बचपन से हो प्यार


सभी के मन में जिंदा नन्हे बच्चे को बाल दिवस पर सादर नमन।

       बच्चों जैसा मन हो सबका

नहीं रहे तकरार।

आओ बचपन की बात करें

बचपन से हो प्यार


भोलापन सबके मन में हो

चालाकी से दूर।

रहे सादगी का मुखड़े पर

मीठा-मीठा नूर।

मिलकर सबमें खुशियाँ बाँटें

रोज़ मने त्योहार

आओ बचपन की बात करें

बचपन से हो प्यार।


जाति-पाति का भेद भुलाकर

साथ रहें इंसान।

बच्चों-सा हो प्रेम मनुज में

करें सभी का मान।

भले मिली हो जीत खेल में

भले मिली हो हार।

आओ बचपन की बात करें

बचपन से हो प्यार।।


झूठे मन से रूठें सबसे

जल्दी जाएँ मान।

छोटी है जीवन की पारी

रहे हमेशा ध्यान।।

हमजोली किस्मत से मिलते

खुशियों के आधार।

आओ बचपन की बात करें

बचपन से हो प्यार।


गिरना-उठना आम बात है

लें हिम्मत से काम।

बच्चों से हम कुछ तो सीखें

हिम्मत से है नाम।।

हिम्मत से जय निश्चित होती

नहीं मानना हार।

आओ बचपन की बात करें

बचपन से हो प्यार।।

झूठ-फरेबी की दुनिया से

रहें हमेशा दूर।

बचपन जैसे दिन पाएँ सब

खुशियों से भरपूर।।

तेरा-मेरा भूल-भालकर

'शिशु'-सम सब स्वीकार।

आओ बचपन की बात करें

बचपन से हो प्यार।।

-शिशुपाल

विपरीत परिस्थितियों का भी धन्यवाद



सुबह  नल में पानी नहीं आ रहा था। शिखा ने मोटर  चलाई परंतु फिर भी पानी नहीं आया। नीचे जाकर देखा तो मेन पाइप लाइन टूट गई थी और पानी बाहर बह रहा था। अब क्या होना था होली के दिन पानी की घर में त्राहि-त्राहि मच गई। घर के सब सदस्य जाग चुके थे।
 मम्मी ने सुबह का नाश्ता कैसे न कैसे बनाया।  फिर पानी को टंकी में चढ़ाने के लिए जुगत बैठाने लगे पर होली के दिन कोई भी प्लंबर आने को राजी नहीं था।  भैया ने पड़ोसी की टंकी से पानी लेने का प्रयास किया परंतु वह उपाय भी नहीं बैठा  सीढ़ियों पर भैया भाभी भतीजा और मम्मी पापा बैठकर पानी को पहुंचाने के बारे में चर्चा करने लगे। जो लोग खाने की टेबल पर विचारो में मत भेद के कारण एक साथ नहीं बैठ पाते थे वह सभी एक विपरीत परिस्थिति में एक साथ हो गए।सभी   समस्या के समाधान पाने में लगे हुए थे। शिखा का मन ऐसी विपरित परिस्थितियों को भी  धन्यवाद कर रहा था।जिसमे नल के पाइप का टूटने ने पूरे घर को एक कर दिया था। पानी तो सब अलग-अलग कमरों में बने बाथरूम तक नहीं पहुंच पाया परंतु इस होली में पूरे घर को एक साथ एक समाधान तक पहुंचाने के लिए एक राह पर चला दिया था।


गरिमा खंडेलवाल 
उदयपुर राजस्थान

वक्त सीखा रहा है


एक सुकून है जो मुझे तबाह कर रहा है
तू मुझे कितनों से बेवफा कर रहा है।

कर रहा हूं मैं मुहब्बत हर पल जिससे
वो मुझसे कतरा कतरा छल कर रहा है।

कभी मैंने पाने की कोशिश न की तुझे
क्यों  दूर हो जाने के जतन कर रहा है।

मुझसे ज्यादा प्यार वो करते है मुझे
दूर हो कर क्यूं मेरी फिकर कर रहा है।

इश्क में रुलाया जिन्होंने हमें , मुहब्बत मुझे
उन्हीं से फिर करने को जी चाह रहा है ।

रहता हूं जब प्यार में बिना यार के साथ मैं
प्यार के साथ रहना प्यार से वक्त सीखा रहा है।

 

गरिमा खंडेलवाल

उदयपुर राजस्थान 

संचालनकर्ता की व्‍यथा

(संजय भट्ट)

सभी ने कहा कार्यक्रम बहुत अच्‍छा था, लेकिन वे उदास मन से घर लौट रहे थे। कार्यक्रम में संचालन करते हुए भी उनके मन में यही चल रहा था कि कार्यक्रम कब समाप्‍त हो और वे अपने घर को लौट जाए। वास्‍तविकता यह है कि वे इस कार्यक्रम को करना ही नहीं चाहते थे। वे ऐसे कार्यक्रम में शरीक ही होना नहीं च‍ाहते थे, लेकिन अचानक उनको पता चला कि कार्यक्रम का संचालन ही उनको करना है। मन व्‍यथित तो ही मन में कुछ ठीक भी नहीं लग रहा था। उनको लगा था कि चलो सब बेहतर हो जाएगा, लेकिन कार्यक्रम की समाप्ति तक उनका मन और अधिक उद्धेलित हो उठा।
कार्यक्रम में दो ही लोगों की भूमिका का महत्‍व होता है, एक आयोजक और दूसरा संचालनकर्ता आयोजक तो वे थे नहीं संचालन का भार भी अचानक उनको मिल गया। आयोजको को पूर्ण भरोसा था कि कार्यक्रम में जो भी होगा बहुत अच्‍छा होगा। उन्‍होंने ने भी इसके लिए बहुत कुछ इंतजाम किए थे, लेकिन होनी को कौन टाल सकता है। सभी की निगाह में कार्यक्रम भले ही अच्‍छा रहा हो लेकिन उनका मन नहीं मान रहा था। उनको लग रहा था कि कोई कमी रह गई है। इस कमी को वे पहचान ही नहीं पा रहे थे। कार्यक्रम के बीच से लेकर अंत तक और घर लौटते हुए भी वे इसी परेशानी से जुझ रहे थे कि जिस कार्यक्रम की सफलता की सभी बात कर रहे हैं, आखिर उसमें उनको क्‍या कमी लगी। कौन-सी कमी थी जो उनको अन्‍दर तक उनको उखाड़ रही थी। बार-बार मन में यही विचार आ रहा था कि अब कोई संचालन नहीं करना चाहिए। वैसे यह निर्णय तो वे कभी का ले चुके थे और किसी-न-किसी बहाने से कार्यक्रमों को टालते आ रहे थे, लेकिन इस मौके पर जब उनको अचानक कहा गया और कोई विकल्‍प भी नहीं दिख रहा था तो वे इस प्रस्‍ताव को टाल नहीं पाए। 
कार्यक्रम का संचालन करने वाला कितना भी अच्‍छा कर ले, कार्यक्रम की हर छोटी-बड़ी गलती का ठीकरा उसी के माथे पर फोड़ा जाता है। वैसे तो उनकी आदत थी कि जिस कार्यक्रम का संचालन करने की जिम्‍मेदारी मिले उसके आयोजको के साथ बैठ कर कार्यक्रम को समझना और उसकी रूपरेखा पर अपने खुले विचारों से उनको अवगत करवाना, लेकिन इस बार अचानक से जिम्‍मेदारी मिलने के कारण न तो मीटिंग हुई और न ही वे कुछ समझ पाए। फिर जहां सौ समझदार इकट्ठे होते हैं वहां सब अपनी राय देते हैं और मामला एक भी राय से अलग हुआ तो समझा बवाल हो जाता है। कोई संतुष्‍ट तो कोई रूष्‍ट हो जाता है। सबसे पहला विवाद तो यही होता है कि उसको मंच पर कैसे बिठा दिया। इसको नीचे क्‍यों रखा। स्‍वागत में इसका नाम ऊपर कैसे आ गया उसका नाम पीछे क्‍यों रह गया। इनको क्‍यों बोलने का मौका दिया, उनको क्‍यों नहीं दिया। यह कोई नहीं सोंचता है कि सैकड़ों की भीड़ में माईक थामे अप्रत्‍यक्ष संचालकों (पीछे से संचालक को कहने वाले), मंच तथा उसके सामने बैठी भीड़ को वह कैसे नियंत्रित कर रहा होता है, यह वह और उसकी आत्‍मा ही जानती है, लेकिन एक छोटी सी बात पर सारा दोष उसके माथे पर आ जाता है। 
कार्यक्रम सरकारी हो तो सब कुछ प्रोटोकॉल के मुताबिक तय होकर हो जाता है, लेकिन जब कार्यक्रम आत्‍मीय हो तो संचालक को काफी मशक्‍कत करना होती है। उसके मन की व्‍यथा को कोई नहीं समझता है। फिर सबका नजरिया एक जैसा हो जरूरी तो नहीं, सबका अपना ढंग होता है देखने का। कोई उसमें अपनी सफलता देखता है तो कोई कार्यक्रम की सफलता और कुछ ऐसे भी होते हैं, जिनको कार्यक्रम की कमियों का शौक होता है। कुछ इसलिए की इनकी तादाद ज्‍यादा नहीं होती, लेकिन इनके तर्क ऐसे होते हैं कि वह कमिया सभी को दिखाई देने लगती है। भले ही सब अच्‍छा कहते रहे, लेकिन उन दो चार व्‍यक्तियों के तर्कों से सभी सहमत हो जाते हैं। फिर भीड़ में सभी को संतुष्‍ट कर पाना अकेले संचालनकर्ता के बस के बात नहीं होती। किसी को तो असंतुष्‍ट करना ही पड़ता है। यह असंतुष्‍टी की उस संचालनकर्ता के लिए परेशानी का सबब हो जाती है। सभी लोगों के फोटो छपते हैं अखबार में, उनके भाषणों का भी उल्‍लेख भी होता है, लेकिन संचालनकर्ता को सिर्फ बात से संतुष्‍ट होना पड़ता है कि कार्यक्रम का संचालन फलां ने किया। अंत होने के कारण कई बार तो यह छप भी नहीं पाता है।

जिस कार्यक्रम से घर लौटे थे, उसमें उनका मन नहीं था, लेकिन आयोजकों का दबाव और व्‍यवहार में उनको जाना भी पड़ा। गए तो गए संचालन का टोकरा उनके माथे आन पड़ा। बेमन से किया हुआ काम सफलता की सीढि़यों पर चढ़ तो जाता है, लेकिन उस ऊंचाई से लुढ़कता है, जहां से उसका कुछ भी बाकी नहीं बचता। यही हाल उनका था। उन्‍होंने कार्यक्रम का संचालन किया, सभी को साधने का प्रयास किया, योजना मन ही मन थी कि किसको कितना महत्‍व देना है, कहां उसका उपयोग करना है, ले‍किन आयोजक हो और उसका स्‍वागत से नाम गायब हो जाए जो बुरा लगना स्‍वाभाविक है। चाहे उनके लिए संचालनकर्ता ने महत्‍व का काम देख रखा हो, स्‍वागत से ज्‍यादा सम्‍मान का मामला सोंच रखा हो। आयोजक को तो यही लगेगा कि उसने इतना सब किया और सारे स्‍वागत कर रहे हैं और उसका नाम अंत तक भी नहीं आया। अब ऐसा कार्यक्रम या तो बिगड़ता है या किसी को शिकायत हो जाती है। कई बार यह शिकायत सार्वजनिक रूप से प्रकट हो जाती है और कई बार यह संचालक को अकेले में झेलने पड़ती है। यहां इनके साथ दोनों हो गया था। मन उद्धेलित था, व्‍यथित था। सभी का सम्‍मान पाकर भी वे उदासमना घर लौटे थे कि उन्‍होंने अनचाहे ही सही एक को तो नाराज कर दिया। और नाराज हो भी क्‍यों नहीं सुबह से लगे थे और स्‍वागत से चंद घंटे के लिए आए माईक पकड़ने वाले ने उनका नाम ही गायब कर दिया।

लम्हों की किताब



लम्हों की किताब है ज़िदगी

जिसमें अंकित रहता

जीवन-भर का लेखा-जोखा

सुख-दुख, खुशी-ग़म, हानि-लाभ

ख्वाहिशों की एक लंबी फ़ेहरिस्त

ज़रूरतों की अंडरलाइन सूची

कुछ अधूरे सपने

फलित होने को प्रतीक्षारत

और दमित आकांक्षाएं

उद्वेलित करतीं अंतर्मन


आ! आत्मावलोकन कर

इनकी प्राथमिकता की सूची बनाएं

स्वयं को तनाव व अवसाद से बचाएं

जो मिला है, उसमें संतोष पाएं

जो नहीं मिला

उसे पाने का करें सार्थक प्रयास

ताकि चलता रहे खुशी से

ज़िंदगी का यह सिलसिला

डॉ• मुक्ता

कर्जदार


प्यार-दुलार-ज्ञान की गंगा,

ईश्वर-माता-पिता-गुरु ।

जिनके अद्भुत त्याग-प्रेम को,

कहो कहाँ से करूँ शुरू ।।

निधि अनूठी बड़ी ही अनुपम,

जिनका कोई मोल नहीं ।

तबाह यूँ ही हो जाये जीवन,

लेकिन इसका तोल नहीं ।।

जो भी किया समर्पण उसका,

मूल्य चुका न पाओगे ।

कितने भी लो जन्म भले ही,

मुक्त नहीं हो पाओगे ।।

कैसा भी हो धुला दूध का,

कितना भी होगा खुद्दार ।

ॠण चुका न पायेगा वो,

बना रहेगा कर्जदार ।।

 बृजेन्द्र सिंह झाला"पुखराज")

                कोटा (राजस्थान)

किसे आईने दिखाएं कैसे.

 

हमेशा की तरह आज फ़िर ज़माने का एक कड़वा सच लेकर आई है क़लम-ए-कमल..!


रिश्ते सारे ही शून्य हो चले हैं इन्हें जोड़े कैसे घटाएं कैसे..!

हर तरफ अंधों की बस्तियां ऐसे में किसे आईने दिखाएं कैसे..!


कोई अपनों के तो कोई सियासत के हाथों जख्म खाएं बैठा है..!

हर हाथ में नमक है कोई अपना जख्म किसे बतलाएं कैसे..!


छल के दलदल में पूरी ही तरह समाया हुआ है हर एक आदमी..!

गैरों ने कम अपनों ने ज्यादा छला गमो से कोई उबर जाएं कैसे..!


ज़माना ले आया है आज आदमी को देखो तो किस मोड़ पर..!

हर हाथ में तो खंजर है कोई ख़ुद को ज़माने से बचाएं कैसे..!


सुकून की तलाश में हैं हर कोई पर सुकून तो गुमशुदा सा है..!

तभी तो हर एक दिल बेचैन सा है कोई सुकून पाएं तो पाएं कैसे..!


कमल की क़लम से✒️

भगवान महावीर का गुरुनानक जी पर प्रभाव



प्रो अनेकांत कुमार जैन 


जैन श्रमण परंपरा के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव आदि योगी तथा इतिहास की दृष्टि से प्रागैतिहासिक माने जाते हैं । उनके अनंतर जैन श्रमण परम्परा में २३ और तीर्थंकर हुए जिन्होंने समय समय पर धर्म तीर्थ का प्रवर्तन किया तथा अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर का जन्म ईसा पूर्व ५९९ में वैशाली में हुआ था तथा ७२ वर्ष की आयु में ईसा पूर्व ५२७ में उनका निर्वाण पावापुर से हुआ । उनके बाद उनके मार्ग पर चलने वाली उनकी आचार्य परंपरा आज तक हजारों की संख्या में भारत भूमि पर अध्यात्म साधना तपस्या और संयम की धारा प्रवाहित कर रहे हैं ।

सिख धर्म के संस्थापक गुरुनानक देव जी का जन्म सन् १४६९ ई० में जिला शेखू पुरा ( वर्तमान का पश्चिमी पाकिस्तान ) में तलवंडी नामक गांव में हुआ था । यह स्थान आज ननकाना नाम से प्रसिद्ध है । डॉ हरिराम गुप्ता ने उनके जीवन काल को मुख्य रूप से तीन भागों में विभाजित किया है -

१.  १४६९- १४९६ ( २७ वर्ष ) - गृहस्थ / आत्मबोध  ज्ञान काल ।

२. १४९७-१५२१ ( २५ वर्ष )- पर्यटन और दूसरे धर्मों का अध्ययन ,(स्व विचार व्याख्या काल) ।

३. १५२२ - १५३९ (१८ वर्ष )- करतार पुर ,अवकाश काल ,सिक्ख धर्म की नींव  का काल 

डॉ गुप्ता यह मानते हैं कि सन् १५१० से १५१५ तक लगभग पांच वर्ष उन्होंने जैन तीर्थ स्थलों की यात्रा की थी । ऐसा प्रतीत होता है कि जैन तीर्थ यात्रा के दौरान गुरुनानक जी ने दिगंबर जैन मुनियों का बहुत सत्संग किया और उनसे बहुत प्रभावित हुए –


दइआ दिगम्बरु देह वीचारी। आपि मरे अवरा नहीं मारी ।।


गुरुनानक जी कहते हैं कि जिसमें दया है और दूसरे के शरीर का विचार है ,जो स्वयं मर जाये लेकिन दूसरों को मार नहीं सकते वे दिगंबर मुनि हैं । 


जैन दर्शन का प्रभाव भारत के संत साहित्य पर स्पष्ट दिखलाई देता है ।  यह उसी तरह है जैसा कि सूफीसाहित्य पर प्रभाव । डॉ रामेश्वर प्रसाद सिंह लिखते हैं कि जैन संत कवियों एवं उनके पूर्ववर्ती कुछ जैन आचार्यों ने हिंदी के संत काव्य को प्रेरित करने में प्रभूत योग दिया है। 


अहिंसा शाकाहार भगवान महावीर के सिद्धांतों का प्रधान स्वर था । उनके सभी आगमों  में अहिंसा ही मुख्य है । यद्यपि कई मान्यताएं ऐसी हैं जो गुरुनानक देव जी की मान्यताओं से मेल नहीं खाती हैं,फिर भी भगवान महावीर के अहिंसा जैसे सार्वभौमिक सिद्धांत के प्रभाव से कोई भी वंचित नहीं रहा । गुरुनानक देव ने भी अहिंसा और शांति की बात समाज और विश्व में शांति स्थापित करने के उद्देश्य से कही । यज्ञों में धर्म के नाम पर होने वाली बलि आदि हिंसा के निषेध की शुरुआत तीर्थंकर महावीर ने की थी, उसका स्वर नानक वाणी में भी सुनाई देता है –


     बगा  वमे  कपड़े तीरथ भक्ति वसन्हि ।

घुटि घुटि जीआ खावणे बगे ना कही अन्हि ।।


अर्थात् बगुलों के पंख सफेद होते हैं और वह तीर्थ स्थानों के जलाशयों में रहते हैं किंतु फिर भी घोंट घोंट कर उनकी मछलियों को ही खाते हैं । इन हिंसक वृत्तियों के कारण उन्हें निर्दोष नहीं कहा जा सकता।


 इसी प्रकार उन्होंने सात्विक भोजन शाकाहार पर भी बल दिया और मांस खाने का निषेध किया – 


जे रत लागे कपड़े, जामा होय पलीत ।जे रत पीवे मांसा, तिन क्यों निर्मल चीत ।।


अर्थात् जैसे रक्त लग जाने पर वस्त्र में दाग लग जाता है, वैसे ही रक्त युक्त मांस खाने से मन मैला हो जाता है, इसलिए मांस ग्रहण करना दोषपूर्ण है ।


नानक ता काऊ मिले बडाई ।आयु पछानै सरब जीआ ।।

नानक नाम चढ़दी कला ।तेरे भाणे सवर्त का भला ।।*


हे नानक ! ऊंचा पद उन्हें ही मिलता है जो सब जीवो में अपने मन का अनुभव करता है । वे कहते हैं कि जो सबकी भलाई करे वो ही महान है और यह बिना अहिंसा भावना के संभव नहीं है । 

अहिंसा का अभिन्न अंग है ‘क्षमा’ | जैन धर्म में क्षमा पर्व भी मनाया जाता है |


 गुरुनानक देव कहते हैं कि क्षमा रूपी धन संग्रह करने वाला बकवास नहीं करता | वह तमोगुण को जला डालता है | ऐसा गृहस्थ योगी या सन्यासी धन्य है-


बकै ना बोलै खिमा धनु संग्रहै तामसु नामि जलाए |

धनु गिरही सनिआसी जोगी, जि हरि चरणी चितु लाए ||


वे कहते हैं क्षमा व्रत ग्रहण करने वाला समस्त दोषों से तथा रोगों से मुक्त हो जाता है –

खिमा गही व्रतुसील संतोखं|रोगु ण बिआपै न जम दोखं ||*

 

भगवान महावीर अपरिग्रह पर बहुत बल देते थे | यह सिद्धांत उनके प्रमुख सिद्धांतों में से एक है | अपरिग्रह धर्म का प्रभाव गुरुनानक जी पर बहुत हुआ | गुरुनानक जी कहते हैं-

                                       ‘संपऊ संचयी भये विकार’

 

अर्थात् धन इकट्ठा करने से मन में विकार घर कर लेता है ,इसलिए वह भगवान महावीर की दया और दान से प्रभावित होकर कहते हैं –

                             दया जाने जीव की किछ पुन्न दान करेइ


अर्थात् सच्चा मनुष्य वह है जो दूसरों के दुख देखकर उन पर दया करता है और कुछ दान पुण्य करता है |


भगवान महावीर का एक बहुत बड़ा संदेश था कि सभी आत्माएं समान हैं कोई छोटा या बड़ा नहीं है | गुरु नानक कहते हैं कि उसी मनुष्य का जीवन सफल है जो सभी जीवो में अपना ही रूप देखता है | यह वास्तव में अहिंसा के सिद्धांत की बहुत बड़ी आधारशिला है –

जीवतु मरै ता सब कछु सूझे ,अंतरि जानें सर्व दइया |

नानक ता कऊ मिले बडाई आपु पछाणे सर्व जिया ||


महावीर कहते थे कि मनुष्य अपने अच्छे कर्म से महान बनता है न कि जाति या वर्ण से |

गुरुनानक जी भी किसी को भी ऊंचा या नीचा नहीं मानते –

नानक उत्तम नीचु न कोई |

इस प्रकार हम देखते हैं कि भगवान् महावीर ने स्वपर कल्याण की जो आध्यात्मिक गंगा प्रवाहित की कालांतर में उसमें स्नान करने वाले गुरुनानक देव जी भी भारत के एक महान संत थे जिन्होंने सिक्ख धर्म का प्रवर्तन कर अनेक लोगों को अच्छाई के मार्ग पर लगाया |

आचार्य पण्डित पृथ्वीनाथ पाण्डेय की पाठशाला


अधोटंकित वाक्यों मे से कौन-सा वाक्य शुद्ध है?

१- अन्विता घर से अस्पताल वापस लौट आयी है।

२- अन्विता अस्पताल से वापस घर लौट आयी है।

३- अस्पताल से घर अन्विता वापस आयी है।

४- अन्विता लौट आयी है घर से अस्पताल वापस।

५- घर और अस्पताल से अन्विता लौट आयी  है।

सकारण शुद्ध उत्तर--

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   अब हम उपर्युक्त ('उपरोक्त' अशुद्ध है।) पाँचों वाक्यों पर विचार करते हैं :--

   'पहला वाक्य' इसलिए अशुद्ध है कि यहाँ पर दो प्रकार की अशुद्धियाँ हैं :-- पहली, 'वापस' और 'लौटना' का एक ही अर्थ है, इसलिए यहाँ 'पुनरुक्ति-दोष' (फिर से कहा गया; पुनरावृत्ति) है और दूसरी, 'शब्द-ज्ञान' से सम्बन्धित दोष है; क्योंकि 'अन्विता घर से 'अस्पताल' गयी है तो वहाँ से 'घर' ही लौटेगी। जब भी कोई 'प्रस्थान-बिन्दु' से गन्तव्य के लिए बढ़ता है और वहाँ पहुँचने के बाद पुन: 'प्रस्थान-बिन्दु' पर आ जाता है तब उसे 'प्रत्यागमन' (वापसी, लौटना, लौटाई) कहते हैं। इस दृष्टि से हम प्रथम वाक्य को शुद्ध नहीं कहेंगे।

   अब 'दूसरे वाक्य' को देखें---

     इसमे केवल 'पुनरुक्ति-दोष' है। इस वाक्य को बहुसंख्य विद्यार्थी, अध्यापिका-अध्यापक, साहित्यकार, समीक्षक, मीडियाकर्मी तथा सामान्यजन शुद्ध मानते आ रहे हैं और आयेदिन वा आये-दिन ('आयेदिन' वा 'आये-दिन' को इस तरह इसलिए लिखा जाता है कि दोनो ही शब्द 'प्राय:, 'अक्सर' तथा 'नित्य' के अर्थ मे एक साथ ही प्रयुक्त होते हैं: जैसे-- प्रतिदिन/प्रति-दिन, प्रतिवर्ष/प्रति-वर्ष इत्यादिक। यहाँ प्रयुक्त (-) यह चिह्न 'योजक' है, जो 'प्रति' के साथ सदैव प्रयुक्त होनेवाले शब्दों को जोड़ता आ रहा है। जैसे ही हमने 'प्रति दिन', 'प्रति वर्ष' को अलग-अलग लिखा, निहितार्थ नष्ट हो गया।) इसका व्यवहार करते हैं। इस वाक्य मे एक साथ 'वापस' और 'लौटा' का प्रयोग 'पुनरुक्ति-दोष' है।

   'तीसरे वाक्य' को समझें--

   इसमे 'वाक्यविन्यास-दोष' (वाक्य-गठन) है; क्योंकि हिन्दी-व्याकरण के अनुसार, किसी भी वाक्य का गठन करते समय सबसे पहले 'कर्त्ता' का प्रयोग किया जाता है, तदनन्तर ('तद्नन्तर', 'तदन्तर' अशुद्ध हैं।) 'कर्म' का, फिर 'पूरक शब्दों' का तथा अन्त मे 'क्रिया' का। इस वाक्य मे यह शब्दानुशासन नहीं दिख रहा है, इसलिए यह भी अशुद्ध वाक्य है।

   'चौथे वाक्य' को समझें--

       इसमे 'वाक्य-विन्यास' की अशुद्धि है; साथ ही 'पुनरुक्ति-दोष' ('लौटना' और 'वापसी' का एक साथ प्रयोग) लक्षित हो रहा है, इसलिए यह वाक्य शुद्ध नहीं है।

   और अन्त मे, 'पाँचवें' वाक्य को देखें--

    इसका 'वाक्य-विन्यास' संतुलित नहीं है। 'अन्विता' को 'घर' लौटना है; परन्तु एक साथ 'घर' और 'अस्पताल' से 'लौटना' उपयुक्त प्रतीत नहीं होता, इसलिए यह वाक्य भी अशुद्ध है।

     हमने यहाँ समझा कि पाँचों वाक्य अशुद्ध हैं।

अब प्रश्न है-- उपर्युक्त प्रश्न का उत्तर क्या है?

उत्तर-- कोई नहीं। (यहाँ 'नहीं' के आगे पूर्ण विरामचिह्न का प्रयोग इसलिए होगा कि उत्तर 'कोई नहीं' पूर्ण वाक्य का बोध कराता है।)

   ऐसे मे, जिज्ञासा उत्पन्न होती है-- फिर इस वाक्य का शुद्ध उत्तर क्या है?

   जिज्ञासा का प्रशमन इस रूप मे होता है।

 ■  शुद्ध उत्तर है :--

अन्विता अस्पताल से घर वापस आयी है।

(अथवा)

अन्विता अस्पताल से घर लौट आयी है।

● अशुद्ध वाक्य को शुद्ध करते समय 'व्याकरणात्मक' और 'तथ्यात्मक' दोष के प्रति ही ध्यान केन्द्रित करना चाहिए; 'अतिरिक्त बुद्धिवाद' का परिचय प्रस्तुत नहीं करना चाहिए।

◆ 'आचार्य पण्डित पृथ्वीनाथ पाण्डेय की पाठशाला' नामक प्रकाशनाधीन कृति से सकृतज्ञता गृहीत।)


चुनाव ड्यूटी"* (व्यंग्य)

 चुनाव ड्यूटी"*       (व्यंग्य) 


ड्यूटी लगाने वाले क्या.

तेरे मन में समाई . 

तूने काहे को ड्यूटी लगाई .

काहे बनाये ये चुनाव के नियम.

नौकरी है प्यारी-प्यारी .

आराम की कुर्सी.

काहे को ड्यूटी लगाई.

तुने अफसर काहे को ड्यूटी लगाई.

जिसने लगाई यह ड्यूटी निगोडी.

वह भी तो तरसा होगा कभी.

आराम को .

अब ड्यूटी लगाकर गुपचुप.

 देखे तमाशा.

वाह रे अफसर हरजाई.

तूने काहे को ड्यूटी लगाई.

तूने भी तो कभी ड्यूटी करके.

छुट्टी का मन में .

अरमां छुपा कर . 

गाली भी दी होगी अफसरों को.

 कोई छवि तेरी होगी .

आंखों में तेरे . 

आंसू भी छलके होंगे ड्यूटी पर जाकर . 

बोल क्या सूझी तुझको.

काहे को ड्यूटी लगाई.

तुने काहे को ड्यूटी लगाई."

धन्यवाद

श्रीमती राजकुमारी वी. अग्रवाल

शुजालपुर मंडी ( म. प्र.)

शादी ( हास्य व्यंग्य )

 शादी ( हास्य व्यंग्य )


शादी में हो रहे,भांति भांति के सपने साकार।

अरैंज, लव मैरिज और अरजेंट जैसे प्रकार  ।।

अरजेंट जैसे प्रकार, गंधर्व विवाह भी रचाते। 

आजकल लिव इन रिलेशन में ही घर बसाते।।

कहें कुंवारे ये स्वर्ग है शादी-शुदा कहें बर्बादी। 

अकेला जीना है मुश्किल,करनी पडती शादी ।।


देखो शादी में बजे , शहनाई नगाड़े ढोल।

सात फेरे खा रहे , सात वचन मिल बोल।।

सात वचन मिल बोल,साथ जीवन निभाते।

देकर साथ एक दूजे को , दिल में बसाते ।।

कह संजय देवेश,  प्रेम खूशबू में महको ।

आनन्द से कटेगा जीवन,बस यह देखो ।

अगले जन्म में मुझे बनना,शादी की घोड़ी। 

गधे को खुद पर बिठा,खुश होऊंगी निगोड़ी।।

खुश होऊंगी निगोड़ी,देखूं दूल्हे के हालात।

जीवन भर पछतायेगा,निकाल यह बारात।।

कह शादी की घोड़ी,अच्छे भले बनते पगले।

कर बैठे वो रोंयें और रोने को तैयार अगले।।

        

       ---- संजय गुप्ता देवेश

संतशिरोमणि आचार्य श्री 108 विद्यासागर जी महामुनिराज के स्वर्णिम आचार्य पदारोहण दिवस

 परम श्रधेय, युगवेता,युगपुरुष, अन्तर्यात्री महापुरुष संतशिरोमणि आचार्य श्री 108 विद्यासागर जी महामुनिराज के स्वर्णिम आचार्य पदारोहण दिवस के उपलक्ष्य में मार्ग शीर्ष कृष्ण 2 दिनाँक 10 नवम्बर 2022 को राष्ट्रीय दिगम्बर जैन महिला महासमिति द्वारा सम्पूर्ण भारतवर्ष के दिगम्बर जैन समाज से आव्हान करती है कि आप सभी अपने-अपने जिनालयों या किसी विशेष स्थान पर रात्रि 8 बजे आचार्य भगवन की तस्वीर के सामने सामूहिक महाआरती करें।

जिस स्थान पर महाआरती की जाएगी उस स्थान पर एक बैनर लगाए व एक बड़ी घड़ी भी लगाए जिसमे आरती का समय दिखाई दे साथ ही महाआरती करते समय सभी साधर्मी बंधुओं के हाथ मे दीपक हो।

आचार्य श्री के स्वर्णिम आचार्य पदारोहण दिवस पर महाआरती आयोजन से हम सब मिलकर एक वर्ड रिकॉर्ड कायम करे जिससे आचार्य भगवन के 50वें आचार्य पदारोहण दिवस को हम सभी बड़े हर्षोल्लास के साथ मना सकें व आचार्य पदारोहण दिवस की प्रभावना कर सकें।

कार्यक्रम के पश्चात समाज बंधुओ से ये भी निवेदन है कि इस कार्यक्रम की आप अपने-अपने क्षेत्र में समाचार पत्रिकाओं से व वीडियो से कार्यक्रम का प्रचार-प्रसार करें व उन सभी वीडियो को एवं समाचार पत्र की ख़बरों को हमारे दिए हुए नम्बर पर भेजें।


निवेदक

मुख्य परामर्शक

श्रीमति सुशीला जी पाटनी

  

मुख्य समन्वयक व राष्ट्रीय अध्यक्षा

श्रीमति शीला डोडिया

 919358777904

संयोजक

अजय जैन मोहनबाड़ी

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नोट:- कृपया आप सभी संयोजक "अजय जैन मोहनबाड़ी" को महाआरती के वीडियो व समाचार पत्रिकाओं की खबरे व्हाट्सएप्प करें।

शादी


शादी बंधन पवित्र है , कहते वेद पुराण। 

जीवन भर का संग है , बसते दोनों प्राण।। 

बसते दोनों प्राण , चले है जीवन इनका। 

माने सभी विधान ,करे हैं पालन जिनका ।। 

चले सही परिवार , नहीं हो कोई वादी। 

कैसी फिर तकरार , तभी तो होती शादी।। 


देखा पहले वर को , देखें उसका काम। 

चाल चलन को देख कर , पूछें उसका नाम।। 

पूछें उसका नाम , आय है कितनी बोलो। 

कैसा  है आवास , वहां के साधन तोलो।। 

पैसा है बलवान , कौन सी देखें रेखा। 

करले अब पहचान , समय को बदले देखा।। 


लड़की को देखन चले , लगे बहुत गुणवान। 

नाक नक्श से हो भली , लगती चाँद समान।। 

लगती चाँद समान , बोल हों मीठे उसके। 

सबको दे सम्मान ,भले हों चर्चे जिसके।। 

करे सभी वो काम ,देख लो उसकी खिड़की। 

चाल ढाल हों नेक ,ढूंढते वैसे लड़की ।। 


लेकर पाती हाथ में , पंडित करें विचार। 

गुण तो थोड़े देखिये ,कैसे हैं आसार।। 

कैसे हैं आसार , मिले हैं गुण अब कितने। 

नाड़ी मंगल देख , भले क्या सारे अपने।। 

रिश्ता लागे नेक , मिला लो पैसे देकर। 

कैसी मिलती देख , चले हैं पैसे लेकर।।  


लड़का लड़की देख कर , करते कुछ अब बात। 

जीवन साथी कौन हों , देख धरम औ जात।। 

देख धरम औ जात , बनाते सुन्दर जोड़ी। 

शादी की है बात , सजेगी अब तो घोड़ी।। 

कहे श्याम अब आज , किसी का दिल है धड़का। 

सजी हुई है सेज , नाचते लड़की लड़का।। 


श्याम मठपाल ,उदयपुर

एक दिव्य कॉमेडी।


है पड़ता दिखाई,

वह है जो, अदृश्य सा,

पर है दिखता, हर रोज।

ना चीज सी,

हवा में हिलती,

टहनी से गुंथा, है जन्मा।

है नहीं,

यहां कोई चूक,

भले है रेशा पतला।

पतलापन है कतई,

यहां महत्वपूर्ण नहीं।

है बुनी,

जिसने भी इस संरचना की सोच,

है वह,

जागरण की उच्चतम, आत्मा।

हैं जानते आप ?

निहार फूल को प्रश्न एक उपजा,

थे कहां तुम जन्म से पूर्व ?

उत्तर में झट से मन ने कहा "मैं रेशे की बुनावट में, एक कड़ी सा बना, तना खड़ा था।"

देखना फूल को।

तोड़ना नहीं,

केवल छूना,

उसमें छुपे संकेतों को।

है देवत्व सा मजाक,

लिए पतले रेशों की भूलभूलैया। 

एक पूर्ण संसार शायद,

रूप में लघु,

है यह समझ, शांत और खामोशी की।


हो एकाग्र, निहार,

फूल ने

है समझ का पर्दा उठाया।

देख! उठा आंखों पर तहों में पड़ा पर्दा,

होना इस गुलाब की पंखुड़ी के साथ एक,

एकाकार,

ही है परमात्मा।

मुझे रहे दिखता पुष्प,

परमात्मा चाहे न दिखे।

है यह मेरे लिए,

एक दिव्य कॉमेडी !

रामा तक्षक 

हरियाणा दिवस पर विशेष. ... सुनो मेरा हरियाणा

 

यहां सादा ताना बाना।

जहां दुध दही का खाना।

यहां हुआ हरि का आना।

ऋषि मुनियों का  ठिकाना ।

कुरुक्षेत्र में जब हुई लड़ाई।्

सारी गीता , दी समझाई।(1)

 हे मेरे प्रदेश हरियाणा!

आगे  ही बढ़ते जाना ।

खेल कूद में अव्वल आना।

और जीत के पदक है लाना।

यह गौरवमय हरियाणा।

अब नम्बर एक पर आना।(2)

मेहनत करते,कभी ना डरते।

 अब नई सोच से आगे बढ़ते ।

पढ़ लिख कर , नवाचार है पाया।

 उन्नत खेती, पशुपालन  भाया।

आय बढ़ाकर,मान बढ़ाया।

सारे देश में पंचम लहराया।(3)

एक नवंबर शुभ दिन आए।

हरियाणा में खुशी बरसाए।

आओ मिलकर गुनगुनाएं।

 इस प्रदेश की गाथाएं।

सेना के प्रति,निष्ठावान।

देश धर्म पर हो कुर्बान।(4)

       कृष्ण लाल 'गिरधर 


( लघु कथा)अच्छा है कि मैं बेवकूफ हूँ


अभी कल की ही बात है, जैसे मैं आफिस पहुँचा साहब का चपरासी आ गया और बोला साहब बुला रहे हैं. बुरा तो बहुत लगा, मन ही मन मैंने बास को दस बीस गालियाँ दे दिया क्योंकि यह मेरे चाय पीने का समय था , लेकिन जाना तो पड़ा ही. जाने के पहले मैंने अपना  चेहरा एक दुखी और गरीब इंसान के तरह बनाया और चेम्बर में " मे आई कमिंग सर" कह कर घुस गया. बास ने बिना मेरी तरफ देखे कहा तुम्हें कोई भी काम ठीक से करने नहीं आता, पता नहीं तुम्हें कब अक्ल आयेगा और एक फाईल मेरे तरफ फेंक कर कहा गेट आउट. 

मेरे समझ में नहीं आ रहा रहा था कि बास ने मुझे डांटने के लिए बुलाया था या फाईल देने के लिए. दूसरी बात अगर उनको यह समझ में नहीं आ रहा था कि मुझे कब अक्ल आयेगा तो इसमें मेरा क्या दोष है? वह मेरे बास हैं, उन्हें तो अपने स्टाफ़ के बारे में इतना जानकारी तो होना ही चाहिए.

वैसे मैं बता दूँ कि मेरे पास अक्ल की कोई कमी नहीं है, अपना सारा काम मैं ठीक से और समय से करता हूँ. समय से आफिस आता हूँ, समय से घर जाता हूँ, समय से खाना खाता हूँ, समय से सोता हूँ, समय से उठता हूँ , अपनी पत्नी के साथ साथ बच्चों को भी खुश रखता हूं. आफिस के बाहर और परिवार में किसी को भी मुझसे कोई शिकायत नहीं है, लेकिन पता नहीं क्यों आफिस में ही मेरे हर बास को लगता है कि मेरे पास अभी तक अक्ल नहीं आया है और अक्ल कब तक मेरे पास पहुंचेगा, यह हमारे किसी बास को पता नहीं. अब अक्ल का कोई पता या ठिकाना तो है  नहीं कि वहाँ जा कर मैं पूछ लूं कि अक्ल महोदय आप मेरे बास के पास कब तक पहुंचोगे  ! लेकिन फिर मैंने सोचा कि यह समस्या मेरे बास की है, मैं क्यों इतना चिंता कर रहा हूँ. बास अपना काम करें, मैं अपना काम करता हूँ. मैं कैंटीन में चला गया, आराम से अदरक का चाय पिया और अपने डेस्क पर आ गया.

फिर मैंने वह फाईल, जिसको मेरे बास ने मुझे देकर कहा था गेट आउट, खोल कर देखने लगा कि मैंने क्या गलती कर दिया है कि बास इतने नाराज हो गये. देखा  वह फाईल तो मेरा था ही नहीं. फाईल तो त्रिपाठी का था! अब मेरे समझ में नहीं आ रहा था कि अक्ल मेरे पास नहीं है या ? बास को कुछ कह नहीं सकता था क्योंकि उसके लिए फिर उनके चेम्बर में जाना पड़ता, तब शायद फिर उनसे डांट खाना पड़ता. मैंने चुप चाप फाईल त्रिपाठी को दे दिया. त्रिपाठी ने भी कुछ नहीं पूछा कि यह फाईल बास ने आपको क्यों दिया और मेरे पास तो खैर कुछ बताने के लिए था ही नहीं.

खैर साहब जिन्दगी अभी तक तो आराम से कट ही रहा है. तन्ख्वाह भी समय से मिल जाता है. पदोन्नति भी देर सबेर हो ही जाता है. लेकिन रोज एक दो बार अपने बास से सुनना ही पड़ता है कि पता नहीं तुम्हें कब अक्ल आयेगा. यार मैंने एम एस सी ( मैथ) से किया है, अखिल भारतीय प्रतियोगिता में मेरिट में आया था, अभी तक मेरे काम में किसी बास ने कोई कमी नहीं बताया, फिर भी हर बास को लगता है कि मेरे पास अक्ल नहीं है और अक्ल कब मेरे पास आयेगा यह भी उन्हें नहीं पता. 

एक दिन मैंने  अपने घनिष्ट मित्र राव से इस सम्बन्ध में  बात किया. मेरी समस्या सुन कर राव साहब बहुत ही गम्भीर हो गये. वैसे भी राव साहब एक  गम्भीर किस्म के आदमी हैं. मैंने कहा भाई मैं क्या करुं कि बास यह पूछना बन्द कर दें कि मुझे कब अक्ल आयेगा. राव साहब बोले देखो भाई थोड़ी बहुत यही समस्या मेरे साथ भी है लेकिन मुझे अपना ही कोई समाधान नहीं मिला तो आपकी क्या सहायता कर सकता हूँ. लेकिन मैं तुम्हें एक सलाह दूंगा कि इस तरह की समस्याओं का जिक्र किसी से भी मत करो. क्योंकि अभी तक जो लोग तुम्हें बुद्धिमान समझते हैं वे भी तुम्हारे बारे में शंका करने लगेंगे. मैं तो चौंक गया! राव साहब ने तो बहुत ही महत्वपूर्ण बात कहा. मेरे पास अक्ल नहीं है यह तो केवल मेरा बास ही जानता है या मैं, और कोई नहीं, तो फिर मैं बिना मतलब सबसे क्यों कहता फिरूं. मैंने राव साहब को धन्यवाद दिया.

लेकिन राव साहब ने कहा कि निराश होने की कोई जरूरत नहीं है, आप अपनी पत्नी से बात करो, वह आपकी अर्धांगिनी है, इस समस्या का कोई न कोई समाधान वह अवश्य निकालेगी और इसमें कोई खतरा भी नहीं है. मैंने कहा राव साहब यार आप तो बहुत ही बुद्धिमान आदमी हो. आपको तो किसी बड़े़ कम्पनी में सलाहकार होना चाहिए. राव साहब ने एक गहरी सांस लिया और बोला, क्या करोगे  दोस्त इस देश में प्रतिभा को समुचित  सम्मान कहाँ मिलता है! इसीलिए न आजकल नवजवान देश से  बाहर जा रहे हैं, देश से प्रतिभाओं का पलायन हो रहा है. मैंने कहा आप बिल्कुल सही कह रहे हैं.

खैर साहब रात में आफिस से घर पहुंचा . रात में खाना खाने के बाद मैंने एकांत में पत्नी से अपने आफिस की  समस्या बतायी और पूछा यार कोई समाधान बताओ. पत्नी ने कहा इस तरह की बातों को दिल पर क्यों लेते हो ,यह तुम्हारे बास की समस्या है उन्हें सोचने दो. मैंने कहा तुम बात टाल रही हो.

बोली सही बात बताऊँ, लेकिन तुम बुरा तो नहीं मानोगे. मैंने कहा यार पहली बात तो यह है कि मैं बुरा मान कर भी तुम्हारा क्या कर लूंगा, दूसरी बात जब मैं ही पूछ रहा हूँ, तो अच्छा हो या खराब, बुरा क्यों लगेगा. पत्नी बोली नहीं तुम्हारा कोई ठिकाना नहीं, मेरी कसम खाओ तब बताऊंगी. मैंने कहा तुम्हारी कसम मेरी जान मैं बिल्कुल बुरा नहीं मानूँगा. पत्नी बोली देखो तुम सही में बहुत बुद्धिमान आदमी हो लेकिन शक्ल से एकदम बेवकूफ लगते हो. मैंने कहा यार यह बात  हमारी शादी के पच्चीस साल बाद तुम्हें पता लगा या पहले से ही पता है. उसने कहा ईमानदारी से कहतीं हूँ, तुम्हें जब पहली बार देखा तभी समझ गयी थी कि तुम एकदम  बेवकूफ आदमी हो. मैंने कहा फिर मुझसे शादी क्यों किया. पत्नी बोली अरे मेरे भोले पति इतना भी नहीं जानते हो, हर लड़की बेवकूफ पति ही खोजती है. मैंने कहा यार तुमने कभी यह बात बताया नहीं. पत्नी बोली  देखो औरतें अपने  बेवकूफ पति को कभी भी सीधे तौर पर बेवकूफ नहीं कहतीं, वे उन्हें मिट्टी का माधव कहतीं हैं. मै तुम्हें अक्सर  मेरे  मिट्टी का माधव कहतीं हूँ कि नहीं! बोलो! 

अब मेरे लिए बोलने के लिए बचा ही क्या था! लेकिन मैंने स्वयं को सम्भाला और कहा यार चलो बेवकूफ ही सही, इसी बहाने  मुझे तुम्हारी जैसी सुन्दर सुशील पत्नी तो मिल गयी. 

( ----- ओमप्रकाश पाण्डेय) 


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