जो चाहो उजियार ...

© डा.रामशंकर भारती

             

             प्रकाश की चाहत तो हम सभी को है ...........

 रोशनी के झरनों में सभी अलमस्त हो अठखेलियाँ करना चाहते हैं......

 सभी को अपने - अपने घरों को जगमग करने के लिए भरपूर ज्योति चाहिए....लक्ष्मीजी को जो साधना है न !

 मगर कोई दीये की कंदील नहीं बनना चाहता ....

और न ही कोई उजालों का संवाहक बनकर अँधियारों को धकियाना ...ध्वस्त करना चाहता है....

तम - तिमिर -तोर की सत्ता से सभी डरते हैं.......

और बिना संघर्ष किए ही इस घटाटोप अँधकार के आतंक से मुक्ति भी प्राप्त करना चाहते हैं....

 जबकि हम सभी भलीभाँति जानते हैं कि बिना उपक्रम किए , बिना परिश्रम किए सफलता मिलना संभव ही नहीं है .....

हमें यदि रोशनी चाहिए अँधेरों से तो लड़ना ही होगा...

हमारा घर रोशनी से भी तभी जगमग होगा जब हम सृजनधर्मी बनेंगे। अपने पुरुषार्थ के दीये जलाएँगे......

 बाह्य चमक - दमक तो हम येन केन प्रकारेण प्राप्त भी सकते हैं .....

 किंतु अपने भीतर की कोठरी में मन की गहरी देहरी पर उजास भरने के लिए हमें सद् कर्मों के दीये जलाने ही होंगे...

 अपनी विकृतियों -विसंगतियों - वर्जनाओ को छारछार करना होगा ...

 तब कहीं हमारे अंतर्मन की भीतरी कोठरी में अजस्र उजास भरेगा ...

 यह भीतर का उजाला ही हमारे जीवन पथ को आलोकित करता है ...

संस्कारित करता है पल्लवित - पुष्पित करता है. सुगंधगंधी बनाता है... 

मानवधर्मी राष्ट्रीय जीवनमूल्यों से जोड़ता है...

सामाजिक सरोकारों से संपृक्त करता है....

.......पर्व - उत्सव हमारी संस्कृति के संवाहक हैं .......

उत्सवधर्मिता समाज का स्वभाविक लक्षण होता है......

जिसका धर्म केवल और केवल लोकमंगल है...........

लोकमंगल अर्थात् समाज के अंतिम कतार के अंतिम पायदान पर खड़े अंतिम मनुष्य की यथेष्ट चिंता करना .....

यही है 'सर्वेभवन्तु सुखिनः' का निहितार्थ....

यही है हमारे उत्सवों का अभीष्ट ....

............   दीपावली का दीपोत्सव तिमिर पर आलोक की विजय का अखण्ड शंखनाद है ......

 प्रकाश का तुमुलनाद है....

  धरती पर गहराए असत्य के ग्रहण को सत्य के उजास से पराजित करने का महापर्व है .....

 जब सत्य आता है तो असीम उजाला फैला जाता है....

 इस असीम उजास से जग जगरमगर हो उठता है....

.... माटी के दीये का उजास हमें सात्विकताओं से जोड़कर पूरी कायनात को बदलने की हिम्मत दे जाता है...

माटी से हमारा दैहिक ही नहीं आत्मिक संबंध भी है :... 

माटी ही हमें पालती-पोसती है .सबल और धवल बनाती है.

माटी का तन..माटी का मन ..माटी का क्षणभंगुर जीवन ....

माटी की सौंधी सुगंध से ही तो हम सुवासित हैं ....

हमारी सौंदर्यबोधी ललित कलाएँ माटी में से ही पनपकर समृद्धशालिनी होतीं हैं... ...

रूपवती होतीं हैं ....

रूपवती होतीं है....विश्वमोहिनी होतीं हैं.... 

      मुझे माटी के चितेरों के मटियामेट होने की चिंताएँ खाए जा रही हैं....  जब जल, जमीन , जंगल न होंगे तो कैसे मनुष्य बचेगा और कैसे कुंभकार बचेंगे....? 

  माटी के दीये कैसे बनाएंगे ....? 

 कैसे लक्ष्मीजी...गणेशजी की मूर्तियाँ बनेंगी...?

 कैसे दीपावली की ग्वालिन सजेगी ...? 

 दीप अवलि....दीपावली शब्द का संसार कैसे सार्थक होगा? दीयों की पंक्तियों कैसे बनेंगी...?

अब गांवों में , शहरों और कस्बों में कहीं भी जमीन नहीं बची है। 

  जहाँ से माटी के चितेरे मिट्टी लाकर अपने हुनर दिखा सकें...

 बाजार चमक - दमक वाली बिजली की झालरों से पटे पड़े हैं...

  स्वदेशी का नारा देनेवाले भी पेरिस ऑफ प्लास्टर की मूर्तियों से घर सजा रहे हैं....

 विदेशी साजोसामान की पौबारह है ... धूमधड़ाके हैं........

  .

       बेचारा गुंधारी  माटी के दीयों का ढेर लगाए चौराहे पर भिनसारे से उदास बैठा है.... 

काश! कोई आए और उनके यह कीमती दीये आधे - पौने दाम में ही खरीद ले जाए .......

अपार श्रम लगता है माटी खोदने में , माटी गोड़ने में , माटी को समसार करके विभिन्न बर्तनों व दीयों को आकार-प्रकार देने में...

तब कहीं कोई दीया आकार लेता है... 

जिसका कोई विकल्प नहीं हो सकता.... 

न बल्व न झालरें ...

देसी उद्योग - धंधे तभी बचेंगे जब हम भौतिकता की चकाचौंध को छोड़कर गाँव की हस्तशिल्प - हस्त कलाओं से बनी हुई सामग्री का भरपूर उपयोग करेंगे .....

       आज गाँवों और छोटे कस्बों के शिल्पकार अब अपने पुश्तैनी धंधों के बजाय बड़े शहरों में मजबूरी में मजदूरी कर रहे हैं और जो गाँव में बचे हैं वे भुखमरी के शिकार हैं। देश के मशीनीकरण ने छोटे - छोटे कामगारों के सामने मुसीबतें खड़ी कर दीं हैं। गाँव में ही बरगद व छौकरों के पत्तों से बनने वाले पत्तलें - दौने तथा माटी के डबला , डब्बू आदि दैनिक उपयोगी सामान के स्थान अब फाइबर के गिलाश , कटोरी , प्लेट , दौने , पत्तल आदि का प्रचलन हो गया है। माटी के बर्तनों से परहेज करना लोगों की आदतों में शुमार हो गया है। 

         कुल मिलाकर "माटी का मानुष " अपनी ही माटी से दूर होता जा रहा है। माँगलिक अवसरों पर मिट्टी व गोबर से लीपने - पोतने की परंपराएँ , आटे व गेरू से चौक पूरना , उरैन डारना आदि गृहकलाएँ अब आधुनिकता की भेंट चढ़ चुकीं हैं.... 

         लोकोत्सवों में गाए जानेवाले गीतों के स्थान पर .......

....."डीजे वाले बाबू जरा गाना बजा दे".....की  धूम है...।

        मैं यहाँ प्रगतिशीलता के विरोध में कुछ नहीं लिख रहा हूँ। प्रगतिवादी , प्रगतिगामी होने में कोई बुराई नहीं है... वशर्ते हम प्रगतिवादी होने के साथ ही प्रकृतिवादी भी बने रहें। जल -जमीन -जंगल से जुड़े रहें। नदी , तालाब , कुआँ पोखर , वट , पीपल , आम , नीम , बबूल , महुआ , आँवला आदि वन संपदाओं की चिंता करते रहें। स्वास्थ्य , शिक्षा , संस्कार , पर्यावरण के संवर्द्धन के लिए कुछ समय दें। स्वावलंबन , सामाजिक सरोकार और राष्ट्रीय जीवनमूल्यों से ओतप्रोत संस्कारों के प्रकल्पों को आधार देते हुए समाज के अभावग्रस्त लोगों , दिव्यांगों , वंचितों व मातृशक्ति का सम्मान करते हुए अपने संवैधानिक दायित्वों के प्रति यदि हम समर्पित होंगे....

 तो निश्चित ही अनिष्टकारी अँधेरा भागेगा। सुख का सूरज चमकेगा। उजास फैलेगा...बाहर भी और भीतर भी.....

  मेरी दृष्टि में तो...

  यही है महालक्ष्मी - गणेशजी की साधना

  यही है रामराज्य की अवधारणा ...

  यही है भगवान बुद्ध की विपश्यना.....

  यही है दीपावली की संकल्पना ....

 और..... यही है राष्ट्राधना......

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