संचालनकर्ता की व्‍यथा

(संजय भट्ट)

सभी ने कहा कार्यक्रम बहुत अच्‍छा था, लेकिन वे उदास मन से घर लौट रहे थे। कार्यक्रम में संचालन करते हुए भी उनके मन में यही चल रहा था कि कार्यक्रम कब समाप्‍त हो और वे अपने घर को लौट जाए। वास्‍तविकता यह है कि वे इस कार्यक्रम को करना ही नहीं चाहते थे। वे ऐसे कार्यक्रम में शरीक ही होना नहीं च‍ाहते थे, लेकिन अचानक उनको पता चला कि कार्यक्रम का संचालन ही उनको करना है। मन व्‍यथित तो ही मन में कुछ ठीक भी नहीं लग रहा था। उनको लगा था कि चलो सब बेहतर हो जाएगा, लेकिन कार्यक्रम की समाप्ति तक उनका मन और अधिक उद्धेलित हो उठा।
कार्यक्रम में दो ही लोगों की भूमिका का महत्‍व होता है, एक आयोजक और दूसरा संचालनकर्ता आयोजक तो वे थे नहीं संचालन का भार भी अचानक उनको मिल गया। आयोजको को पूर्ण भरोसा था कि कार्यक्रम में जो भी होगा बहुत अच्‍छा होगा। उन्‍होंने ने भी इसके लिए बहुत कुछ इंतजाम किए थे, लेकिन होनी को कौन टाल सकता है। सभी की निगाह में कार्यक्रम भले ही अच्‍छा रहा हो लेकिन उनका मन नहीं मान रहा था। उनको लग रहा था कि कोई कमी रह गई है। इस कमी को वे पहचान ही नहीं पा रहे थे। कार्यक्रम के बीच से लेकर अंत तक और घर लौटते हुए भी वे इसी परेशानी से जुझ रहे थे कि जिस कार्यक्रम की सफलता की सभी बात कर रहे हैं, आखिर उसमें उनको क्‍या कमी लगी। कौन-सी कमी थी जो उनको अन्‍दर तक उनको उखाड़ रही थी। बार-बार मन में यही विचार आ रहा था कि अब कोई संचालन नहीं करना चाहिए। वैसे यह निर्णय तो वे कभी का ले चुके थे और किसी-न-किसी बहाने से कार्यक्रमों को टालते आ रहे थे, लेकिन इस मौके पर जब उनको अचानक कहा गया और कोई विकल्‍प भी नहीं दिख रहा था तो वे इस प्रस्‍ताव को टाल नहीं पाए। 
कार्यक्रम का संचालन करने वाला कितना भी अच्‍छा कर ले, कार्यक्रम की हर छोटी-बड़ी गलती का ठीकरा उसी के माथे पर फोड़ा जाता है। वैसे तो उनकी आदत थी कि जिस कार्यक्रम का संचालन करने की जिम्‍मेदारी मिले उसके आयोजको के साथ बैठ कर कार्यक्रम को समझना और उसकी रूपरेखा पर अपने खुले विचारों से उनको अवगत करवाना, लेकिन इस बार अचानक से जिम्‍मेदारी मिलने के कारण न तो मीटिंग हुई और न ही वे कुछ समझ पाए। फिर जहां सौ समझदार इकट्ठे होते हैं वहां सब अपनी राय देते हैं और मामला एक भी राय से अलग हुआ तो समझा बवाल हो जाता है। कोई संतुष्‍ट तो कोई रूष्‍ट हो जाता है। सबसे पहला विवाद तो यही होता है कि उसको मंच पर कैसे बिठा दिया। इसको नीचे क्‍यों रखा। स्‍वागत में इसका नाम ऊपर कैसे आ गया उसका नाम पीछे क्‍यों रह गया। इनको क्‍यों बोलने का मौका दिया, उनको क्‍यों नहीं दिया। यह कोई नहीं सोंचता है कि सैकड़ों की भीड़ में माईक थामे अप्रत्‍यक्ष संचालकों (पीछे से संचालक को कहने वाले), मंच तथा उसके सामने बैठी भीड़ को वह कैसे नियंत्रित कर रहा होता है, यह वह और उसकी आत्‍मा ही जानती है, लेकिन एक छोटी सी बात पर सारा दोष उसके माथे पर आ जाता है। 
कार्यक्रम सरकारी हो तो सब कुछ प्रोटोकॉल के मुताबिक तय होकर हो जाता है, लेकिन जब कार्यक्रम आत्‍मीय हो तो संचालक को काफी मशक्‍कत करना होती है। उसके मन की व्‍यथा को कोई नहीं समझता है। फिर सबका नजरिया एक जैसा हो जरूरी तो नहीं, सबका अपना ढंग होता है देखने का। कोई उसमें अपनी सफलता देखता है तो कोई कार्यक्रम की सफलता और कुछ ऐसे भी होते हैं, जिनको कार्यक्रम की कमियों का शौक होता है। कुछ इसलिए की इनकी तादाद ज्‍यादा नहीं होती, लेकिन इनके तर्क ऐसे होते हैं कि वह कमिया सभी को दिखाई देने लगती है। भले ही सब अच्‍छा कहते रहे, लेकिन उन दो चार व्‍यक्तियों के तर्कों से सभी सहमत हो जाते हैं। फिर भीड़ में सभी को संतुष्‍ट कर पाना अकेले संचालनकर्ता के बस के बात नहीं होती। किसी को तो असंतुष्‍ट करना ही पड़ता है। यह असंतुष्‍टी की उस संचालनकर्ता के लिए परेशानी का सबब हो जाती है। सभी लोगों के फोटो छपते हैं अखबार में, उनके भाषणों का भी उल्‍लेख भी होता है, लेकिन संचालनकर्ता को सिर्फ बात से संतुष्‍ट होना पड़ता है कि कार्यक्रम का संचालन फलां ने किया। अंत होने के कारण कई बार तो यह छप भी नहीं पाता है।

जिस कार्यक्रम से घर लौटे थे, उसमें उनका मन नहीं था, लेकिन आयोजकों का दबाव और व्‍यवहार में उनको जाना भी पड़ा। गए तो गए संचालन का टोकरा उनके माथे आन पड़ा। बेमन से किया हुआ काम सफलता की सीढि़यों पर चढ़ तो जाता है, लेकिन उस ऊंचाई से लुढ़कता है, जहां से उसका कुछ भी बाकी नहीं बचता। यही हाल उनका था। उन्‍होंने कार्यक्रम का संचालन किया, सभी को साधने का प्रयास किया, योजना मन ही मन थी कि किसको कितना महत्‍व देना है, कहां उसका उपयोग करना है, ले‍किन आयोजक हो और उसका स्‍वागत से नाम गायब हो जाए जो बुरा लगना स्‍वाभाविक है। चाहे उनके लिए संचालनकर्ता ने महत्‍व का काम देख रखा हो, स्‍वागत से ज्‍यादा सम्‍मान का मामला सोंच रखा हो। आयोजक को तो यही लगेगा कि उसने इतना सब किया और सारे स्‍वागत कर रहे हैं और उसका नाम अंत तक भी नहीं आया। अब ऐसा कार्यक्रम या तो बिगड़ता है या किसी को शिकायत हो जाती है। कई बार यह शिकायत सार्वजनिक रूप से प्रकट हो जाती है और कई बार यह संचालक को अकेले में झेलने पड़ती है। यहां इनके साथ दोनों हो गया था। मन उद्धेलित था, व्‍यथित था। सभी का सम्‍मान पाकर भी वे उदासमना घर लौटे थे कि उन्‍होंने अनचाहे ही सही एक को तो नाराज कर दिया। और नाराज हो भी क्‍यों नहीं सुबह से लगे थे और स्‍वागत से चंद घंटे के लिए आए माईक पकड़ने वाले ने उनका नाम ही गायब कर दिया।

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