आचार्य मुनि श्री १०८ सुनीलसागर जी द्वारा रचित प्राकृत काव्य

अंकलीकर परम्परा के चतुर्थ पट्टाधीश आचार्य मुनि श्री १०८  सुनीलसागर जी द्वारा रचित प्राकृत काव्य 


.........."णीदि-संगहो" 


णिगोदे णिरए थीए, तिरिए वाण-विंतरे।


णीचट्ठाणे भमेदि णो, जीवो सम्मत्त-जोगदो।। ४६ ।।


भावार्थ - सम्यग्दर्शन से संयुक्त जीव निगोद, नरक ( प्रथम नरक बिना ), स्त्री-पर्याय, तिर्यंच, भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी देवों  तथा अन्य और भी नीच पर्यायों-निंद्यस्थलों में उत्पन्न नहीं होता है। इसके विपरीत मिथ्यात्व से जीव संसार के अनन्त दुख पाता है।


प्रस्तुति - सुमेर चन्द जैन प्राकृताचार्य


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