अंकलीकर परम्परा के चतुर्थ पट्टाधीश आचार्य मुनि श्री १०८ सुनीलसागर जी द्वारा रचित प्राकृत काव्य -
.........."णीदि-संगहो"
तच्चबोहो मणोरोहो, विरदी विसयादु हि।
अप्पसोही रदी सेट्ठे, तं णाणं जिणसासणो।। ४७ ।।
भावार्थ - वस्तुतः जिस ज्ञान से तत्वों का सम्यक बोध हो, मन का निरोध हो, कल्याण मार्ग में प्रीति हो, कषायों की उपशांतता से आत्मा में निर्मलता प्रकट हो और विषय भोगों से विरक्त हों उसे ही जिनेन्द्र भगवान के शासन में ज्ञान कहा गया है।
प्रस्तुति - सुमेर चन्द जैन प्राकृताचार्य
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