन्डोलोजी ,दिल्ली का ध्येय वाक्य )


27.केवली पण्णत्तो धम्मो मंगलं | केवली प्रणीत धर्म मंगल है|

(धर्म मंगल पत्रिका ,पुणे का ध्येय वाक्य )


२८.णाणुज्जोवो जोवो | 

(अर्हत प्रवचन १९/४७ )

ज्ञान का प्रकाश ही सच्चा प्रकाश है |

( जैन विद्या संस्थान ,श्री महावीर जी का ध्येय वाक्य )


29. अप्पा अप्पम्मि रओ 

( द्रव्य संग्रह गाथा 56,भाव पाहुड गाथा 56 )

आत्मा आत्मा में लीन रहे ।


30.जं सेयं तं समायरह

( भाव पाहुड गाथा 56)

जो श्रेष्ठ है उसका आचरण करें ।


31. सज्झाय वा निउत्तेणं , सव्व दुक्ख विमोक्खणे ।()

निरंतर स्वाध्याय करते रहने से समस्त दुखों से मुक्ति मिल जाती है । ( स्वाध्याय संदेश,हिंदी मासिक का ध्येय वाक्य)


32. णाणेण झाण सिद्धि । 

( रयणसार ,गाथा 150)

ज्ञान से ध्यान की सिद्धि होती है ।


33.एगा धम्मपडिमा, जं से आया पज्जवजाए।

  (-स्थानांगसूत्र1/1/40)

एक धर्म ही ऐसा पवित्र अनुष्ठान है, जिससे आत्मा की विशुद्धि होती है।


34.अणुचिन्तिय वियागरे।

जो कुछ बोले, विचारकर बोले।

           -सूत्रकृतांग १/९/२५


35.एगे चरेज्ज धम्मं।

भले ही कोई साथ नहीं दे, अकेले ही सद्धर्म करना चाहिए।

           -प्रश्नव्याकरणसूत्र २/३


36.दीवेइ खेत्तमप्पं सूरो णाणं जगमसेसं।।- अर्हत्प्रवचन(गाथा-19/47), 


अर्थ-ज्ञान का प्रकाश ही सच्चा प्रकाश  है, क्योंकि ज्ञान के प्रकाश की कोई रुकावट नहीं है।  सूर्य थोड़े क्षेत्र को प्रकाशित करता है, किन्तु ज्ञान पूरे संसार को प्रकाशित करता है।

                     




यहाँ हमने कुछ संस्थाओं के ध्येय वाक्यों का भी उल्लेख किया है जिन्होंने प्राकृत जैन आगमों से उसे लेकर आदर्श स्थापित किया है | इस प्रकार अनेक और भी संस्थाएं हैं जो अपना ध्येय वाक्य प्राकृत भाषा में रखती हैं | हम सूचना मिलने पर उन्हें भी इस सूची में अवश्य सम्मिलित करेंगे | अभी तो मात्र प्रेरणा के लिए यहाँ उदाहरण मात्र दिया गया है |

आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय की पाठशाला


◆ अशुद्ध और अनुपयुक्त शब्दप्रयोग :-- 

शुभ कामना, शुभकामनाएं, शुभकामनाएँ, शुभ कामनाएँ, हार्दिक शुभकामना, हार्दिक शुभ कामना, हार्दिक शुभकामनाएं/हार्दिक शुभकामनाएँ तथा हार्दिक शुभ कामनाएं तथा हार्दिक शुभ कामनाएँ।

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 ऊपर अशुद्ध और अनुपयुक्त शब्दप्रयोग के अन्तर्गत जितने भी शब्द दिख रहे हैं, वे सभी-के-सभी [यहाँ दो शब्दों के मध्य 'योजकचिह्न' का प्रयोग इसलिए है कि तीनो शब्द एक-दूसरे के साथ (यहाँ 'साथ' के स्थान पर 'से' का प्रयोग अशुद्ध है।) जुड़े हुए हैं।]  शब्द पढ़े-लिखे लोग ('लोगों' अशुद्ध है; क्योंकि बहुवचन के शब्दों का पुन: 'बहुवचन' नहीं बनाया जाता।) बेहिचक प्रयोग करते आ रहे हैं। इनमें दो शब्द प्रयोग किये गये हैं :-- पहला, शुभ कामना। इसके दोनो शब्द सार्थक हैं, जिनका पृथक्-पृथक् अर्थ है :-- मङ्गल/मंगल/कल्याण और इच्छा/चाह। इसके अतिरिक्त इन शब्दों का कोई सम्मिलित अर्थ नहीं है। एक अन्य शब्द 'शुभकामनाएं' भी अशुद्ध है; क्योंकि 'कामना'/'इच्छा'/'चाह' एक प्रकार का भाव है और भाव का कभी बहुवचन मे परिवर्त्तन नहीं होता। 'शुभ' के साथ जुड़ा शब्द 'कामनाएं' है और कामनाएँ' भी। वहीं 'शुभ' और 'कामनाएँ' अलग-दिख रहे हैं। इस तरह एक ही शब्द में अनेक प्रकार की अशुद्धियों के प्रयोग हैं। पहली बात, शुद्ध शब्द 'शुभकामना'/ 'शुभ-कामना' है, न कि 'शुभकामनाएं', 'शुभकामनाएँ'।' 'शुभकामना' एक प्रकार के समास का उदाहरण है, जिसका विग्रह करते हुए, 'शुभ-कामना' लिखा जायेगा, जिसका अर्थ है, 'शुभ/मंगल/कल्याण की कामना'। यहाँ इसका अर्थ 'कल्याण के लिए कामना' नहीं होगा। शुभकामना वा (अथवा) शुभ-कामना 'षष्ठी तत्पुरुष' समास का उदाहरण है और 'सम्बन्धबोधक कारक' का भी। 

     आप उपर्युक्त ('उपरोक्त' शब्द अशुद्ध है; क्योंकि आप इसका अर्थसहित विभाजन नहीं कर सकते, जबकि 'उपरि+उक्त = उपर्युक्त विच्छेद और सन्धि' के रूप मे शुद्ध शब्द 'उपर्युक्त' शब्द का बोध करते हैं।) शब्दप्रयोग/शब्द-प्रयोग/शब्द के प्रयोग मे से  कुछ पल के लिए 'शुभ' शब्द को हटा लें। अब आप कहें-- 'मेरी कामनाएँ/ इच्छाएँ/अभिलाषाएँ हैं'। आपको ये शब्द-प्रयोग अटपटे लगेंगे। एक अन्य शब्द 'प्रार्थना' का एक वाक्य मे प्रयोग करते हुए आप कहें-- 'मेरी 'प्रार्थनाएँ' आप सभी के उत्तम स्वास्थ्य के लिए हैं।' इन्हें देखते ही आप तुरन्त कह देंगे कि ये दोनो ('दोनों' अशुद्ध शब्द है; क्योंकि किसी भी पंचमाक्षर पर 'अनुस्वार' का प्रयोग नहीं होता; प्रत्येक पंचमाक्षर अनुस्वारयुक्त होता है।) ही अशुद्ध शब्दप्रयोग हैं।

जो लोग 'शुभकामनाएँ' और 'शुभ कामनाएँ' का प्रयोग करते हैं, वे 'आशीर्वादें', 'प्रसन्नताएँ', 'वेदनाएँ' आदिक के प्रयोग करने से कतराते क्यों हैं? इस प्रश्न का उत्तर ही 'अशुद्धि का कारण' प्रकट करता है।

    आप यदि 'हार्दिक शुभकामना'/'शुभ-कामना' का सेवन/व्यवहार करते हैं तो आपका यह प्रयोग अशुद्ध माना जायेगा; क्योंकि 'शुभ की अवधारणा' हृदयगत ही होती है; वह हृदयपक्ष का ही विषय होता है। इसी से मिलता-जुलता एक अन्य उदाहरण है। जैसे ही आप लिखेंगे-- 'सविनय निवेदन है कि......' वैसे ही आपका लेखन अशुद्ध और अनुपयुक्त माना जायेगा; क्योंकि 'निवेदन' शब्द मे ही 'विनयशीलता'/'विनम्रता' निहित है, इसलिए पृथक् से 'सविनय' का प्रयोग सर्वथा अनुचित और अनुपयुक्त है। क्या आप लाठी-डण्डा के साथ निवेदन करते हैं? 

◆ 'आचार्य पण्डित पृथ्वीनाथ पाण्डेय की पाठशाला' नामक प्रकाशनाधीन कृति से साभार गृहीत। (ग्रहण किया गया/लिया गया।)


पहचान

 आदमी न ऊँचा होता है,

आदमी न नीचा होता है,

आदमी न बड़ा होता है,

आदमी न छोटा होता है,

अपनी पहचान से ही,

आदमी आदमी होता है।

वह पथ पर हो या रथ पर 

प्राचीर पर हो या तीर पर,

गुण ही है उसकी पहचान 

इसी से आदमी जीतता है।

ईर्ष्या,द्वेष,विश्वासघात,

ये सब हैं मन की मलिनता,

इससे पहचान नहीं बनती,

टूटे सपनों को गढ़ने वाला,

परिस्थितियों से जूझने वाला,

अभिमान को त्यागने वाला,

व्यक्ति पहचान बनाता है,

 पहचान कर्मों से होती है,

 कुबेर की संपदा से नहीं,

पहचान तो मन से होती है।


मनोरमा शर्मा ' मनु '

हैदराबाद 

तेलंगाना

दीपावली को दिवाली न कहना।

 दीपावली का सन्देश 


दीपावली को दिवाली   न  कहना।

 है जो रीति अपनी उसे कम न करना।

सोचों जरा हम कहाँ जा रहे हैं,  

तो मुर्दे के जैसे बहे जा रहे हैं।

 जो है अपनी थाती उसे खो रहे हैं,

नयी रोज विकृति को घर ला रहे हैं।

 जो भी है अपना उसे मत बिसरना,

है जो रीति अपनी उसे कम न करना ll

दीपावली को दिवाली न कहना,  

है जो रीति अपनी उसे कम न करना ||

 

हरिश्चंद्र दुबे

(संस्कृति-विभाग, उत्तर प्रदेश ) प्रयागराज_**

वक्त सीखा रहा है

 

एक सुकून है जो मुझे तबाह कर रहा है
तू मुझे कितनों से बेवफा कर रहा है।

कर रहा हूं मैं मुहब्बत हर पल जिससे
वो मुझसे कतरा कतरा छल कर रहा है।

कभी मैंने पाने की कोशिश न की तुझे
क्यों  दूर हो जाने के जतन कर रहा है।

मुझसे ज्यादा प्यार वो करते है मुझे
दूर हो कर क्यूं मेरी फिकर कर रहा है।

इश्क में रुलाया जिन्होंने हमें , मुहब्बत मुझे
उन्हीं से फिर करने को जी चाह रहा है ।

रहता हूं जब प्यार में बिना यार के साथ मैं
प्यार के साथ रहना प्यार से वक्त सीखा रहा है।

 

गरिमा खंडेलवाल

(शिक्षिका, लेखिका )

उदयपुर राजस्थान 

भाई दूज में बहना दौड़ी-दौड़ी आई

कितना प्यारा त्योहार आया 

सारी  खुशियाँ  साथ  लाया 

भाई-बहना का पावन नाता 

सबके मन को  है यह भाता..l l


भाई-बहन का प्यार निराला 

अक्षत  रोली थाल  सजाकर 

बहनें आती  खुशियाँ  लेकर

खुश  होती भाई से मिलकर..l l


बहनें  आती   दौड़  लगाकर 

माथे तिलक  लगा भाई  को 

सारे  संकट   वह   हर  लेती 

अला -  बला भी दूर भगाती..। ।


बहनें   दौड़ी  -  दौड़ी   आती 

खुशियों से  हैं घर भर  जाती

आजीवन  हैं  साथ  निभाती 

मंगल  गान  सदा   ही  गाती..।। 


जब  भी  बहनें  हैं घर  आती 

घर भर  में  रौनक  छा जाती 

सब  मायूसी  दूर   हो   जाती

सुख - समृद्धि हैं  वो दे  जाती..।। 


बहनें    दौड़ी  -  दौड़ी   आती 

भाई   दूज   त्योहार    मनाती ..।। 




डॉ. राजेश कुमार जैन 

श्रीनगर गढ़वाल 

उत्तराखंड

हाँ! यही तो दिवाली है।।

 ।। दिवाली की हार्दिक शुभकामनाएँ ।।

हाँ! यही तो दिवाली है


हमारे अपने पास हो।

मन विधाता का दास हो

नयन में सबके आस हो

हाँ! यही तो दिवाली है।।


हो दुख दर्द से सब परे 

काम मिलजुल सब करें 

बिन इक दूजे ना सरे 


मुश्किल चाहे राहें हो 

दुख के बादल छायें हो 

पर हम ना घबराए हो 

हाँ! यही तो दिवाली है।। 


भाई बहन ना दूर हो 

नहीं कोई मजबूर हो 

सदा खुशियां भरपूर हो 

हाँ! यही तो दिवाली है 


सुंदर सी रंगोली हो 

माथे सबके रोली हो 

बँधी हर हाथ मौली हो 

हाँ! यही तो दिवाली है।। 


संध्या समय सब साथ हो 

फुलझड़ी सबके हाथ हो 

रोशनी सबके गात हो 

हाँ! यही तो दिवाली है।। 


ना मन कोई विकार हो 

सपने  सभी साकार हो 

ना किसी का तिरस्कार हो 

हाँ! यही तो दिवाली है।। 


सभी के मन विश्वास हो

हाथों में सदा हाथ हो

ना शिकन कोई माथ हो 

हाँ! यही तो दिवाली है।।


अनीता गंगाधर

अजमेर राजस्थान

मन रोशन तो रोज़ दिवाली

बुझे हुए पथ पर,फिर से ज्योत जलाने को,

प्रस्तुत किरणें कहती,तमस दूर भगाने को।

कालिमा छँट जाए मन से,धुँध पोंछ लेने को,

फिर देखो ,मन रोशन तो रोज़ दिवाली। 


जग के तम मिटा,चाँदनी रात ने की अगुआई,

तारों की बरसात हो,तो जगमग आकाश हो। 

मोम की तरह पिघलता जाए,तिमिर भरी रात,

तब मन रोशन तो रोज़ दिवाली। 


अहंकार घमंड से दूर हट,जरूरतमंदों को,

गले लगाना है,

दान पुण्य करें उनको,गुलशन उनका भी महकाएँ। 

रामराज्य नहीं बना,सकल विहान हो अवनी पर,

तब मन रोशन तो रोज़ दिवाली। 


मन जब अमावस रात की तरह काली दिखती, तम मन से मिटा नहीं,रीता-रीता हो हर कोना। 

वैरागी मन भटकता है,आकांक्षाएँ रोती रहती ,

ईश्वर ने जो दिया सौग़ात,ख़ुशियाँ उसी में मना जीना। 


द्रवित मन रोता रहता,चैन को खोता रहता, 

तब दीनन को गले लगाएँ,सुकून उर में भरें। 

दिया ईश का सौग़ात,ग्रहण करते रहना है,

तब ,मन रोशन तो रोज़ दिवाली। 


विभा वर्मा वाची 

USA

मन रौशन तो रोज दिवाली

 हो यदि खुशी उमंगे मन में, 

मन रौशन तो रोज दिवाली।

अगर भरे हों हृदय अवसाद, 

मानव मन हो सदा सवाली।।


रहें प्रेम से हिलमिल जग में,

रहे भाव हर जग मानवता।

द्वेष भाव नहीं रहे मन में,

अब छोड़ सभी ये दानवता।।


जग उनको चैन कभी न मिले,

अगर हृदय हो ये जंजाली।

मन जिनका हो दया भरा ये,

मन रौशन तो रोज दिवाली।।


नेक काम हो सबके जग में,

बने सदा इस जग में प्यारा।

अलग करें कुछ नया सदा हम,

हो अंदाज सभी से न्यारा।।


जिनके मन में कपट भरा है

रात अमावस जैसे काली।

मन हो अगर साफ ये जिनका,

मन रौशन तो रोज दिवाली।।


घृणा एकता में बाधक है,

सदा सभी नफरत को छोड़ो।

सबको गले लगाओ अपने,

जीवन ये अपना ये मोडो।।


परहित जीवन करें नहीं तो,

जीवन होता सदा मवाली।

मन चंगा तो गंग कठौती,

मन रौशन तो रोज दिवाली।।


मदद करो हर दीन दुखी की,

जीवन में हो हर खुशहाली।

फसल उगाओ सदा प्रेम की,

हो सके चहुंओर हरियाली।


बुरे काम का बुरा नतीजा,

करें काम जो मानव जाली।

सच्चे मन से काम करें यदि,

मन रौशन तो रोज दिवाली।।


स्वरचित

डॉ एन एल शर्मा निर्भय जयपुर राजस्थान

🌹 मन रोशन तो रोज दिवाली 🌹


माता-पिता का सानिध्य हो

   तन मन  भी व्याधि मुक्त हो

      धन धान्य की कोई कमी न हो

          जब जीवन में खुशियां बरसती है

              और  चेहरे पर आभा बिखरती है

                  ऐसे में जब मन हो रोशन तो जानो

                      के जीवन में हर रोज दिवाली होती है ।


जब मौज हो मन में बहारों की

   गगन में हो  चमक सितारों की

     चहुं ओर खुशियां बिखर रही हो

        तन्हाई में भी मेले सी मस्ती हो

           जब आभा आनंद की फैलती है

              ऐसे में जब मन हो रोशन तो जानो

                  के जीवन में हर रोज दिवाली होती है ।


जब दीपक प्रेम के जलते हैं

  जब सपने सच में बदलते हैं

     जब मन में भाव की मधुरता हो

        जब चाहत की फसलें लहराती हैं

            जब आभा उत्साह की फैलती है

                ऐसे में जब मन हो रोशन तो जानो

                    के जीवन में हर रोज दिवाली होती है ।



जब कोई प्रेम से अपने बुलाते हैं

   जब दुश्मन को भी गले लगाते हैं

      जब कोई वैर भाव ना हो किसी से

         जब प्रेम की बंसी सब ओर बजती है

              तब अपनत्व  की आभा झलकती है

                  ऐसे में जब मन हो रोशन तो जानो

                      के जीवन में हर रोज दिवाली होती है ।



जब जीवन अपना सज जाता है

   पराया भी जब अपना हो जाता है

      जब होठों पर मुस्कान बिखरती है

         जब खुशियों की खुशबू महकती है

            और तृप्ति की आभा छलकती है

                 ऐसे में जब मन हो रोशन तो जानो

                      के जीवन में हर रोज दिवाली होती है ।



 पुरुषोत्तम शाकद्वीपी, उदयपुर, राजस्थान

आओ मिलकर दीप जलाएं

 आओ मिलकर दीप जलाएं।

मन का हर कोना महकाएं।

मंद मधुर मुस्कान अधर हो।

यही  समृद्धि सौहार्द लुटाएं।


कोई व्यथित न रहने पाए, आशाएं सबकी भर जाएं।

नदी,वृक्ष, पर्वत,सागर सब निज स्वरूप में ही लहराएं।


आओ मिलकर दीप जलाएं -----


जीवन का  आनंद यही हो।

स्वार्थरहित परमार्थ सुखी हों।

जीवन दीपोत्सव बन जाए,

कहीं उदासी तमस नहीं हो।


आओ मिलकर दीप जलाएं ------


प्रकृति का सामीप्य निरंतर

सूर्य- चंद्र जीवन अभ्यंतर।

निजता से ऊपर उठकर हम

अलख प्रीत की सदा जलाएं।


आओ मिलकर दीप जलाएं -----


कहीं वृद्ध अपमान नहीं हो।

कन्या का सम्मान सही हो।

हो अनाथ ना शिशु का जीवन

ऐसा प्रेम अमर छलकाएं।


आओ मिलकर दीप जलाएं -----


डा. (प्रो.)शुभदा पांडेय

हिन्दी विभागाध्यक्ष, मेवाड़ विश्वविद्यालय,चित्तौड़गढ़, राजस्थान !


दिवाली के दीप

दिवाली  के  दीप जले

फूलों की खुशबू महके

मेरे भारत देश में, हमारे भारत देश में


मिटे  अंधेरें  नफरत के

फुलझड़ी प्यार की छूटे

मेरे भारत देश में, हमारे भारत देश में


कभी  किसी  से  बैर  न  हो

सब अपने हो कोई गैर नहीं हो

मेरे भारत देश में, हमारे भारत देश में


घर घर में धन धान्य भरी हो

ईश्वर कृपा बरसायें 

मेरे भारत देश में, हमारे भारत देश में


डा.महताब अहमद आज़ाद

उत्तरप्रदेश

ऐसी दीपावली मनाई

घर की कीनी साफ़ सफाई, 

रंग रोगन और पुताई|

सबको दीनी कोटि बधाई, 

ऐसी दीपावली मनाई|

🎉🎉🌲🌲

द्वारे वंदन बार निराले, 

खूब सजाए महल दुमहले|

आंगन द्वार अल्पना बनाए, 

दीपशिखा के अज़ब नजारे|

मधुर सरस पकवान बनाये, 

खील बतासे और मिठाई|

किया देव गुणगान सभी ने, 

ऐसी दीपावली मनाई||1||

🌷🌷☘️☘️

दीन दुखी यतीमों की भी, 

भरपूर मदद हमने कीनी|

खाना पीना वस्त्र दान कर, 

खुशियाँ जीवन में भर दीनी|

फुटपाथी राहगीरों को भी, 

सबने बांटी खूब मिठाई|

खिले चेहरे मासूमों के, 

ऐसी दीपावली मनाई||2||

🩸🩸🌴🌴

पंच दिवस के महापर्व पर, 

बिकते वाहन सुंदर गहने|

चकरी, अनार, फूलझडी औ, 

आतिशबाजी के क्या कहने|

साथ बिठाकर वटवृक्षों को, 

सब परिवारीजन हर्षाई|

रुच रुच करके खाना खिलाया, 

ऐसी दीपावली मनाई||3||

🌻🌻🌴🌴

स्वस्थ रहें और मस्त रहें, 

परिवेश को स्वच्छ रखेंगे|

प्रकाशित होंगे अंबर अवनी, 

झिलमिल झिलमिल दीप जलेगें|

इक दूजे को गले लगाकर, 

प्रेम की ज्योति अखंड जलाई|

जीयें औ जीने दें सबको, 

ऐसी दीपावली मनाई||4||

🌺🌺🌲🌲

श्याम लाल सैनी

नगर भरतपुर राजस्थान

🌹🌹☘️☘️

दिवाली की सफाई

 🙏नमन पटल🙏

रूप चौदस और छोटी दीपावली की सभी को हार्दिक शुभकामनाएं🙏

* सुप्रभात मित्रों *


अब के दिवाली की सफाई कुछ ऐसे कीजिए

अपने घर के साथ - साथ मन को भी साफ कीजिए।


अलमारियों की तरह ही रिश्तों की गर्द झाड़ दो

एक बार पुनः सहेज कर, सँवार कर ,निखार दो।

जो बिखरे पड़े हैं वर्षों से आज समेट लीजिए

अपने घर के साथ - साथ मन को भी साफ कीजिए।


बेतरतीब सामान के जैसे ही कुछ लोग हो गए हैं

कुछ भूल गए हैं हमको, कुछ खफ़ा हो गए हैं।

कर के कुछ समझौते उन्हें भी मना लीजिए

अपने घर के साथ - साथ मन को भी साफ कीजिए।


ऊपर से नीचे तक, अंदर से बाहर तक, धुलाई हो जाए

जितना भी मन में मैल है सब की सफाई हो जाए।

दीपों की तरह ही जीवन को जगमगा लीजिए

अपने घर के साथ - साथ मन को भी साफ कीजिए।

                              

                         रचना :- ललिता मिश्रा.

ऐसे दीपावली मनाना

दीपक एक विश्वास है

प्रेम का आभास है

स्नेह से ये जलता दीप

स्नेह का आगाज़ है

 स्नेह का दीपक जलाना

ऐसे दीपावली मनाना 

⚛️⚛️⚛️⚛️⚛️⚛️

दीपक धरती का उल्लास है

आकाश का उत्साह है

जग को दमकाने वाला

तम का ये नाश है

उत्साह से दीपक जलाना

ऐसे दीपावली मनाना

🕉️🕉️🕉️🕉️🕉️🕉️

दीपक तन मन को हर्षाता है

जन जन को भाता है

इसकी जगमग लौ के साथ

सहृदय मुस्काता है

मुस्करा कर दीपक जलाना

ऐसे दीपावली मनाना

🔯🔯🔯🔯🔯🔯

एक एक जन के मन में

सद्भाव दीप जलाना

आस्था ज्योति प्रज्ज्वलित

जहां रोशन कर जाना

देहरी का दीप बन जाना

ऐसे दीपावली मनाना


श्रीमती संध्या श्रीवास्तव छतरपुर मध्यप्रदेश

दीवाली हम मनाएंगे !

दीवाली हम मनाएंगे,

चिराग मिट्टी के नहीं,

आशाओं के जलाएंगे,

दीवाली हम मनाएंगे।।


अंधकार मिटा रवि से,

तमस औ' अज्ञानता का,

निज ज्ञान से मिटायेंगे,

दीवाली हम मनाएंगे।।


क्यों जलाएं फुलझड़ियाँ,

अन्याय छल और द्वेष की,

दुर्भावनाओं को मिटाकर,

दीवाली हम मनाएंगे।।

 - अरुण कुमार पाठक    

                  ‌'हरिद्वार'

एक दीप जलाएँ उनके नाम

 देश की रक्षा के रक्षक महान हमारे जवान

भूलें परिवार को ,झेलें बर्फीले आँधी तूफ़ान 

दुश्मन का करते सामना, दिनरात सीना तान

दिवाली पर मिल ,एक दीप जलाएँ उनके नाम 


सीमा पर डटे हमारे जवान हम सोते चादर तान 

सिर पर बाँध कफ़न,दुश्मन का करते काम तमाम

भारत माँ और ध्वज तिरंगे पर उनको अभिमान

दिवाली पर मिल ,एक दीप जलाएँ उनके नाम 


सीमा प्रहरी ,भारत माँ के माथे का सुवासित चन्दन

अक्षत संग रोली  ले हम करें उनका अभिनंदन, उनका भव्य स्वागत,उनको शतशत नमन और वन्दन

दिवाली पर मिल ,एक दीप जलाएँ उनके नाम 


देश का गौरव देश की आन बान और शान  

लहर लहर लहराता ध्वज तिरंगा बिखेरता मुस्कान

देख साहस अपने वीर बाँकुरों का करता सम्मान 

दिवाली पर मिल ,एक दीप जलाएँ उनके नाम 


नीलू गुप्ता कैलिफ़ोर्निया

जो चाहो उजियार ...

© डा.रामशंकर भारती

             

             प्रकाश की चाहत तो हम सभी को है ...........

 रोशनी के झरनों में सभी अलमस्त हो अठखेलियाँ करना चाहते हैं......

 सभी को अपने - अपने घरों को जगमग करने के लिए भरपूर ज्योति चाहिए....लक्ष्मीजी को जो साधना है न !

 मगर कोई दीये की कंदील नहीं बनना चाहता ....

और न ही कोई उजालों का संवाहक बनकर अँधियारों को धकियाना ...ध्वस्त करना चाहता है....

तम - तिमिर -तोर की सत्ता से सभी डरते हैं.......

और बिना संघर्ष किए ही इस घटाटोप अँधकार के आतंक से मुक्ति भी प्राप्त करना चाहते हैं....

 जबकि हम सभी भलीभाँति जानते हैं कि बिना उपक्रम किए , बिना परिश्रम किए सफलता मिलना संभव ही नहीं है .....

हमें यदि रोशनी चाहिए अँधेरों से तो लड़ना ही होगा...

हमारा घर रोशनी से भी तभी जगमग होगा जब हम सृजनधर्मी बनेंगे। अपने पुरुषार्थ के दीये जलाएँगे......

 बाह्य चमक - दमक तो हम येन केन प्रकारेण प्राप्त भी सकते हैं .....

 किंतु अपने भीतर की कोठरी में मन की गहरी देहरी पर उजास भरने के लिए हमें सद् कर्मों के दीये जलाने ही होंगे...

 अपनी विकृतियों -विसंगतियों - वर्जनाओ को छारछार करना होगा ...

 तब कहीं हमारे अंतर्मन की भीतरी कोठरी में अजस्र उजास भरेगा ...

 यह भीतर का उजाला ही हमारे जीवन पथ को आलोकित करता है ...

संस्कारित करता है पल्लवित - पुष्पित करता है. सुगंधगंधी बनाता है... 

मानवधर्मी राष्ट्रीय जीवनमूल्यों से जोड़ता है...

सामाजिक सरोकारों से संपृक्त करता है....

.......पर्व - उत्सव हमारी संस्कृति के संवाहक हैं .......

उत्सवधर्मिता समाज का स्वभाविक लक्षण होता है......

जिसका धर्म केवल और केवल लोकमंगल है...........

लोकमंगल अर्थात् समाज के अंतिम कतार के अंतिम पायदान पर खड़े अंतिम मनुष्य की यथेष्ट चिंता करना .....

यही है 'सर्वेभवन्तु सुखिनः' का निहितार्थ....

यही है हमारे उत्सवों का अभीष्ट ....

............   दीपावली का दीपोत्सव तिमिर पर आलोक की विजय का अखण्ड शंखनाद है ......

 प्रकाश का तुमुलनाद है....

  धरती पर गहराए असत्य के ग्रहण को सत्य के उजास से पराजित करने का महापर्व है .....

 जब सत्य आता है तो असीम उजाला फैला जाता है....

 इस असीम उजास से जग जगरमगर हो उठता है....

.... माटी के दीये का उजास हमें सात्विकताओं से जोड़कर पूरी कायनात को बदलने की हिम्मत दे जाता है...

माटी से हमारा दैहिक ही नहीं आत्मिक संबंध भी है :... 

माटी ही हमें पालती-पोसती है .सबल और धवल बनाती है.

माटी का तन..माटी का मन ..माटी का क्षणभंगुर जीवन ....

माटी की सौंधी सुगंध से ही तो हम सुवासित हैं ....

हमारी सौंदर्यबोधी ललित कलाएँ माटी में से ही पनपकर समृद्धशालिनी होतीं हैं... ...

रूपवती होतीं हैं ....

रूपवती होतीं है....विश्वमोहिनी होतीं हैं.... 

      मुझे माटी के चितेरों के मटियामेट होने की चिंताएँ खाए जा रही हैं....  जब जल, जमीन , जंगल न होंगे तो कैसे मनुष्य बचेगा और कैसे कुंभकार बचेंगे....? 

  माटी के दीये कैसे बनाएंगे ....? 

 कैसे लक्ष्मीजी...गणेशजी की मूर्तियाँ बनेंगी...?

 कैसे दीपावली की ग्वालिन सजेगी ...? 

 दीप अवलि....दीपावली शब्द का संसार कैसे सार्थक होगा? दीयों की पंक्तियों कैसे बनेंगी...?

अब गांवों में , शहरों और कस्बों में कहीं भी जमीन नहीं बची है। 

  जहाँ से माटी के चितेरे मिट्टी लाकर अपने हुनर दिखा सकें...

 बाजार चमक - दमक वाली बिजली की झालरों से पटे पड़े हैं...

  स्वदेशी का नारा देनेवाले भी पेरिस ऑफ प्लास्टर की मूर्तियों से घर सजा रहे हैं....

 विदेशी साजोसामान की पौबारह है ... धूमधड़ाके हैं........

  .

       बेचारा गुंधारी  माटी के दीयों का ढेर लगाए चौराहे पर भिनसारे से उदास बैठा है.... 

काश! कोई आए और उनके यह कीमती दीये आधे - पौने दाम में ही खरीद ले जाए .......

अपार श्रम लगता है माटी खोदने में , माटी गोड़ने में , माटी को समसार करके विभिन्न बर्तनों व दीयों को आकार-प्रकार देने में...

तब कहीं कोई दीया आकार लेता है... 

जिसका कोई विकल्प नहीं हो सकता.... 

न बल्व न झालरें ...

देसी उद्योग - धंधे तभी बचेंगे जब हम भौतिकता की चकाचौंध को छोड़कर गाँव की हस्तशिल्प - हस्त कलाओं से बनी हुई सामग्री का भरपूर उपयोग करेंगे .....

       आज गाँवों और छोटे कस्बों के शिल्पकार अब अपने पुश्तैनी धंधों के बजाय बड़े शहरों में मजबूरी में मजदूरी कर रहे हैं और जो गाँव में बचे हैं वे भुखमरी के शिकार हैं। देश के मशीनीकरण ने छोटे - छोटे कामगारों के सामने मुसीबतें खड़ी कर दीं हैं। गाँव में ही बरगद व छौकरों के पत्तों से बनने वाले पत्तलें - दौने तथा माटी के डबला , डब्बू आदि दैनिक उपयोगी सामान के स्थान अब फाइबर के गिलाश , कटोरी , प्लेट , दौने , पत्तल आदि का प्रचलन हो गया है। माटी के बर्तनों से परहेज करना लोगों की आदतों में शुमार हो गया है। 

         कुल मिलाकर "माटी का मानुष " अपनी ही माटी से दूर होता जा रहा है। माँगलिक अवसरों पर मिट्टी व गोबर से लीपने - पोतने की परंपराएँ , आटे व गेरू से चौक पूरना , उरैन डारना आदि गृहकलाएँ अब आधुनिकता की भेंट चढ़ चुकीं हैं.... 

         लोकोत्सवों में गाए जानेवाले गीतों के स्थान पर .......

....."डीजे वाले बाबू जरा गाना बजा दे".....की  धूम है...।

        मैं यहाँ प्रगतिशीलता के विरोध में कुछ नहीं लिख रहा हूँ। प्रगतिवादी , प्रगतिगामी होने में कोई बुराई नहीं है... वशर्ते हम प्रगतिवादी होने के साथ ही प्रकृतिवादी भी बने रहें। जल -जमीन -जंगल से जुड़े रहें। नदी , तालाब , कुआँ पोखर , वट , पीपल , आम , नीम , बबूल , महुआ , आँवला आदि वन संपदाओं की चिंता करते रहें। स्वास्थ्य , शिक्षा , संस्कार , पर्यावरण के संवर्द्धन के लिए कुछ समय दें। स्वावलंबन , सामाजिक सरोकार और राष्ट्रीय जीवनमूल्यों से ओतप्रोत संस्कारों के प्रकल्पों को आधार देते हुए समाज के अभावग्रस्त लोगों , दिव्यांगों , वंचितों व मातृशक्ति का सम्मान करते हुए अपने संवैधानिक दायित्वों के प्रति यदि हम समर्पित होंगे....

 तो निश्चित ही अनिष्टकारी अँधेरा भागेगा। सुख का सूरज चमकेगा। उजास फैलेगा...बाहर भी और भीतर भी.....

  मेरी दृष्टि में तो...

  यही है महालक्ष्मी - गणेशजी की साधना

  यही है रामराज्य की अवधारणा ...

  यही है भगवान बुद्ध की विपश्यना.....

  यही है दीपावली की संकल्पना ....

 और..... यही है राष्ट्राधना......

तुषारापात

उम्मीदें मर जाना,

अरमानों का सड़ जाना।

हाल बुरा होता हैं किसान का,

अनचाहा तुषारापात हो जाना।।


कितनी मेहनत मशक्कत के बाद खेत में बीज बोता है,

कुछ मिल जाएगा फ़सल अच्छी हो जाए तो,

घर में नए कपड़े आएंगे,

इस कारण वो अबकी बार फटी कमीज़ धोता है,

नूतन वस्त्रों से दूर जाना,

त्योहारों उत्सवों से दूर हो जाना।

हाल बुरा होता हैं किसान का,

ज़मीन पर अनचाहा तुषारापात हो जाना।।


धरती पर समय पर पानी का बरस जाना ही ठीक है,

किसी आदमी का उसकी मेहनत का फल मिल जाना ही ठीक है,

सब कुछ न्योछावर करके वो फ़सल उगाता है,

सारी उमर की कमाई पाला पड़ने से गँवाता है,

जीवन से हार जाता है,

सारा किया हुआ धरा रह जाना,

हाल बुरा होता हैं किसान का,

ज़मीन पर अनचाहा तुषारापात हो जाना।।


ममतांश अजीत

बहरोड़ अलवर राजस्थान

Ig mamtansh_ajit

दीपावली पर्व वीतराग का या वित्तराग का ?


प्रो.अनेकान्त कुमार जैन,नई दिल्ली


दीपावली पर्व वीतराग का या वित्तराग का ?


प्रो.अनेकान्त कुमार जैन,नई दिल्ली


पर्वों के देश भारत में दीपावली ऐसा पवित्र पर्व है जिसका सम्बन्ध भारतीय संस्कृति की लगभग सभी परम्पराओं से है |

भारतीय संस्कृति के प्राचीन जैन धर्म में इस पर्व को मनाने के अपने मौलिक कारण हैं |

ईसा से लगभग ५२७  वर्ष पूर्व कार्तिक मास कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि के समापन के समय प्रत्यूष बेला में स्वाति नक्षत्र के रहते जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर का वर्तमान में बिहार प्रान्त में स्थित पावापुरी से निर्वाण हुआ था। 

तिलोयपण्णत्ति में आचार्य यतिवृषभ(प्रथम शती)लिखते हैं –

कत्तिय-किण्हे चोद्दसि,पज्जूसे सादि-णाम-णक्खत्ते ।

पावाए णयरीए,एक्को वीरेसरो सिद्धो ।।  ( गाथा १/१२१९ )

अर्थात्  वीर जिनेश्वर कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी के प्रत्यूषकाल में स्वाति नामक नक्षत्र के रहते पावानगरी से अकेले हील सिद्ध हुए। 


पूज्यपाद स्वामी (छठी शती )निर्वाण भक्ति की आंचलिका में लिखते हैं-


अवसप्पिणीए चउत्थ समयस्स पच्छिमे भाए,अट्ठमासहीणे वासचउक्कमि सेसकालम्मि 

पावाए णयरीए कत्तिए मसस्स किण्हचउदसिए रत्तिए सादीए णक्खते,पच्चूसे भगवदो महदि महावीरो वड्ढमाणो सिद्धिं गदो ।


भारत की जनता  ने  प्रातः काल जिनेन्द्र भगवान की पूजा कर निर्वाण लाडू (नैवेद्य) चढा कर पावन दिवस को उत्साह पूर्वक मनाया । यह उत्सव आज भी अत्यंत आध्यात्मिकता के साथ देश विदेश में मनाया जाता है |


इसी दिन रात्रि को शुभ-बेला में भगवान महावीर के प्रमुख प्रथम शिष्य गणधर गौतम स्वामी को केवल ज्ञान रुपी  लक्ष्मी की प्राप्ति हुई  | मूल रूप से ब्राह्मण कुल में जन्में इंद्रभूति गौतम गणधर भगवान ही महावीर के मुख्य ग्यारह गणधरों में सबसे प्रथम स्थान पर थे | जब महावीर भगवान को केवल ज्ञान प्राप्त हुआ था तो उनके प्रवचन कई महीनों तक प्रारम्भ नहीं हुए |पता चला कि भगवान की वाणी को समझ कर सबको समझा सके ऐसा एक भी पात्र शिष्य उनकी सभा में नहीं है |इंद्रभूति गौतम वैदिक विद्वान थे वे जब अपने पांच सौ शिष्यों के साथ भगवान की सभा में पधारे तभी महावीर भगवान ने प्रवचन प्रारंभ किया | इंद्रभूति गौतम दीक्षित हो गए और उन्होंने सभी जीवों को महावीर के उपदेशों का मर्म समझाया | इंद्रभूति गौतम स्वामी का उपकार मानकर आज भी उनकी पूजा अर्चना जैन मंदिरों में और घर घर में होती है |

 दिवाली के दिन ही रात्रि में इन इंद्रभूति गौतम स्वामी को भी केवलज्ञान की प्राप्ति हो गयी | जिसके उल्लास में ज्ञान के प्रतीक के रूप में  निर्मल प्रकाश से समस्त लोक को प्रकाशित करती हुई ज्ञान की प्रतीक दीप मालिकायें प्रज्वलित कर भव्य-दिव्य-उत्सव दीपावली के रूप में मनाया जाता है ।

आचार्य जिनसेन स्वामी(9 वीं शती) लिखते हैं - 

ततस्तु लोक: प्रतिवर्षमादरात्, प्रसिद्धदीपालिकयात्र भारते ।

समुद्यत: पूजयितुं जिनेश्वरं, जिनेन्द्रनिर्वाणविभूतिभक्तिभाक् ।।


 समय से लेकर भगवान के निर्वाण कल्याणक की भक्ति से युक्त संसार के प्राणी इस भरतक्षेत्र में प्रतिवर्ष आदरपूर्वक प्रसिद्ध [दीपमालिका] के द्वारा भगवान महावीर की पूजा करने के लिए उद्यत रहने लगे अर्थात् भगवान् के निर्वाणकल्याणक की स्मृति में दीपावली पर्व मनाने लगे।


          इसी दिन से कार्तिक शुक्ल एकम् से नवीन संवत्सर का शुभारम्भ हो कर यह श्री वीर निर्वाण संवत् के नाम से प्रचलित भी  हुआ।


कत्तिसुल्लपडिवदाए देविहिं गोयमस्स कया पूया ।

णूयणवरसारंभो वीरणिव्वाणसंवच्छरो  ।।


अगले दिन कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को देवों ने भगवान् गौतम की पूजा की और इसी दिन से वीर निर्वाण संवत और नए वर्ष का प्रारंभ हुआ ।


विश्व में ज्ञात, प्रचलित- अप्रचलित लगभग सभी संवत्सरों में यह सर्वाधिक प्राचीन माना जाता  है।पुरातत्ववेत्ता बड़ली के शिलालेख का अध्ययन कर यह बात 1912 में सिद्ध कर चुके हैं ।


भारतीय संस्कृति के आस्थावान अनुयायी इस देन व्यावसायिक संस्थानों में हिसाब बहियों का शुभ मुहुर्त करते  हैं, भारतीय परंपरा में इसी दिन से नवीन लेखा-वर्ष का परम्परानुसार शुभारम्भ माना जाता है।


सरकार ने वर्ष 1989 में एक विधेयक पारित कर लेखा वर्ष की गणना ईसवी सन की 1 अप्रैल से प्रारम्भ कर 31 मार्च तक की जाने की अनिवार्यता लागू कर हमारी धार्मिक , सांस्कृतिक तथा सामाजिक मान्याओं से परे अपनाने को सभी को बाध्य एवं विवश कर दिया है। यद्यपि शासकीय नियम के परिवर्तन को इतने  वर्ष हो चुके हैं किंतु अब भी अधिकांश जन लेखा बहियाँ दीपावली के दिन ही खरीद कर लाते हैं। दीपावली के मंगल दिवस पर विधि-विधान अनुसार श्री महावीर स्वामी, गणधर गौतम की पूजा एवं अन्य मांगलिक क्रियायें सम्पन्न कर शुभ बेला में स्वस्तिक मांड कर रख देते हैं, तथा इन्हें लगभग पाँच माह उपरांत 1 अप्रैल से प्रारंभ करते है।


                             धनतेरस को जैन मान्यता में धन्य तेरस या ध्यान तेरस भी कहते हैं । भगवान महावीर को तेरस के दिन पूर्ण ध्यान  की प्राप्ति हुई थी तब लोगो ने उस तिथि को ‘धन्य’ माना और कहा – ‘धन्य है वो तेरस जिस दिन भगवान को अंतिम शुक्ल ध्यान प्राप्त हुआ’। तभी से यह दिन धन्य या ध्यान तेरस के नाम से प्रसिद्ध हुआ।


हमने इस पर्व को धन से जोड़ दिया है । ध्यान का दिन धन्य तेरस भी धन तेरस बन गया है । धन की प्रभुता के शिकंजे में फ़ँसे हमारे लिए ज्ञानलक्ष्मी और मोक्षलक्ष्मी का यह पर्व भी धन की देवी समझे जानी वाली लक्ष्मी पूजा का पर्व बन गया है । वीतरागी पर्व वित्तराग का संदेशवाहक बन गया है । अब हमें धन चाहिए श्वेत हो या श्याम, स्वच्छ हो अस्वच्छ, इस धारणा ने धर्म और जीवन को खण्ड – खण्ड कर दिया है । इस तृष्णा की आँधी में सभी लिप्त है । हमने अपने जीवन में धर्म और ध्यान का प्रकाश नहीं  बल्कि धन का अन्धकार भर लिया है । मृण्मय दीपों और विद्युत लाइटों के इस संसार में इस दुर्लभ नर तन रत्नदीप की गुणवत्ता और महत्ता को विस्मृत कर दिया गया है । यह पर्व हमारे चिन्तन का पर्व है ,नर जन्म दुर्लभ मनुष्य पर्याय को सार्थक करने का पर्व है ।


 अगले दिवस चतुर्दशी को भगवान महावीर ने शीलों की पूर्णता को प्राप्त किया। वे रत्नत्रय की पूर्णता को प्राप्त कर अयोगी अवस्था से निज स्वरूप में लीन हुए । अतः इस पर्व को “रूप-चौदस” के रूप में मनाते हैं । वास्तव में यह दिन ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए व्रतादि धारण कर आत्म स्वभाव में आने का प्रयास करना चाहिये।


भगवान की दिव्यध्वनि सप्त भंग रूपों में खिरी थी इसलिये जैन परंपरा में  यह दिन “गोवर्द्धन” के रूप में मनाया जाता है। “गो” अर्थात जिनवाणी तथा वर्द्धन का अर्थ प्रकटित वर्द्धित। इस दिन तीर्थंकर की देशना के पश्चात पुनः जिनवाणी का प्रकाश हुआ, वृद्धि हुई इसलिये जिनवाणी की पूजा करते हैं ।


भगवान् महावीर के आदर्शों और जैन धर्म की आचार संहिता और दर्शन को समझने का पर्व है । गौतम गणधर के मार्ग पर चलने का पर्व  है, हम प्रकाश करें, अपने घरों को सजायें साथ ही स्वयं भी संयम और सद्‍गुणों का भी कम से कम एक दीप अपने अन्तर में रखें तभी दीप पर्व की सार्थकता है ।


चिरागों के सिलसिले इस कदर डाले हैं

अंधेरा है ज़ेहन में और बाहर उजाले हैं

घर आँगन में खुशियाँ नाचे , आई जगमग शुभ दीवाली


घर आँगन में खुशियाँ नाचें,आई जगमग शुभ दीवाली l

रातें देखो चमक रहीं हैं , होती मावस भी उजियाली  l l


सारे मिलकर दीप जलाते, सबके मन बजती शहनाई  l

सब नर -नारी झूम रहे हैं , बाँटें मिलके सभी मिठाई  l l

सारे बच्चे  चहक रहे हैं , रौनक  उनकी पड़े दिखाई  l

घर आँगन में खुशियाँ नाचें,आई जगमग शुभ दीवाली  l l


दीपों की है छटा निराली, मन में झूम रही खुशहाली  l

लक्ष्मी माता तुम्हें पुकारे,तनमन की हर डाली-डाली  l l

पूजन करते सभी तुम्हारा, माँगें धन-यश फैला झोली l

घर आँगन में खुशियाँ नाचें, आई जगमग शुभ दीवाली  l l


मन - रंगोली सभी  सजाते , औ वंदन वार  लगाते हैं  l

हर घर माँ की  धूम मची है , अब देव पूजने आते हैं  l l

सागर मंथन  हुआ धरा पर,ये पल -पल है गौरवशाली  l

घर आँगन में खुशियाँ नाचें, आई जगमग शुभ दीवाली  l l



डॉ. राजेश कुमार जैन 

श्रीनगर गढ़वाल 

उत्तराखंड

"धनवंतरी , धन तेरस आयुर्वेद ," "प्राचीन स्वास्थ्य दोहावली "

 "धनवंतरी , धन तेरस आयुर्वेद ,"     "प्राचीन स्वास्थ्य दोहावली "      

 "पानी में गुड डालिए , बीत जाए जब रात ,    सुबह छान कर पिजिए , अच्छे हो हालात 🌿

 धनिया की पत्ती मसल , बूंद नैन में डाल , दुखती अखियां ठीक हो, पल लागे 2- 4 🌿  

 ऊर्जा मिली है बहुत , पि ए गुनगुना नीर , कब्ज खत्म हो पेट की, मिट जाए हर पीर🌿  

 पानी पिए घुंट -घुंट कर आप ,  बस दो-तीन गिलास है, हर औषधि का बाप 🌿  

भोजन करें धरती पर, अलथी- पलथी मार , चबा -चबा कर खाइए  वैध न  झांके द्वार 🌿

 प्रात:काल फल रस लो , दोपहर लस्सी छाछ ,  सदा रात में दूध पी,  करें सभी रोग का नाश 🌿 

भोजन करके रात में, घूमे कदम हजार , डॉक्टर ,औझा , वैध का, लूट जाए व्यापार 🌿  

सुबह खाइए कुंवर सा , दोपहर यथा नरेश ,  भोजन लिजै रात में , जैसे  रंक महेश  🌿  

देर रात तक जागना, रोगों का जंजाल,  अपच, आंख के रोग संग , तन भी रहे निढाल 🌿 

70 रोगों को करें , चूना हमसे दूर ,  दूर करें यह बांझ पन, सुस्ती, अपच हुजूर 🌿 

अलसी , तिल,, नारियल , घी, सरसों का तेल ,  यही खाइए नहीं तो ,हार्ट को समझिए फेल🌿 

पहला स्थान सेंधा नमक , पहाड़ी नमक सुजान,  श्वेत नमक है सागरी , यह है जहर समान 🌿 

 एलुमिनियम के पात्र का ,  करता है जो उपयोग, आमंत्रित करता वह सदा , 48  रोग ,🌿 

 फल या मीठा खाई के , तुरंत न  पीजे नीर, यह सब छोटी आंत में ,बनते विषधर तीर 🌿

  चौकर खाने से सदा ,बढ़ती तन की शक्ति, गेंहू  मोटा पीसीए ,  दिल में बढे विरक्ति🌿 

रोज मुलहठी चूसिये, कफ बाहर आ जाए, बने सुरीला कंठ भी , सबको लगत सुहाय 🌿  

 भोजन करके खाइए,,सौंफ, गुड, अजवायन, पत्थर भी पच जाएगा, जाने सकल जहान 🌿 

 लौकी का सत  पिजिए, चौकर युक्त  पिसान,  तुलसी, गुड़ , सेंधा नमक , ह्रदय रोग निदान 🌿 

चैत्र माह में नीम की , पत्ती हर दिन खावे, ज्वर, डेंगू या मलेरिया, बारह कोस  भगा वे 🌿 

 हृदय रोग से आपको , बचना है श्रीमान,, सूरा, चाय, कोल्ड ड्रिंक का ,,मत करें पान 🌿

 अगर नहावे गर्म जल , तन -मन हो कमजोर , नयन ज्योति कमजोर हो  , शक्ति घटे चकोर 

  तुलसी का पत्ता करें,  यदि हम हरदम उपयोग , हल्दी से मिट जाते , हर उम्र में , तन के सारे रोग ,"🌿  

"खुश रहें - स्वस्थ रहें - मस्त रहें" धन्यवाद                            श्रीमती राजकुमारी वी . अग्रवाल    शुजालपुर मंडी (मध्य प्रदेश)

आग से जलकर बेघर परिवार के लिए मददगार बना आस्था क्लब और श्री दिगंबर जैन महिला महासमिति

 आग से जलकर बेघर परिवार के लिए मददगार बना आस्था क्लब और श्री दिगंबर जैन महिला महासमिति




पुष्कर के पास ग्राम चावड़िया के पास जंगल में बसा एक मात्र दिनेश नायक की झोपड़ी में कल लगी आग में परिवार की दो मासूम बच्चियां दीपा एवम पूजा जलकर राख हो गई साथ ही पूरा घर भी जिसकी मदद करवाने हेतु आज पुलिस मित्र टीम पुष्कर के अमित भट्ट एवम ग्राम सरपंच का फोन लायन अतुल पाटनी के पास आया और पीड़ित परिवार के बारे में जानकारी देते हुए बताया कि दो मासूम बच्चे एवम पीड़ित दंपती खुले आसमान के नीचे मातम मना रहे है  जिसे आज लायंस क्लब अजमेर आस्था एवम श्री दिगंबर जैन महासमिति महिला एवम युवा महिला संभाग अजमेर द्वारा त्वरित सहायता स्वरूप अध्यक्ष लायन घेवरचंद नाहर एवम महासमिति की राष्ट्रीय कार्याध्यक्ष मधु पाटनी के नेतृत्व में रोशनी सोगानी,अनिता पाटनी,

भावना बाकलीवाल, के जी ऐरन, समाजसेवी लायन राकेश पालीवाल,डॉक्टर महेंद्र कोठारी,कमल बाफना,अतुल पाटनी आदि के सहयोग से एक माह की राशन सामग्री में आटा,दाले,चावल, तेल,मसाले,चाय,शक्कर,गुड,

रसोई बनाने हेतु सभी प्रकार के बर्तन,सेलो के पचास तरह के आइटम,फल फ्रूट्स,सभी के लिए पांच पांच ड्रेस,गर्म वस्त्र,बैठने हेतु दरी,टेबल,सूट केस,पेटी,घड़ा, टंकी,गद्दे,रजाईया,कम्बल,चद्दरे , दुशाला के अलावा 5000 रुपया की नगद राशि देकर सहयोग किया गया

कार्यक्रम संयोजक अतुल पाटनी ने बताया कि अजमेर से क्लब अध्यक्ष लायन घेवरचंद नाहर,कमल बाफना के ग्राम चावंडिया पहुंचने पर परिवारजन को अन्य ग्रामवासियों के साथ पीड़ित परिवार को सांत्वना दी

मन की अखियां खोल।।

 डर कर दर-दर घूमता, होकर डांवाडोल।

जग का बल तुझ में छुपा, मन की अखियां खोल।।


कौशिक इस संसार में, सच्चा साथी राम।

अंत करण में तार ले, परम पिता का नाम।।


🕉️✍️ जगबीर कौशिक🙏🕉️


दीपावली पर्व


खुशियों के दीप जलाओ घर-घर मौज मनाओ 

दिलों की दिवाली आई प्यार भरे गीत गाओ 


आओ जी आओ आओ सारे घर वाले आओ 

रंगों से रोशन करके दीपों से घर सजाओ 


आस्था विश्वास नेह से चंदन थाल सजा लेना 

धूप दीप पावन आरती सारे मिलकर गा लेना 


सद्भावों की गंगा में प्यार के मोती लुटाना जी 

चेहरों पर रौनक आए जगमग दीप जलाना जी


जगमग दीपों से रोशन दिलों में उमंगे छाई हो 

खुशहाली से भरी दिवाली धरा खूब मुस्काई हो 


भाईचारा सदाचार से खुशियों भरा  माहौल हो 

हिलमिल सबसे गले मिले मधुर सुहाने बोल हो


रमाकांत सोनी सुदर्शन 

नवलगढ़

जिला झुंझुनू राजस्थान

सिलसिला


जिंदगी की श्वांसो का,

अजीब है ये सिलसिला।

कब कहां दे दे दगा,

भरोसा ना कर इनका।।


सुख दुख साथ लिए,

चलना ही पड़ता है।

कोई रहे या ना रहे,

जीना ही पड़ता है।

जीवन पथ का यही,

अजीब सिलसिला।

कब कहा दे दे दगा

भरोसा ना कर इनका।।


जिंदगी की राहों में,

कांटे भी आते हैं।

दामन उलझाए बिन,

राहें बनाते हैं।

फूल और शूल का,

अजब है सिलसिला।

कब कहा दे दे दगा,

भरोसा ना कर इनका।


जिंदगी की श्वासो का,

अजीब है ये सिलसिला।

कब कहा दे दे दगा,

भरोसा ना कर इनका।।


       रश्मि पांडेय, शुभि

             डिंडोरी, मध्यप्रदेश

आस्था के दीप



हर घर में अब दीप जले हैं , चारों ओर उजाला है। 

मुख मंडल पर छाई लाली , सबका वो रखवाला है। 

हर घर में सुख  सम्पति आती,पूजा करते सारे हैं। 

स्वागत करते आज राम का , पूरे जग से न्यारे हैं।


सब कुछ अपना अर्पण करते,उसको अपना माना है। 

पाया जो भी  इस जीवन में , उसका ताना बाना है। 

कष्टों को सब हरते प्रभु तुम , भक्तों से ही नाता है। 

बड़े भाव से आज बुलाते , संग तुम्हारा भाता है। 


अंधकार अब दूर हुवा है , उर को आज सजाया है। 

धोया पोछा है आँगन को , भय को आज भगाया है। 

ज्ञान ध्यान को मैं ना जानूँ , तुमको आज पुकारा है। 

आस्था के दीपक जलाकर,जीवन आज सँवारा है । 


जो भी जग में रोगी कोई , दया सभी पर होती है। 

छोड़ा जिसको सारे जग ने , राम कहे वो मोती है। 

जात पात ना माना प्रभु जी ,सबको गले लगाते हो। 

दीन हीन है कोई जग में ,अपना उसे बनाते हो ।


श्याम मठपाल ,उदयपुर 

मेरे मन को हे प्रभो!

मेरे मन को हे प्रभो! 

          दे दो यह वरदान।

अच्छा सच्चा ये रहे , 

          नहीं बने शैतान।।

नहीं बने शैतान , 

          सदा सद्भाव भरे हों।

हों कल्याणी आह्वान , 

          हृदय के भाव हरे हों।।

शांत रहे बलवान , 

          नहीं चिंता आ घेरे।

अर्ज करे 'शिशुपाल' , 

          शक्ति दो मन को मरे।। 

कुछ टूट रहा परिवारों में

कुछ टूट रहा परिवारों में 

कुछ छूट रहा व्यवहारों में 

अपनापन का गला घोट वहाँ,

फूट है भाईचारों में 

कुछ टूट रहा परिवारों में 

कुछ छूट रहा व्यवहारों में 

मन स्वार्थी होता चला जहाँ 

इन्सानियत खोता चला जहाँ 

"तेरे मेरे" का चलन जहाँ 

हर इक में होती जलन जहाँ 

गंगाजल जैसे संस्कार अब बिक रहे बाज़ारों में, 

कुछ टूट रहा परिवारों में 

कुछ छूट रहा व्यवहारों में 

हर ज़मीं ज़मीं पर सदा लड़े 

कौड़ी कौड़ी पर सदा लड़े 

अपना ही भतलब पूरा हो,

दुनियाँ गड्ढे में चाहे पड़े 

जहाँ प्यार नहीं सम्मान नहीं नहीं समझ अक्ल के मारों में, 

कुछ टूट रहा परिवारों में 

कुछ छूट रहा व्यवहारों में 

उन मात-पिता ने बड़ा किया 

अपने पैरों पर खड़ा किया 

बलिदान किये कितने ही जो, 

सपनों का महल जड़ा दिया 

उन मात-पिता को अलग अलग करते बेटे बँटवारों में, 

कुछ टूट रहा परिवारों में 

कुछ छूट रहा व्यवहारों में 

जो छोटे थे बन रहे बड़े 

अपनी हैंकड़ में रहे अड़े 

अज्ञान मयी तिमिर के कारण,  

मति पर ताले रहे पड़े 

एक नहीं ऐसे कितने ही मिले कई बाज़ारों में, 

कुछ टूट रहा परिवारों में 

कुछ छूट रहा व्यवहारों में 

पीढ़ी कभी समझ न पाती, 

ऐसा भी कोई पल होगा 

जैसी करनी वो करें आज,

उनका भी कोई कल होगा 

नीलाम हुई इज़्जत बूढ़ों की जग के कई नज़ारों में, 

कुछ टूट रहा परिवारों में 

कुछ छूट रहा व्यवहारों में 

त्रेता-सतयुग नहीं रहा, 

यह कलियुग का प्रभाव है 

मात-पिता और गुरूजनों से, 

हर कोई खाता भाव है 

हवा-पानी-खान-पान का असर है दुराचारों में, 

कुछ टूट रहा परिवारों में 

कुछ छूट रहा व्यवहारों में 

अपनापन का गला घोट,

वहाँ फूट है भाईचारों में

कुछ टूट रहा परिवारों में 

कुछ छूट रहा व्यवहारों में 

बृजेन्द्र सिंह झाला "पुखराज"

       कोटा (राजस्थान)

सिलसिला

जिंदगी की श्वांसो का,

अजीब है ये सिलसिला।

कब कहां दे दे दगा,

भरोसा ना कर इनका।।


सुख दुख साथ लिए,

चलना ही पड़ता है।

कोई रहे या ना रहे,

जीना ही पड़ता है।

जीवन पथ का यही,

अजीब सिलसिला।

कब कहा दे दे दगा

भरोसा ना कर इनका।।


जिंदगी की राहों में,

कांटे भी आते हैं।

दामन उलझाए बिन,

राहें बनाते हैं।

फूल और शूल का,

अजब है सिलसिला।

कब कहा दे दे दगा,

भरोसा ना कर इनका।


जिंदगी की श्वासो का,

अजीब है ये सिलसिला।

कब कहा दे दे दगा,

भरोसा ना कर इनका।।


       रश्मि पांडेय, शुभि

             डिंडोरी, मध्यप्रदेश

"सुप्रभात"

प्रथम किरण शुभ भोर की,

खींचे प्रभु की ओर ।

कर में जिसके है सदा,

सबकी जीवन-डोर ।।

नव-स्रोत-नूतन-दिशा की,

देता सौग़ात ।

वही सकारात्मक-ऊर्जा का प्रतीक,

 बृजेन्द्र सिंह झाला"पुखराज"

       कोटा (राजस्थान)

प्राकृत वीर निर्वाण पञ्चक

 


प्रो.डॉ.अनेकांत कुमार जैन ,नई दिल्ली 


                जआ अवचउकालस्स सेसतिणिवस्ससद्धअट्ठमासा ।

        तआ होहि अंतिमा य महावीरस्स खलु देसणा ।।१।।


जब अवसर्पिणी के चतुर्थ काल के तीन वर्ष साढ़े आठ मास शेष थे तब भगवान् महावीर की अंतिम देशना हुई ।


कत्तियकिण्हतेरसे जोगणिरोहेण ते ठिदो झाणे ।

    वीरो अत्थि य झाणे अओ पसिद्धझाणतेरसो ।।२।।


योग निरोध करके कार्तिक कृष्णा त्रियोदशी को वे (भगवान् महावीर)ध्यान में स्थित हो गए और (आज) ‘वीर प्रभु ध्यान में हैं’ अतः यह दिन ध्यान तेरस के नाम से प्रसिद्ध है ।


 चउदसरत्तिसादीए पच्चूसकाले पावाणयरीए ।

    ते  गमिय परिणिव्वुओ देविहिं अच्चीअ मावसे ।।३।।



चतुर्दशी की रात्रि में स्वाति नक्षत्र रहते प्रत्यूषकाल में वे (भगवान् महावीर) पावानगरी से परिनिर्वाण को प्राप्त हुए और अमावस्या को देवों के द्वारा पूजा हुई ।


गोयमगणहरलद्धं अमावसरत्तिए य केवलणाणं ।

  णाणलक्खीपूया य दीवोसवपव्वं जणवएण ।।४।।


इसी अमावस्या की रात्रि को गौतम गणधर ने केवल ज्ञान प्राप्त किया ।लोगों ने केवल ज्ञान रुपी लक्ष्मी की पूजा की और दीपोत्सवपर्व  मनाया ।


      कत्तिसुल्लपडिवदाए देविहिं गोयमस्स कया पूया ।

णूयणवरसारंभो वीरणिव्वाणसंवच्छरो  ।।५।।


अगले दिन कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को देवों ने भगवान् गौतम की पूजा की और इसी दिन से वीर निर्वाण संवत और नए वर्ष का प्रारंभ हुआ ।

कविता संजीवन बूँटी है,


🔥🌸🌺💥🌷🌻💐🏵️

शक्ति क़लम की बढ़ जाती है,

नित उत्साह बढ़ाने से।

सागर में गोते खाता हूँ,

शब्द शक्ति पा जाने से।।

🔥💐🌻🌷💥🌺🌸🔥

किन्तु न सागर बाँधा जाये,

इन छोटी सी बाँहों में।

फूल शूल दोनों ही मिलते,

रहते जीवन-राहों में।।

🔥💐🌻🌷💥🌺🌹🏵️

क़लमकार का बढ़े हौसला,

जन-गण सम्बल पाने से।

क्रांति जगाई है कविता ने,

पाई सीख ज़माने से।1।।

🔥💐🌻🌷💥🌺🌹🏵️

हैं दस बन्द शेष कविता के,

जो न पटल पर डाले हैं।

रुख ना पाये भाव हृदय के,

मुश्किल गये सँभाले हैं।।

🔥💐🌻🌷💥🌺🌹🌸

शब्दों की क्रीड़ा है कविता,

कविता है रस जीवन का।

कविता संजीवन बूँटी है,

यह मधुवन कवि के मन का।।

वेद प्रकाश शर्मा "वेद"

संत शिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर जी के पावन चरणो से धन्य हो गया हमारा चौका

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पाई सीख ज़माने से

 लूट हो रही नित्य जगत में,

कोई नये बहाने से।

रहना हमको सावधान अब,

पाई सीख ज़माने से।।

🌹🪴🌲🌞🌴🍀🪷

 छल प्रपंच से लूट रहे हैं,

 किस पर हम विश्वास करें।

 अपने अपनों को खाते हैं,

 कैसे किस  की आस करें।।


 धीरे-धीरे उठा जा रहा,

 विश्वास बड़े ख़ज़ाने से।

 रहना हमको सावधान अब,

 पाई सीख ज़माने से ।।1।।

🌹🪷🪴🍀🌞🌴🌲

बात बात पर झूठ बोल कर,

अपना दोष छिपाते हैं।

रिश्वत से या बल प्रयोग कर,

करके काम बताते हैं।।


 उदर भरे ना लूट पाट से,

 भरता पेट कमाने से।

 सोच समझकर काम करो अब,

 पाई सीख ज़माने से।।2।।

🌺🪷🪴🍀🌞🌴🌲

निर्बल को बलशाली खाता,

यह तो रीत पुरानी है।

मिले शेर को सवा शेर जब,

रहती धरी जवानी है।।


बाज न आते लुच्चे गुंडे,

धन हराम का खाने से।

लूटो खाऔ मौज उड़ाओ,

पाई सीख ज़माने से।।3।।

🌲🌴🌞🍀🪴🪷🌹

दुष्ट बना बंधक मनुजों को,

बेच रहे हैं अंगों को।

ऐंठ रहें हैं रकम रात दिन,

दिखा रहे निज रंगों को।।


चोर लुटेरे तस्कर देखो,

उपजे बड़े घराने से।

मन में मैल भरा है कैसी,

पाई सीख ज़माने से।।4।।

🪷🪴🌲🍀🌴🌞🌹

अत्याचार बढ़े धरती पर,

गुंडों को छाई मस्ती है।

आसमान छूती महँगाई,

जान बहुत ही सस्ती है।।


 छीना झपटी रोज हो रही,

 नर मर रहा फँसाने से।

 इक दूजे के दुश्मन हो गए,

 पाई सीख ज़माने से।।5।।

🌺🪷🪴🌲🍀🌴🌞

जियो और जीने दो सबको,

दिल न दुखाओ दीनों का।

हर दुखिया का दर्द मिटाओ,

सम्बल बन ग़मगीनों का।।,


सुख होगा "सुमनेश" जगत में,

अमन-चैन को लाने से।

प्रेम भाव से रहना हमको,

पाई सीख ज़माने से।।  6।।

🌞🌴🍀🌲🪴🪷🌹

डॉ. सुरेश चतुर्वेदी "सुमनेश"

नमक कटरा भरतपुर राज

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प्राकृत अभिव्यंजना की भाषा है- प्रो. द्विवेदी


जैनविद्या एवं प्राकृत विभाग, मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर के द्वारा आयोजित ‘प्राकृत संगोष्ठी एवं प्रोत्साहन समारोह-2022 में पावन सान्निध्य मुनिश्री श्रद्धानन्द और मुनिश्री पवित्रानंद जी महाराज ने प्रदान किया और अपने उद्बोधन में कहा कि प्राकृत वास्तव में प्रकृति की सहचारिणी है। कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे डा. हेमंत द्विवेदी, अध्यक्ष दृश्यकला संकाय ने कहा कि प्राकृत अभिव्यंजना की भाषा है। प्राकृत में प्रकृति का भरापूरा अस्तित्व है।  कार्यक्रम के समन्वयक डॉ ज्योति बाबू जैन ने स्वागत वक्तव्य एवं विषय प्रवर्तन में आयोजन का प्रयोजन और प्राकृत की महत्ता पर ओजस्वी वक्तव्य प्रदान किया  एवं ग्लोबल महासभा द्वारा निर्मित किए जाने वाले 15000 स्क्वायर फीट के प्राकृत भवन  निर्माण की जानकारी प्रदान की।

 मुख्य वक्ता प्राकृत मनीषी डॉ. उदयचंद जैन और प्राकृतविज्ञ प्रो. प्रेम सुमन जैन ने प्राकृत अध्ययन की उपयोगिता पर एक नई दृष्टि प्रदान की, साथ ही मुख्य अतिथि प्रो. सी. पी. जैन, अधिष्ठाता - विज्ञान महाविद्यालय ने कार्यक्रम के महत्ता पर कहा कि इस तरह के कार्यक्रम से समाज में प्राकृत भाषा एवं साहित्य के प्रति रुचि जाग्रत होती है। सारस्वत अतिथि प्रो. हुकमचंद्र जैन और प्रो. जिनेन्द्र कुमार जैन ने भी अपने विचार रखे और अपनी गरिमामयी उपस्थिति प्रदान की।

कार्यक्रम की सम्पूर्ण प्रयोजना और आर्थिक संहयोग श्री दिग. धर्म प्रभावना समिति, उद‌यपुर और श्री आदिनाथ दिग. जैन दसा नरसिंहपुरा चेरिटेबिल ट्रस्ट एवं चातुर्मास व्यवस्था समिति, केशवनगर, उदयपुर ने प्रदान किया। इन समितियों के सभी पदाधिकारियों ने सभी अतिथियों एवं जैनविद्या एवं प्राकृत विभाग में अध्ययनरत पीएच.डी, एम.ए और बी. ए. के विद्यार्थियों का स्वागत एवं राशि प्रदान कर सम्मान किया।

कार्यक्रम में श्री कुन्थुकुमार गणपतोत, श्री धनपाल जेतावत, श्री जीवन्धर जेतावत, श्री प्रकाश अखावत, श्री झमकलाल टाया, श्री महेन्द्र कुमार टाया, श्री प्रमोद चौधरी आदि गणमान्य श्रेष्ठियों ने अपनी गरिमामयी उपस्थिति से कार्यक्रम को सक्रियता प्रदान की और प्राकृत भाषा एवं साहित्य के अध्ययन हेतु प्रेरणा प्रदान की।

आयोजन के समन्वयक और संयोजक क्रमशः डॉ. ज्योतिबाबू जैन (प्रभारी -विभागाध्यक्ष) और डॉ. सुमत कुमार जैन सहायक आचार्य रहे। अंत में धन्यवाद ज्ञापन श्री दिग. जैन धर्म प्रभावना समिति के महामंत्री प्रकाशजी अखावत ने किया इसी प्रकार प्राकृत विद्या प्रोत्साहन की श्रृंखला को अनवरत जारी रखने की घोषणा की |

समारोह में  शोधार्थियों  विद्यार्थियों  के साथ लगभग 300 गणमान्य प्राकृत प्रेमियों  की उपस्थिति रही ।

              डॉ. सुमत कुमार जैन

भारतीय प्राकृत स्कालर्स सोसायटी उदयपुर की ओर से बहुमान

प्रोफेसर दीनानाथ शर्मा जी, अहमदाबाद को सेवा निवृत्त होने पर भारतीय प्राकृत स्कालर्स सोसायटी उदयपुर की ओर से सबहुमान सम्मान पूर्वक हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं हैं| उनके विभाग के शोधकर्ताओं द्वारा आज दिनांक 18 अक्टूबर, 22 को आयोजित सम्मान समारोह में सोसायटी के अध्यक्ष प्रो. जिनेन्द्र कुमार जैन ने उन्हें श्रीफल,  शाल और प्रशस्ति से सम्मानित किया| डा शर्मा ने प्राकृत, संस्कृत, पालि भाषाओं और साहित्य के शिक्षण और शोध के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान किया है। भारतीय काव्य शास्त्र एवं व्याकरण के आप गहन चिन्तक हैं। आपकी शिष्य परंपरा बहुमुखी प्रबुद्ध है। डा. शर्मा जी ने जैन साधु समुदाय को भी  अपने ज्ञान और वैदुष्य का लाभ प्रदान किया है। समाज आपका ऋणी रहेगा। भारतीय प्राकृत स्कालर्स सोसाइटी आपके उज्ज्वल भविष्य और स्वस्थ दीर्घायु जीवन हेतु मंगलकामना करती है। आपके परिवार को हार्दिक बधाई।


अंतर्मन की पीड़ा

कौन समझ पाया अंतर्मन की पीड़ा,

सभी ने मिलकर उसका उपहास किया।

कहा जब भी कि मैं दुखी हूँ अन्दर से,

लोगों ने उन बातों को दरकिनार किया।।


पीड स्वयं की स्वयं ही महसूस कर नादान,

सब स्वार्थी हैं यहाँ उनकी तू पहचान कर,

भीतरी घाव कोई नहीं ठीक कर पाएगा,

तेरा दर्द तुझसे ही बाँटा जाएगा,

निज आपबीती का सभी ने तिरस्कार किया।

कहा जब भी कि मैं दुखी हूँ अन्दर से,

लोगों ने उन बातों को दरकिनार किया।।


पीड़ा अंतर्मन की ये है कि,

कोई अपना बिना कहे ही सब आभास करें,

उदास,हताश हूँ तो बैठकर मेरे पास,

कुछ देर बात करें ,

मुझें कहे कि तू अकेला नही है सब है तेरे साथ,

सिर्फ़ इतना कहने से ही तेरे अन्दर हौंसला आएगा,

पीड़ा कैसी भी हो तू सब पार कर जाएगा,

जगत में वो ही श्रेष्ठ है जिसने स्वयं का उद्धार किया।

कहा जब भी कि मैं दुखी हूँ अन्दर से,

लोगों ने उन बातों को दरकिनार किया।।


ममतांश अजीत

बहरोड़ अलवर राजस्थान

परिमंडल में नभ ललछौंहा

 परिमंडल में नभ ललछौंहा

अभिविश्रुत  ऊषा का द्वार 

दृश्य पटल पर सुमनित उभरा

मिले थे हम तुम पहली बार।


दिनांतक से दिनागमन तक

केवल आँखे मुखरित होतीं

रक्त शिराएँ आल्हादित थीं

सपनों- घर आशाएँ बोतीं

अभिकांक्षित परिकल्पन ऐसा

रूपांतरित रूपक संसार।


संवेदन  दिखलाए  दर्पण 

केश संवारे  लो ! भावुकता

अनुगायन ऐसे प्रसंग का

सहज भला कैसे हो सकता।

संप्रेषित अनुभाव क्या करे

रंगोल्लासित पल त्यौहार। 


आत्मायन में तुम ठहरे हो

ध्यान, मनन में तुमको जाना

हुई रसाई प्रेमपंथ की

आदृत दैविक मर्म पहचाना 

प्राण-प्रतिष्ठा  करो मिलन की

शेष अभी अव्यक्त मनुहार।


मेंहदी लगा  जभी हाथ में 

 अभिलाषा ने ली अँगड़ाई 

बारहमासी गाने उत्सुक

कजरी-चैती ढोलक  लाई

अनगढ़ मन की बातें प्रियतम

कर लेना तत्क्षण  स्वीकार। 


अनुरंजित अनुगुंजित छवियाँ

प्रेमाश्रयी मार्ग  अपनाया

प्रेम-ग्रंथ की पढ़ी भूमिका

फिर भी अब तक पार न पाया।

संतर्पण की रही कामना

प्रियतम ! करना आत्मोद्धार।


श्रीमती मधु प्रसाद 

29,गोकुल धाम सोसायटी

ऑफ बी आर टी एस सारथी बस स्टैंड, 

चाँरखेड़ा, 

अहमदाबाद-382424

(गुजरात)

यह कोशिश सौ बार किया है ।

जग से ऐसा प्यार किया है
तलवारों की धार जिया है ।

जितने प्याले मिले गरल के
हँस-हँस बारंबार पिया है । 

घाव छिपाकर सुमनों   वाले 
काँटों  से अभिसार किया है ।
 
झूठों के  मुँह  सच  दे    मारूँ 
 यह कोशिश सौ बार किया है ।

आँसू  पोंछे  नम   आँखों  के
यों गलती हर बार किया  है ।

नागफनी   बाँहों  में   देकर 
उसने कहा  बहार  दिया है।

गले    लगाते  गर्दन    गायब
 क्या वाजिब व्यवहार किया है।
@गुणशेखर

यह कोशिश सौ बार किया है ।

 जग से ऐसा प्यार किया है

तलवारों की धार जिया है ।


जितने प्याले मिले गरल के

हँस-हँस बारंबार पिया है । 


घाव छिपाकर सुमनों   वाले 

काँटों  से अभिसार किया है ।

 

झूठों के  मुँह  सच  दे    मारूँ 

 यह कोशिश सौ बार किया है ।


आँसू  पोंछे  नम   आँखों  के

यों गलती हर बार किया  है ।


नागफनी   बाँहों  में   देकर 

उसने कहा  बहार  दिया है।


गले    लगाते  गर्दन    गायब

 क्या वाजिब व्यवहार किया है।

@गुणशेखर

माला


साँसों की माला टूट गयी तब,

जोड़ने वाला कोई नहीं,

यौवन के मद में भरके बन्दे,

तू इतना इतराता है,


तुझे सुबह-शाम का पता नहीं,

फ़िर भी तू गणित लगाता है,

यौवन तेरा ढलने लगा जब,

चाम का प्यारा कोई नहीं,


साँसों की माला टूट गयी तब,

जोड़ने वाला कोई नहीं,

माटी तेरा जिस्म बनेगा,

राख उड़ेगी इक पल में,


यार-दोस्त तेरे सगे-सम्बन्धी,

रो-रोकर नीर बहायेंगे,

जो तुझसे लिपटे जाते थे,

वही ख़ौफ़ खायेंगे,


साँस तन से निकल गयी तो,

जग में रखईया कोई नहीं,

साँसों की माला टूट गयी तब,

जोड़ने वाला कोई नहीं,


तन-मन तूने होम किया है,

जिनको आज बनाने में,

घर हो या महल-दूँमहले,

सभी यहीं रह जाएंगे,


संग में तेरे कफ़न चलेगा,

संग में चलैया कोई नहीं,

साँसों की माला टूट गयी तब,

जोड़ने वाला कोई नहीं,


यारे-प्यारे सगे-सम्बन्धी,

जल्दी तुझे उठाएंगे,

ले जाकर तुझको बन्दे,

अग्नि में वो जलाएंगे,

कपाल क्रिया तेरी होगी,

"शकुन" तुझको बचैया कोई नहीं,

साँसों की माला टूट गयी तब,

जोड़ने वाला कोई नहीं || 


- शकुंतला अग्रवाल, जयपुर

दीपक से शिक्षा

माटी के ये दीपक जो,

जन-जन को प्रेरणा देते हैं ।

भाँति उसी सारे जहान को,

तिमिर-मुक्त कर देते हैं ।।

हम भी माटी के हैं पुतले,

बन सकते दीपक जैसे ।

हो मन-आंगन-निर्मल-प्रज्ज्वलित,

रहें सदा बिलकुल वैसे ।।

प्यार भरे दो बोल मीठे,

यही चाहिये जीवन में ।

जैसे हँसता है गुलाब,

हरदम अपने गुलशन में ।।

हृदयोद्यान हो विशाल तो,

हैं खुशियाँ सबसे आली ।

जगमगाऐं घर-आंगन-उपवन,

तभी नाम है "दीपावली" ।।

प्रेम भावना हो अन्तर में,

भाईचारा नित हरदम ।

नफ़रत की दीवार ढहा कर,

रफ़ा-दफ़ा कर दें हर ग़म ।।

करें ग्रहण ऐसी ही हम सब,

दीपक से प्यारी शिक्षा ।

दीप जले मन-मन्दिर में नित,

मिले खुशहाली की भिक्षा ।।

 बृजेन्द्र सिंह

  कोटा (राजस्थान)

बेटी है जंजाल नहीं


सुनो सुनो आज खुशी का दिन आया  अपना

घर में नन्ही बिटिया आई पूरा हुआ है सपना


तितली गाए भौंरेझूमें फूल हंसे डाली  डाली

मेरे घर  अंगना में देखो छाई है ऋतु मतवाली


देखो रे देखो भरा हुआ है खुशियों का प्यारा संसार

नन्ही नन्ही कलियों का अपने हाथों करूं श्रृंगार 


श्याम सलोनी प्यारी प्यारी है मेरी बिटिया रानी

आओ सहेली तुम भी देखो ये मेरी गुड़िया रानी


चम्पा चमेली रजनीगंधा की खुशबू है फैल रही

जूही की खुशबू के साथ आज कमलनी फूल रही


रात अंधेरी बीत गयी पूनम की उजियारी छाई

इन अंजोरी रातों में कली कली है मुस्काई


बेटी है जंजाल नहीं वह है सौभाग्य हमारा

प्यार से उसे संवारो घर लाएगी उजियारा


श्रीमती संध्या श्रीवास्तव छतरपुर मध्यप्रदेश

दीपावली को शुरू हुआ था भारत का सबसे प्राचीन संवत् ‘

 दीपावली को शुरू हुआ था भारत का सबसे प्राचीन संवत् ‘


-डॉ अनेकांत कुमार जैन


1.ईसा से ५२७ वर्ष पूर्व कार्तिक कृष्णा अमावस्या को दीपावली के दिन भगवान् महावीर का निर्वाण हुआ था ,उसके एक दिन बाद कार्तिक शुक्ला एकम से भारतवर्ष का सबसे प्राचीन संवत् “वीर निर्वाण संवत्”प्रारंभ हुआ था |यह हिजरी, विक्रम, ईसवी, शक आदि सभी संवतों से भी अधिक पुराना है |


2. जैन परंपरा के प्राकृत तथा संस्कृत भाषा के प्राचीन ग्रंथों/पांडुलिपियों में तो इस बात के अनेक प्रमाण है ही साथ ही पुरातात्विक साक्ष्यों से भी यह संवत् सबसे अधिक प्राचीन सिद्ध होता है |


3. राजस्थान के अजमेर जिले में भिनय तहसील के अंतर्गत वडली एक गाँव है |सुप्रसिद्ध पुरातत्ववेत्ता डॉ गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने १९१२ ईश्वी में वडली के शिलालेख की खोज की थी |वडली के शिलालेख में वीर निर्वाण संवत का उल्लेख हुआ है |यह वीर शब्द महावीर स्वामी के लिए आया है |इस शिलालेख पर ८४ वीर संवत लिखा है |भगवान् महावीर के निर्वाण के ८४ वें वर्ष में यह शिलालेख लिखा गया |सुप्रसिद्ध इतिहासकार डॉ राजबली पाण्डेय ने अपनी पुस्तक इंडियन पैलियो ग्राफी के पृष्ठ १८० पर लिखा है कि ‘अशोक के पूर्व के शिलालेखों में तिथि अंकित करने की परंपरा नहीं थी,बडली का शिलालेख तो एक अपवाद है |’


4.अभी तक इस शिलालेख से पूर्व का कोई भी प्रमाण नहीं है जो किसी और संवत् की परंपरा को दर्शाता हो | फिलहाल यह शिलालेख आमेर के संग्रहालय में सुरक्षित है |

, मैं प्रिय कविता बन जाऊँ l

  

तुम कवि राज बनो हे प्रियतम , मैं प्रिय कविता बन जाऊँ  l

सदा बसू मैं सप्त सुरों में , तन - मन झंकृत कर पाऊँ   l l


बड़े जतन से पढ़ो मुझे तुम , हृदय सभी के मैं भाऊँ  l

रोम - रोम से ही मैं अपनी , प्रीत तुम्हारी छलकाऊँ  l l

रहूँ लेखनी में मैं हर पल , जब तुम बोलो मैं आऊँ  l

तुम कविराज बनो हे प्रियतम , मैं प्रिय कविता बन जाऊँ  l l

उर में अपने मुझे बसा लो , तेरी धड़कन बन जाऊँ  l

हृदय तरंगित तो हो जब तेरा , मधुशाला सी मुस्काऊँ  l l

बनकर यादें भूली बिसरी , दूर गगन में इतराऊँ  l

तुम कविराज बनो हे प्रियतम , मैं प्रिय कविता बन जाऊँ   l l


सदा रहूँ अविरल सी धारा , लगे सभी कुछ प्यारा सा l

झूम - झूम के नाचो - गाओ , हो जैसे ये सपना सा  l l

तुहिन कणों में रहूँ बिखरती , सबके मन को मैं भाऊँ  l

तुम कविराज बनो हे प्रियतम , मैं प्रिय कविता बन जाऊँ  l l


तुम कविराज बनो हे प्रियतम , मैं प्रिय कविता बन जाऊँ  l

सदा बसु  मैं सप्त सुरों में , तन - मन झंकृत कर पाऊँ   l l


डॉ. राजेश कुमार जैन 

श्रीनगर गढ़वाल  ,उत्तराखंड

छोड़ दें तेरा मेरा करना ||

 आशियाना छोड़ कर, जंगल में बसेरा करना |

राम से सीख लो, अँधेरा को सबेरा करना |


अपने माँ बाप की हर बात को तसलीम करो |

छत दुआओं की मिल जाएगी जहाँ भी डेरा करना ||


आदमी कोख से भगवान नहीं बनता है |

चले सच्चाई पे, छोड़ दें तेरा मेरा करना ||


यूँ तो रुसवाई नहीं छोड़ती पीछा करना |

रहना पड़ता है  चरागों को मुश्किल में अँधेरा करना ||


वक़्त सामने झुक जाते हैं आईना अक्सर |

दिल के गुलशन को आसां नहीं सहरा करना ||


घरों में आजकल खामोशियों की बस्ती है |

पास लोगों के नहीं खुलके तजकिरा करना ||


            संजय तिवारी सरोज

#हिंदीकीवैज्ञानिकता #भाषा_विज्ञान

 कथा, कथन, मितकथन, कथक आदि शब्दों की व्याख्या

[अच्छी हिंदी : ©कमलेश कमल] 

*********


कथन एक ऐसा शब्द है, जिसका प्रयोग हम बहुधा करते हैं– कभी सही; तो कभी ग़लत। 'कथन कहा’ अथवा ‘कथन किया’? – इसको लेकर स्थापित लेखकों के मन में भी संशय की स्थिति रहती है। आइए सबसे पहले 'कथन' शब्द को समझते हैं।


कथन शब्द ‘कथ्’ धातु से बना है। कथ् (कथयति, कथित) में कहने, समाचार देने, संकेत देने, वर्णन करने, घोषणा करने आदि का भाव है।


कथ् से 'कथनम्'( कथ् +ल्युट्) शब्द बना, जिसका वही अर्थ है– कहानी कहना, वर्णन करना। 

इसी कथनम् का तद्भव 'कथन' है। कथन का अर्थ कहना या बोलना (क्रिया) भी हुआ और कहने का भाव भी हुआ। यह कथन अँगरेज़ी के statement या utterance के समानांतर है। 


कथ शब्द को बोलकर देखें; तो अंत में ‘ह्’ सुनाई देगा। यह ‘थ’ ध्वनि भाषा-विज्ञान की दृष्टि से ‘त’ और ‘ह’ के  मेल से बना है। प्रयत्न लाघव (सामान्य अर्थ में उच्चारण सुविधा) से ‘थ’ शब्द का ‘त्’ गायब हो गया और ‘ह्’ बच गया। इस प्रकार ‘कथ’ कह हुआ। फिर ‘कह’ का परिवार बढ़ा और कहना, कह, कहा, कहानी आदि शब्द आए। ऐसे, जो बात ‘कथ’ दी गई; वह कथा(वृत्तांत) हो गई। 


कथा(कथ् +अङ्+टाप्) जैसा कि सर्वविदित है कि कहानी, कल्पित बातें, वृत्तांत आदि के लिए प्रयुक्त होनेवाला शब्द है। इसी से बने कथानकम् का मूल अर्थ है– छोटी कहानी। कथा कहने वाले अथवा वर्णन करने वाले के लिए शब्द है– 'कथक'। ध्यान दें कि कथक एक शास्त्रीय नृत्य की शैली भी है, जिसमें नृत्य के माध्यम से किसी 'कथा' की अभिव्यंजना होती है। 


यहाँ ध्यातव्य है कि चूँकि कथन का अर्थ कोई बात, कहने की क्रिया का भाव, कहना, बोलना, उक्ति, सूक्ति आदि ही है, इसीलिए कथन के साथ 'कहना' नहीं प्रयुक्त होगा। यह पुनरुक्ति दोष माना जाता है। पुनश्च, “उसने यह कथन कहा”– ऐसे प्रयोग नहीं होने चाहिए। 'कथन किया' ठीक है; परंतु भाषा के अच्छे जानकार और शब्दों के खिलाड़ी ‘कथन कहा’ और ‘कथन किया’ दोनों से बचते हैं। वे इस तरह का प्रयोग करेंगे– उसके कथन का अभिप्रेत था कि…, उसके कथन सुनकर….आदि।  


बहरहाल, कथन से ‘कथनी’ शब्द बना, जो कोई बात, कथा, उक्ति, कथन आदि के लिए प्रयुक्त होता है। ऐसे ही, जो कहा जाने योग्य हो– वह 'कथनीय' हुआ। जो कह दिया गया, वह् 'कथित'(कथ्+क्त) हुआ। आगे चलकर 'कथ' से अकथ, अकथ्य, और अकथनीय आदि विपरीतार्थक शब्द बने, जिनके अर्थ स्वतः स्पष्ट हैं।


बढ़ा-चढ़ाकर कहना, अतिरंजना अथवा अत्युक्ति के लिए शब्द बना– ‘अतिकथन’। 'अल्पकथन' कम कहना है। 'मितकथन' अल्पकथन का समार्थक है, परंतु यह उससे अधिक अर्थगाम्भीर्य वाला शब्द है। मितकथन में सोच-समझकर शब्दों को ख़र्च करने का भाव भी अंतर्निहित है।

एक कथन के बाद दूसरा कथन अगर आए; तो वह ‘अनुकथन’ हुआ। आरोप अथवा अभियोग लगाने के लिए ‘अभिकथन’ शब्द है। कथन के बदले (उप) कथन के लिए शब्द बना–  ‘कथोपकथन'। हितकथन का अभिप्राय ऐसे कथन से है, जिससे किसी का भला हो सकता है। हितकथन के लिए एक अन्य शब्द है– 'हितवचन'।

ज्ञातव्य है कि संस्कृत में कथ् से बनने वाला 'कथम्' एक अव्यय शब्द है, जिसका अर्थ है– कैसे, किस प्रकार, किस रीति से। इसी प्रकार वहाँ 'कथन्ता' आदि शब्द हैं, परंतु देखा जाए; तो सब ‘कथ्' की ही महिमा है। 


कथा, कथन, मितकथन, कथक आदि शब्दों की व्याख्या

[अच्छी हिंदी : ©कमलेश कमल] 

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कथन एक ऐसा शब्द है, जिसका प्रयोग हम बहुधा करते हैं– कभी सही; तो कभी ग़लत। 'कथन कहा’ अथवा ‘कथन किया’? – इसको लेकर स्थापित लेखकों के मन में भी संशय की स्थिति रहती है। आइए सबसे पहले 'कथन' शब्द को समझते हैं।


कथन शब्द ‘कथ्’ धातु से बना है। कथ् (कथयति, कथित) में कहने, समाचार देने, संकेत देने, वर्णन करने, घोषणा करने आदि का भाव है।


कथ् से 'कथनम्'( कथ् +ल्युट्) शब्द बना, जिसका वही अर्थ है– कहानी कहना, वर्णन करना। 

इसी कथनम् का तद्भव 'कथन' है। कथन का अर्थ कहना या बोलना (क्रिया) भी हुआ और कहने का भाव भी हुआ। यह कथन अँगरेज़ी के statement या utterance के समानांतर है। 


कथ शब्द को बोलकर देखें; तो अंत में ‘ह्’ सुनाई देगा। यह ‘थ’ ध्वनि भाषा-विज्ञान की दृष्टि से ‘त’ और ‘ह’ के  मेल से बना है। प्रयत्न लाघव (सामान्य अर्थ में उच्चारण सुविधा) से ‘थ’ शब्द का ‘त्’ गायब हो गया और ‘ह्’ बच गया। इस प्रकार ‘कथ’ कह हुआ। फिर ‘कह’ का परिवार बढ़ा और कहना, कह, कहा, कहानी आदि शब्द आए। ऐसे, जो बात ‘कथ’ दी गई; वह कथा(वृत्तांत) हो गई। 


कथा(कथ् +अङ्+टाप्) जैसा कि सर्वविदित है कि कहानी, कल्पित बातें, वृत्तांत आदि के लिए प्रयुक्त होनेवाला शब्द है। इसी से बने कथानकम् का मूल अर्थ है– छोटी कहानी। कथा कहने वाले अथवा वर्णन करने वाले के लिए शब्द है– 'कथक'। ध्यान दें कि कथक एक शास्त्रीय नृत्य की शैली भी है, जिसमें नृत्य के माध्यम से किसी 'कथा' की अभिव्यंजना होती है। 


यहाँ ध्यातव्य है कि चूँकि कथन का अर्थ कोई बात, कहने की क्रिया का भाव, कहना, बोलना, उक्ति, सूक्ति आदि ही है, इसीलिए कथन के साथ 'कहना' नहीं प्रयुक्त होगा। यह पुनरुक्ति दोष माना जाता है। पुनश्च, “उसने यह कथन कहा”– ऐसे प्रयोग नहीं होने चाहिए। 'कथन किया' ठीक है; परंतु भाषा के अच्छे जानकार और शब्दों के खिलाड़ी ‘कथन कहा’ और ‘कथन किया’ दोनों से बचते हैं। वे इस तरह का प्रयोग करेंगे– उसके कथन का अभिप्रेत था कि…, उसके कथन सुनकर….आदि।  


बहरहाल, कथन से ‘कथनी’ शब्द बना, जो कोई बात, कथा, उक्ति, कथन आदि के लिए प्रयुक्त होता है। ऐसे ही, जो कहा जाने योग्य हो– वह 'कथनीय' हुआ। जो कह दिया गया, वह् 'कथित'(कथ्+क्त) हुआ। आगे चलकर 'कथ' से अकथ, अकथ्य, और अकथनीय आदि विपरीतार्थक शब्द बने, जिनके अर्थ स्वतः स्पष्ट हैं।


बढ़ा-चढ़ाकर कहना, अतिरंजना अथवा अत्युक्ति के लिए शब्द बना– ‘अतिकथन’। 'अल्पकथन' कम कहना है। 'मितकथन' अल्पकथन का समार्थक है, परंतु यह उससे अधिक अर्थगाम्भीर्य वाला शब्द है। मितकथन में सोच-समझकर शब्दों को ख़र्च करने का भाव भी अंतर्निहित है।


एक कथन के बाद दूसरा कथन अगर आए; तो वह ‘अनुकथन’ हुआ। आरोप अथवा अभियोग लगाने के लिए ‘अभिकथन’ शब्द है। कथन के बदले (उप) कथन के लिए शब्द बना–  ‘कथोपकथन'। हितकथन का अभिप्राय ऐसे कथन से है, जिससे किसी का भला हो सकता है। हितकथन के लिए एक अन्य शब्द है– 'हितवचन'।


#ज्ञातव्य है कि संस्कृत में कथ् से बनने वाला 'कथम्' एक अव्यय शब्द है, जिसका अर्थ है– कैसे, किस प्रकार, किस रीति से। इसी प्रकार वहाँ 'कथन्ता' आदि शब्द हैं, परंतु देखा जाए; तो सब ‘कथ्' की ही महिमा है। 



अदालत देखती है

मेरे सच को तो अब जरुरी सहारा ख़िताबत का

थक गया,बयां कर रोज़ वो किस्सा ख़जालत का


इक उम्र बीत गयी है लगा चक्कर अदालत के मेरे

अब तो एहसास भी मर गया है इसी तवालत का


खुदा के पास जाऊँगा कैसे,जीत के कानूनी जंग

उड़ा मज़ाक मेरी,जुरअत,शुजाअत,वसालत का


कानून की देवी की तराजू में भी, भर दी दौलतें

अब रह गया है आसरा,खुदा की किफ़ालत का


इश्क की अदालत में ये क्या कह दिया उन्होंने 

पछतायेगा,ले ले वापस तू किस्सा ज़ुल्मत का 


हार कर तब मैनें उनसे सजा-ए-मौत मांग ली

उनहोनें फैसला लिखा,कर इंतजार क़यामत का


अदालत देखती है कागज पे लिखे लफ्जों को

देवेश देखे फैसला इन्सानियत की फ़जीहत का

       -------- संजय गुप्ता देवेश

काव्यसंग्रह मौक्तिकम पर राष्ट्रीय विद्वत संगोष्ठी का भव्य आयोजन

 कोडरमा में पूज्य मुनिश्री विशल्य सागर जी के सान्निध्य में उनके द्वारा रची काव्यसंग्रह  मौक्तिकम पर राष्ट्रीय विद्वत संगोष्ठी का भव्य आयोजन हुआ  संगोष्ठी देश विदेश के विद्वानों ने अपने आलेखों का वचन किया 

अध्यक्ष एवम समन्वयक डा नीलम जैन पुणे थी

सभी ने इस कृति को उत्कृष्ट एवम पाठ्यक्रम में सम्मिलित होने योग्य बताया

जैन समाज कोडरमा ने सभी का भव्य सम्मान किया

उल्लेखनीय है कि इस कृति को लोकार्पण झारखंड राज्य की शिक्षामंत्री मान्या अन्नपूर्णा देवी ने किया था



ज़िंदगी को मैंने बड़े ही करीब से देखा है.

 दोस्तों..

ज़िंदगी को मैंने बड़े ही करीब से देखा है.. यह कभी पिता के हाथ सी लगी.. तो कभी माॅं के साथ सी लगी.. मन किया तो मेरे संग संग चली.. पल में बिछड़ी अक्सर बेवफाई कर गई.. इसके बहरूपिया पन को देखकर तो हम बस इतना कहेंगे जी..!!!!!


दरिया ए समझदारी में इस हद तक आज उतर गया हूॅं मैं..!

यह जिंदगी तेरे सारे इंम्तहानो से बेशक गुजर गया हूॅं मैं..!


हमने देखा है आज हर तरफ मौकापरस्तों का हुजूम सा है..!

किसे अपना कहे मतलबी दुनिया से बड़ा डर गया हूॅं मैं..!


तू कहती थी तलाश करो तो वफादार राही भी मिल जाते हैं..!

मुझे तो आज तक नहीं मिला जीवन राह में जिधर गया हूॅं मैं..!


एक आरजू पूरी होती तो दूसरी मुंह बाए खड़ी मिलती है..!

न जाने कितनी आरजूओं का अब तक कत्ल कर गया हूॅं मैं..!


कमल की क़लम से✒️

आशियाना

🪷🪷🪷🪷🪷🪷🪷🪷

जो आयु बीत गई उसका 

मैंने कब रखा हिसाब है !

हर दिल में आशियाना हो ,

इतना ही मेरा ख़्वाब है ।।

🪷🪷🪷🪷🪷🪷🪷🪷

दौलत रहे ना शोहरतें , 

ढह जाती यहाँ इमारतें ।

लिख दी जो नेकी ने कभी ,

मिट पाई कहाँ इबारतें !

ख्वाहिश जो मन में है उठी 

टेसु में खिलता गुलाब है ।

हर दिल में आशियाना हो ,

इतना ही मेरा ख़्वाब है ।।

🪷🪷🪷🪷🪷🪷🪷🪷

परहित में मैं तत्पर रहूँ ,

स्वार्थ से हो सदा फासला ।

मैं नेकराह चलती रहूँ

ना हो भले संग काफिला ।

देती दुआ दिल में पनाह  ,

बरकत करे बेहिसाब है ।

हर दिल में आशियाना हो ,

इतना ही मेरा ख़्वाब है ।।

🪷🪷🪷🪷🪷🪷🪷🪷

औरों के आँसू पोंछ दूं ,

ये हाथ इतने सक्षम हो ।

निडर हो सच का संग करूँ ,

हिम्मत-हौसला ना कम हो ।

चमके बदी में नेकी यूँ ,

ज्यों तारों में महताब है ।

हर दिल में आशियाना हो ,

इतना ही मेरा ख़्वाब है ।।

🪷🪷🪷🪷🪷🪷🪷🪷


लेखिका बिंदु पूर्णिमा 

सर्वाधिकार सुरक्षित मौलिक रचना ।

आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय की पाठशाला

शुद्ध और उपयुक्त शब्दप्रयोग :-- आभार, कृतज्ञता, धन्यवाद तथा साधुवाद।


★ आभार-- यह ऐसा शब्द है, जिसका लोग एक पारम्परिक शब्दार्थ के रूप मे प्रयोग करते आ रहे हैं। जब कोई किसी पर उपकार करता है तब उस उपकारी व्यक्ति के प्रति उपकृत व्यक्ति 'आभार' प्रकट करता है। जैसे किसी आयोजन मे जब अतिथिवृन्द पहुँचते हैं तब आयोजन के समापन के समय आयोजक उनके प्रति अपना आभार-ज्ञापन करता है; लेकिन बहुसंख्य आयोजक 'धन्यवाद' प्रकट करते हैं, जो कि अनुपयुक्त है और भाव की दृष्टि से अशुद्ध भी।

★ कृतज्ञता-- 'आभार' और 'कृतज्ञता' शब्दों के अर्थ लगभग मिलते-जुलते हैं। जब किसी के किये गये अनुग्रह को 'आदरपूर्वक'  स्मरण किया जाये तब वह 'कृतज्ञता' कहलाता है। यह शब्द 'आभार' की तुलना मे अधिक 'विनम्र' है।

★ धन्यवाद-- अधिकतर लोग बिना अर्थ और भाव को समझे ही 'धन्यवाद' शब्द का प्रयोग करते हैं। यही कारण है कि कहाँ 'आभार' शब्द का प्रयोग होता है और कहाँ 'कृतज्ञता' का, इनका बोध नहीं रहता। यदि कोई व्यक्ति किसी की सहायता करता है; पढ़ाता-समझाता है अथवा उसके अच्छे कार्यों की सराहना करता है अथवा अतिथि के रूप मे किसी आयोजन में सहभागिता करता है तो उसके प्रति आतिथेयजन (अतिथि का सत्कार करनेवाले लोग) 'धन्यवाद' का ज्ञापन करते हैं, जो कि अनुपयुक्त है। यहाँ आयोजक'आभार-ज्ञापन' करेगा और जिसके प्रति आभार प्रकट किया जायेगा, वह व्यक्ति  'धन्यवाद' कहेगा। धन्यवाद का अर्थ है, 'धन्य करनेवाला विचार अथवा भाव अथवा कर्म'।

★ साधुवाद-- लोग 'साधुवाद' और 'धन्यवाद' को एक ही अर्थ मे प्रयोग करते हैं, जो कि ग़लत है। ऐसा इसलिए कि 'साधुवाद' विशिष्ट कोटि का शब्द है। जिस व्यक्ति की साधना, विशेषत: आध्यात्मिक साधना पूर्ण हो चुकी रहती है, उसका विचार अथवा कर्म 'साधुवाद' कहलाता है। यहाँ विचार अथवा भाव अथवा क्रिया मे 'साधुता' होती है। उस व्यक्ति का विचार और आचरण, जो सांसारिक प्रपंच से मुक्त होकर त्यागी और विरक्त हो गया हो, 'साधुवाद' की श्रेणी मे आता है। जब कोई उत्तम कर्म करता है अथवा उत्तम भाव अथवा विचार प्रकट करता है तब उससे प्रभावित होनेवाला व्यक्ति 'साधु-साधु' कहता है, जो कि साधुवाद का सूचक पद है।

(सर्वाधिकार सुरक्षित-- आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; १४ अक्तूबर, २०२२ ईसवी।)

आराधना

तेरा तुझको अर्पण प्यारे रहा और क्या जीवन-धन,

डोर तिहाँरे हाथ साँवरे लाज राखियो जीवन-धन ।

अन्तर्यामी परमेश्वर सर्वस्व व्याप्त हैं घट-घट में,

छिपा न ऐसा कोई जिसको नहीं जानते जीवन-धन ।।

फिक्र हमें अपने मतलब की मगर उन्हें सम्पूर्ण जगत की ।

संचालन जो करें विश्व का टेक रखें "पुखराज" भक्त की ।।

तृण को गिरि-गिरि को तृण करती वो जो अद्भुत शक्ति ।

हों चरणों में साष्टांग करलें हम सब उनकी भक्ति ।।

करें समर्पण अपना सब कुछ पार लगाऐं जीवन-धन,

डोर तिहाँरे हाथ साँवरे लाज राखियो जीवन-धन ।

अन्तर्यामी परमेश्वर सर्वस्व व्याप्त हैं घट-घट में,

छिपा न ऐसा कोई जिसको नहीं जानते जीवन-धन ।।

तेरा तुझको अर्पण प्यारे रहा और क्या जीवन-धन,

डोर तिहाँरे हाथ साँवरे लाज राखियो जीवन-धन ।

अन्तर्यामी परमेश्वर सर्वस्व व्याप्त हैं घट-घट में,

छिपा न ऐसा कोई जिसको नहीं जानते जीवन-धन ।।

बृजेन्द्र सिंह झाला"पुखराज"

         कोटा (राजस्थान)

आचार्य मुनि श्री १०८ सुनीलसागर जी द्वारा रचित प्राकृत काव्य -

 अंकलीकर परम्परा के चतुर्थ पट्टाधीश आचार्य मुनि श्री १०८  सुनीलसागर जी द्वारा रचित प्राकृत काव्य -


.........."णीदि-संगहो" 


तच्चबोहो मणोरोहो, विरदी विसयादु हि।


अप्पसोही रदी सेट्ठे, तं णाणं जिणसासणो।। ४७ ।।


भावार्थ - वस्तुतः जिस ज्ञान से तत्वों का सम्यक बोध हो, मन का निरोध हो, कल्याण मार्ग में प्रीति हो, कषायों की उपशांतता से आत्मा में निर्मलता प्रकट हो और विषय भोगों से विरक्त हों उसे ही जिनेन्द्र भगवान के शासन में ज्ञान कहा गया है। 


प्रस्तुति - सुमेर चन्द जैन प्राकृताचार्य

आचार्य मुनि श्री १०८ सुनीलसागर जी द्वारा रचित प्राकृत काव्य

अंकलीकर परम्परा के चतुर्थ पट्टाधीश आचार्य मुनि श्री १०८  सुनीलसागर जी द्वारा रचित प्राकृत काव्य 


.........."णीदि-संगहो" 


णिगोदे णिरए थीए, तिरिए वाण-विंतरे।


णीचट्ठाणे भमेदि णो, जीवो सम्मत्त-जोगदो।। ४६ ।।


भावार्थ - सम्यग्दर्शन से संयुक्त जीव निगोद, नरक ( प्रथम नरक बिना ), स्त्री-पर्याय, तिर्यंच, भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी देवों  तथा अन्य और भी नीच पर्यायों-निंद्यस्थलों में उत्पन्न नहीं होता है। इसके विपरीत मिथ्यात्व से जीव संसार के अनन्त दुख पाता है।


प्रस्तुति - सुमेर चन्द जैन प्राकृताचार्य


गुनहगार कौन?

हर माता - पिता का सपना होता है कि मेरा बेटा कलैक्टर बन जाये ।हरियाणा में तो कहावत भी है कि - "के बेटा ! कलैक्टर लाग रा सै ?" माता - पिता बच्चों का करियर बनानें के लिये, हर संभव कोशिश करते हैं ।चाहे रूपये - पैसों से हो या शारीरिक मेहनत से ।उनकी एक ही तमन्ना रहती है कि बच्चा पढ़ - लिख कर काबिल बन जाये, तो हमारा जीवन सफल ।उसमें उनका निजी स्वार्थ नहीं होता है ।उन्हें अपने बच्चों से कुछ नहीं चाहिये ।आजकल ज्यादातर माता - पिता स्वाभिमानी हैं और अपने लायक उनके पास जमा - पूँजी भी है ।उन्हें सिर्फ इज़्ज़त और प्यार की जरूरत होती है ।वह चाहते हैं कि हम अपने बच्चों को भरपूर प्यार दें और उनसे भी यही उम्मीद करते हैं ।आजकल के माता - पिता सुलझी हुई प्रवृति के हैं ।उन्होंने बच्चों को उड़ने के लिये न केवल पर दिये हैं बल्कि स्वेच्छा से जीने का अधिकार भी दिया है ।यानी माता - पिता का बच्चों के जीवन में हस्तक्षेप न के बराबर है ।

परन्तु फिर भी न जाने क्यों कई बार कुछ किस्से ऐसे नज़र में आ जाते हैं, जिससे लगता है, जिन बच्चों को ऊँगली पकड़कर चलना सिखाया, वो आज माता - पिता पर हावी होना चाहते हैं ।उन्हीं की इच्छा से माता - पिता जिये, जैसे माता - पिता का अपना कोई अस्तित्व ही नहीं हैं ।

सुनिता का बेटा बड़ी कंपनी में सी ए था ।उसे अपने बेटे पर बड़ा गर्व था ।हर बात के साथ कहती कि मेरा सुनील तो बहुत ही सीधा और होनहार है ।सी ए है सी ए ।पहले अटेम्प्ट में ही सी ए बन गया था ।इतना इंटेलीजेंट है, और मज़ाल है मेरे से पूछे बगैर कोई काम करें ।फोन तो हर - रोज़ ही करता है,और जब भी फुर्सत मिलती है घर भागता है ।वहाँ तो उसका मन ही नहीं लगता पर नौकरी तो करनी ही है ।धरती इधर से उधर हो सकती है, परन्तु मेरा बेटा सुनील नहीं बदल सकता ।

ऐसे ही समय पँख लगाकर उड़ता चला गया ।सुनील होनहार तो था ही, परिवार भी प्रतिष्ठित था और रिश्तें भी कुलीन परिवारों से आने लगें ।घर में शहनाईयाँ बजी और सुनील और रिचा विवाह बंधन में बंध गये ।सुनील के माता - पिता दोनों ही अध्यापक थे, तो उन्होंने अपनी अहमियत से भी ज्यादा खर्चा करते हुए, हनीमून पर रिचा और सुनील को स्विट्ज़रलैंड भेजा ।दोनों ख़ुशी - ख़ुशी वहाँ से वापस आये और घर के सभी सदस्यों के लिये महँगे तोहफ़े भी लाये ।घर में खुशियों की बहार आ गयी ।लगता था स्वर्ग अगर है तो यहीं है ।सुनील के पिता रिटायर हो चुके थे ।सुनील की मम्मी के दो साल अभी रिटायरमेंट के बाकी थे ।सुनील उनका इकलौता बेटा था |  

तो उन्होंने सोचा क्यों न दो साल पहले रिटायरमेंट लेकर सुनील और रिचा के साथ रहा जाये ।वो दोनों नौकरी पर जायेंगे तो हम दोनों घर संभाल लेंगे ।बहू - बेटे की मदद भी हो जायेगी और हमें भी बेटे - बहू का प्यार मिल जायेगा ।तो सुनील के माता - पिता उनके पास रहने चले गये ।पंद्रह - बीस दिन तक तो सब - कुछ ठीक था, परन्तु धीरे - धीरे घर का माहौल बदलने लगा ।सुनील के माता - पिता को लगने लगा कि जैसे वो बिन - बुलाये मेहमान की तरह हैं ।रिचा बात - बात पर खीझनें लगी ।धीरे - धीरे सुनील भी उसका साथ देने लगा ।शुरू - शुरू में तो सुनील की मम्मी ने बेटी समझकर उसे समझाना चाहा, परन्तु ये क्या ! 

रिचा - "मैं कोई नासमझ बच्चीं नहीं हूँ, जो आप मुझें बच्चों की तरह समझाते रहते हो ।आखिरकार मैं भी पढ़ी - लिखी हूँ, सी - ए हूँ ।अगर अपनी सेवा का इतना ही शौक था, तो कोई अनपढ़ - गवार लाते, जो आपकी सेवा ही करती रहती।"पहले तो सुनील के माता - पिता ने सोचा नासमझ बच्चीं हैं, अगर मेरी बेटी ऐसा व्यवहार करेगी तो क्या हम उसे माफ़ नहीं करेंगे ? परन्तु बात बढ़ती ही चली गयी ।रिचा की मम्मी का भी रिचा के घर में दखल बढ़ता ही जा रहा था ।जैसे सुनील के माता - पिता का घर न होकर, रिचा की मम्मी का ज्यादा हक़ हो ।

सब - कुछ एक सीमा तक ही शोभा देता है, नहीं तो वह हलक में हड्डी बनकर अटक जाता है ।अब सुनील के माता - पिता का स्वाभिमान डोलने लगा ।उन्हें लगने लगा कि जिस सुनील को सी - ए बनानें के लिये, उन्होंने दिन - रात एक कर दिया था, वह अब बदल चुका था या यूँ कहें कि वह प्रैक्टिकल हो गया था ।हमारें लिये उसके घर और उसके दिल में कोई जगह नहीं ।उन्होंने अपना सामान समेटा और वापस अपने घर आ गये ।जहाँ उनका अपना अधिकार था, बिना किसी रोक - टोक के ।वह किसी पर बोझ नहीं थे ।

ये तो उन माता - पिता की स्थिति है, जो कमाते हैं ।जो माता - पिता अपने बच्चों पर ही आश्रित हैं, उनका भविष्य क्या होगा, तनिक विचार करें ।एक सीमा तक तो समझौता सभी कर लेते हैं, परन्तु जब स्वाभिमान को चोट लगती है, तो वह असहनीय हो जाता है ।माता - पिता की सेवा करना परमोधर्म है ।अपने चाम की जूती भी पहना दोगे, तो उनके अहसानों को उतार नहीं पाओगे ।बच्चों को यह समझना होगा कि जो आज इनके साथ हो रहा है, वो कल उनके साथ भी होगा ।

मैं भी एक बेटी की माँ हूँ ।हर लड़की को यह समझना चाहिये कि जब मैं अपने माता - पिता को भरपूर इज़्ज़त और प्यार दे सकती हूँ, तो लड़के के माता - पिता यानी सास - ससुर को क्यों नहीं ? 

"शकुन" नदी जब अपने गंतव्य पर बहने लगती है, तो उसके दो छोर हो जाते हैं और उसे उस मर्यादा में रहकर ही बहना पड़ता है, वर्ना बाढ़ आने का खतरा बना रहता है ।शादी के बाद लड़की के भी दो छोर होते हैं - मायका और ससुराल ।दोनों में सामजस्य बनाकर ही जीवन की नैया पार लगती है और समाज और परिवार में तभी पलक - पावड़े बिछाये जाते हैं |


- शकुंतला अग्रवाल, जयपुर

तीन रंगों का प्यारा तिरंगा

 ये है तीन रंगों का प्यारा तिरंगा

करे  नाम  ऊंचा  हमारा तिरंगा


हवा में उड़े  और चूमे गगन को

जहां में निराला व न्यारा तिरंगा


ये वीरों के तन पे लपेटा गया है

शहीदों  को ऐसे  सँवारा तिरंगा


बड़ी शान से गा रहा देश भारत

वँदेमातरम   ने  पुकारा  तिरंगा


मिला के चले ताल से ताल देखो

सलामी में सबने  निहारा तिरंगा


खुले आसमां में हमें रोज लगता

चमाचम चमकता सितारा तिरंगा


सभी के दिलो जान में शक्ति आती

छ्गन जोश भरता  करारा तिरंगा


छगनराज राव 'दीप'

जोधपुर

अपना जमाना चाहिए

  

आशियाना 


हर किसी को आशियाना चाहिए 

रात की खातिर ठिकाना चाहिए 


छूट जाती है परेशानी उस जगह  

चैन जहाँ पर हो तराना चाहिए 


जीव जो भी देखते यहाँ पर 

सो सके बस वो बहाना चाहिए 


चोंच से तिनके उठाती रात दिन 

खुद उसे अपना जमाना चाहिए 


पेड़ पानी और धरती पर बसे 

जी सके जो वो  दिवाना चाहिए 


काम करते हैं सभी तो रोज ही 

खुश रहे अपना खज़ाना चाहिए 


लोग सपने रोज देखते ही रहे 

घर किसी का तो बसाना चाहिए 


श्याम मठपाल ,उदयपुर

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