माटी के ये दीपक जो,
जन-जन को प्रेरणा देते हैं ।
भाँति उसी सारे जहान को,
तिमिर-मुक्त कर देते हैं ।।
हम भी माटी के हैं पुतले,
बन सकते दीपक जैसे ।
हो मन-आंगन-निर्मल-प्रज्ज्वलित,
रहें सदा बिलकुल वैसे ।।
प्यार भरे दो बोल मीठे,
यही चाहिये जीवन में ।
जैसे हँसता है गुलाब,
हरदम अपने गुलशन में ।।
हृदयोद्यान हो विशाल तो,
हैं खुशियाँ सबसे आली ।
जगमगाऐं घर-आंगन-उपवन,
तभी नाम है "दीपावली" ।।
प्रेम भावना हो अन्तर में,
भाईचारा नित हरदम ।
नफ़रत की दीवार ढहा कर,
रफ़ा-दफ़ा कर दें हर ग़म ।।
करें ग्रहण ऐसी ही हम सब,
दीपक से प्यारी शिक्षा ।
दीप जले मन-मन्दिर में नित,
मिले खुशहाली की भिक्षा ।।
बृजेन्द्र सिंह
कोटा (राजस्थान)
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