पुस्तक समीक्षा

 
 पुस्तक समीक्षा

हीर हम्मो : उपन्यास 

लेखक  :  रामा तक्षक

 डॉ मीरा गौतम

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 डॉ मीरा गौतम



"अल्लाह तुम हो तो कहांँ हो"


यह आर्त्तनाद उपन्यास की नायिका हीर हम्मो  और उस जैसी उन औरतों का है जो आइसिस के धर्मांध जेहादी  आतंकवादियों  के ज़ुल्मों की शिकार  हुई हैं।  

इस उपन्यास में युद्धों से आतंकित धरती के ऐसे गहरे सवाल टकरा रहे हैं जिनसे यह सदी लगातार त्रस्त हो रही है। 

यह उपन्यास फिक्शन नहीं है। इसके जीते - जागते पात्रों से लेखक की असल मुलाक़ातें और संवाद हुए हैं। आत्मकथ्य में लेखक ने इसकी साक्षी भी दी है। 

इस उपन्यास को नये ढंग से मापने की ज़रूरत है क्योंकि, हर रचना  समय, परिवेश और रचनात्मक स्तर पर अपनी कसौटियांँ स्वयं तय करती हुई चलती है। इसीलिए, इस उपन्यास को बने बनाए  परम्परागत सांँचे में नहीं ढाला जा सकता। स्वयं लेखक ने यह उपन्यास धरती पर सतायी जा रही संतप्त स्त्रियों के नाम किया है। करूण चीत्कारों और कृन्दन  की ध्वनियों के हाहाकार में, इस उपन्यास के पन्ने भीगे हुए हैं और क़लम की स्याही में बेबस स्त्री की आंँखें लहू के आँसुओं में डूब - उतरा रही हैं। 

इस उपन्यास का तानाबाना जेहादी आतंक के  विशेष परिवेश में बुना गया है  जिसे, नकारात्मक वैचारिक युद्ध भी कह सकते हैं। सीरिया, पाकिस्तान अफगानिस्तान और नाइजीरिया जैसे देश कट्टरपंथी युवाओं को प्रशिक्षण देते रहे हैं जो, सैनिक युद्ध नहीं है।

ये सीमा पर नहीं समाज के अन्दर रहते हुए अपना जाल फैलाते हैं। 

जो इस्लाम को नहीं मानता वह ' काफ़िर 'है और, उसे ही दुनिया भर से मिटाकर अपना धर्म  विश्वभर में फैलाना है। यही भावना इसकी जड़ में काम करती है। कुरान और शरीयत का हवाला देकर अलगाववाद  का डंका पीटते हुए  ख़ूनख़राबा  करना  और अपनी मान्यता के प्रचार -प्रसार के लिए  हिंसा से गुरेज न करना  इनके  मूल कर्म में शामिल हैं जिसे, किसी भी दृष्टि से न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता।

बर्बरता की हदें पार करने वाले इस जेहादी कुकृत्य से हर उम्र की औरतें  हलकान हुई हैं। जेहाद के इस  कड़ुए सच  से आज सारी दुनिया त्राहि-त्राहि कर रही है। 

जिस जेहाद की चर्चा हम कर रहे हैं वहाँ ,  विवश पुरुषों के सिर काट डाले गयै हैं या उन्हें गोली से उड़ा दिया गया है। 

पश्चिमी देशों के सैंकड़ो बेरोज़गार युवा आइसिस के इसी झण्डे तले एकत्रित हुए हैं जिनके अपने -अपने  हित और कारण हैं।


प्रेमचंद ने बहुत पहले ही बेरोज़गारी को आतंकवाद की जड़ बता दिया था जो  इस सदी में सच होकर सामने आ रहा  है।


हम कह सकते हैं की  इस कथा में उन पुरुषों का दर्द भी शामिल किया जा सकता है जो,  स्त्रियों की दुर्दशा अपनी आंँखों के सामने देख कर भी कुछ नहीं कर पा रहे थे। आसन्न मौत उनके  सामने थी। 

उपन्यास में नारी पात्रों की यह हताशा शिद्दत से सामने आयी है ।

उपन्यास का कथानक सीरिया के पास सिंजार नामक स्थान से शुरु होता है और हीर हम्मो की कथा तीसरे खण्ड से शुरु होकर अपने आख़िरी अंजाम तक  पहुँच जाती है।

पूरे कथाक्रम में कई अवांतर और प्रासंगिक प्रकरण  हैं जो प्रत्यक्ष और अपरोक्ष रूप में  मूलकथा से जुड़ते चले गये हैं। इनका तारतम्य भी नहीं टूटा है और पाठक भी इसके पात्रों से तादात्म्य स्थापित करते हुए आगे बढ़ेंगे,ऐसी उम्मीद है। 

उल्लेखनीय है कि पात्रों में लेखक की आत्मीय  उपस्थिति और सहज संवादों  की ऊष्मा पाठकों को अपने और  करीब लाने में समर्थ होगी।

कथा कहीं  फ्लैशबैक और कहीं - कहीं  पात्रों के परस्पर संवादों   के माध्यम से मूल कथानक में जुड़ती हुई  चल रही है। 

इसमें दृश्यात्मक्ता  है। इस पर पटकथा के ज़रिए, समांतर सिनेमा  की तर्ज़ पर कला फ़िल्म बनायी जा सकती है और विश्व  के कटु यथार्थ  को सामने लाया जा सकता है। 

मंडी, बाज़ार, गमन, भूमिका,मंथन,अंकुर,आक्रोश जैसी कला फ़िल्में   इसका उत्कृष्ट उदाहरण हैं। 

यह  उपन्यास  अपनी पठनीयता में  सफल है, यह हम निश्चिंत होकर कह सकते हैं। 


संवेदनशील मुद्दों पर लेखकीय सूझबूझ से पाठकों के नेत्र विस्फारित  हो सकते हैं और मन आश्चर्यचकित। इसमें क़लम की  बारीक बुनाई  उन्हें  और हैरत में डाल सकती है कि उपन्यास में विश्व का ज्वलंत मुद्दा प्रेम, करूणा और शांति का संदेश किस कौशल से विश्व भर  में फैलाया गया है।


असहृय पीड़ा से गुज़र रही हीर हम्मो आख़िर एक सुखान्तिकी तक कैसे पहुंँच पायी है, पाठक  विस्मित हो सकते हैं।  

यह एक रहस्य है। इसे रहस्य ही बना रहने दिया गया है। इस जिज्ञासा में ,   पाठक तसल्ली का अनुभव करते हुए, इसे बार-बार पढ़ने को विवश हो सकते हैं। 

पश्चिमी कथा साहित्य में 'जिज्ञासा'  का तत्त्व विशेष महत्त्व रखता है। यहांँ  तक कि  कभी-कभी कथा के अंत तक को भी खाली छोड़ दिया  जाता है कि पाठक स्वयं  ही फ़ैसला करें कि आख़िर, बेहतर अंत क्या हो सकता  है। परन्तु, इस  उपन्यास का अंत स्पष्ट  और सुखांत है  जो इसे पश्चिमी कथा- साहित्य की अवधारणा से अलग करता है।

हम देखते हैं कि दृश्य और श्रव्य धारावाहिकों और पत्र-पत्रिकाओं में टंकित धारावाहिकों के अंत में, रोचकता बनाए रखने के लिए, यह रहस्य जानबूझकर रखा जाता है  ताकि  दर्शक,श्रोता और पाठकगण इन धारावाहिकों से  सतत बँधे रहें और आगामी अंकों की दिल थामकर प्रतीक्षा करें। 

मगर,यह एक समग्र उपन्यास है और मात्र एक रहस्य  ही यहांँ  पर छोड़कर रखा गया है कि  आख़िर हीर हम्मो, अंधे गायक कलाकार तक  पहुंँची तो कैसे पहुंची ?

निश्चित रूप से, उपन्यास के अंत को बेहद ख़ूबसूरत मोड़ देने की मंशा ही  यहाँ साफ़ झलकती है।

12 खण्डों के पड़ावों में रची-बसी  इस कथा के पन्ने पलटने से, यह  ज़ाहिर होता  है कि अभिधा में  रची- बसी इसकी भाषा का सहज  सम्प्रेषण कथा - प्रवाह को कहीं भी बाधित नहीं   होने देता । इसमें कई प्रकरण ठेठ राजस्थान की बांँगरु  मिश्रित बोली  में, ग्राम्य जीवन - शैली का परिवेश बुन रहे हैं  जिनसे, विस्फोटों से दहल रही धरती पर  कुछ क्षण के लिए ही सही, पाठक राहत महसूस कर सकते हैं।


हीर  हम्मो और उस जैसी  औरतों को जेहादियों ने सबाया यानि वेश्या  बनाया है। उन्हें कई-कई बार ख़रीदा और बेचा गया है।

बलात्कार से जन्मी सन्तानों को न जेहादियों ने स्वीकार किया न यजीदी मांँओं के परिवारों ने। घर वापिसी के लिए, सबाया स्त्रियों को शुद्धिकरण की जटिल प्रक्रिया से तो गुजरना पड़ता है परन्तु, बलात्कार से जन्मी उनकी सन्तानों को यजीदी परिवार  स्वीकार नहीं करते। वे  ताउम्र  लावारिस  ही बनी रह जाती  हैं और, उनकी मांँएं उनके सुरक्षित भविष्य  को लेकर सिसकती हुई  खड़ी रह जाती जाती हैं । यह अमानवीय और  कारूणिक यथार्थ इस उपन्यास में दर्ज़ हुआ है।

गर्भवती हम्मो का साथ  क़िस्मत ने  कुछ  इस तरह दिया है कि वह जेहादियों  के यातना शिविर   के चंगुल से  बचकर  निकल भागती है।  अमेरिका ने जेहादियों के खात्मे के लिए इराक पर बमवर्षा करके,  हताहतों के  लिए  जो शिविर बनाए थे वहांँ, उसने लोमहर्षक दृश्य देखे हैं। गड्ढा खोदकर ढेरों लाशों को  एकसाथ दफ़्न होते भी देखा है।

वहीं उसकी बेटी मरिया का जन्म होता है। दूरपार  के रिश्तेदार ने बच्ची के पालन-पोषण का जिम्मा भी लिया है परन्तु उसे वह निभा नहीं  पाया है।

यह नियति थी  या उसकी बेटी का भाग्य कि अनाथालय के पादरी का वात्सल्य उस बच्ची पर उमड़ पड़ता है और उसकी सही देखभाल  होने लगती है।


उपन्यास के अन्य महत्वपूर्ण पात्रों में जॉन - जॉनी दम्पत्ति और पत्रकार कैथरिना भी  हैं जो आपस में पारिवारिक हैं। 

जॉनी की मृत्यु हो चुकी है। जॉन और कैथरिना के संवादों में  रूस -यूक्रेन युद्ध पर गंभीर चर्चा होती है। जॉन 92 वर्ष की उम्र में भी टीवी पर चल रही यूक्रेन - रूस  युद्ध की ख़बरों पर गंभीर चर्चा करता है।

ये सभी पात्र धरती पर सुख- शांति की कामना करते हूए समाधान की तलाश कर रहे हैं। उपन्यास में युद्ध का घटनात्मक परिवेश खुलकर आया है जिससे, उपन्यास के कथ्य को विशेष गति मिली है  

और  लेखक  का विराट स्वप्न पूरी तरह अपनी आंँखें खोल रहा है।

पात्रों की चर्चा के केन्द्र  में आतंकवादियों द्वारा विश्व भर में जहाँ -तहांँ किये जा रहे हमलों की गहन चर्चा भी शामिल है। अमेरिका का ' ट्विन टावर 'हमला' और  ट्रेड सेंटर ' पर हुए हमले के साथ-साथ पेरिस में हुए हमल़ों 

का ज़िक्र भी यहांँ मौजूद है। युद्ध ,युद्ध ही होता है। उसका रूप चाहे जो हो। विध्वंस और विनाश ही उसकी अंतिम परिणति है ।

आज युद्धों के बदले हुए रूप मानवता का लगातार हनन कर रहे हैं। ये किन-किन रूपों  में सामने आये हैं, उपन्यास में महत्त्वपूर्ण  पात्रों और उनके  संवादों ने इसकी गवाही दी है। इनकी तहों में भी कई सवाल टकरा रहे हैं और इनकी ध्वनियाँ, दूरगामी  संकेत दे रही हैं। 

तेल  की राजनीति के साथ -साथ  सीमा -विस्तार, विकसित और विकासनशील  देशों की दुरभि :संधियांँ, छलछद्म और षड़यंत्र  भी यहांँ बराबर काम कर रहे हैं ।

ये अन्तर्राष्ट्रीय समस्याएंँ सुरसा की तरह इन्सानियत का क़त्ल कर रही हैं  कि मानवता शर्मसार हो रही है । 

उपन्यास की ध्वनियों में धरती का दर्द बोल रहा है।

जेहादी आतंकवाद से त्रस्त औरतें पुरुषों की पाश्विकता, अन्याय और दमन के ख़िलाफ़ कुछ न कर पाने की असहायता को देखकर फ़ैसला करती हैं कि वे घर के पुरुषों को आगे से युद्ध में नहीं भेजेंगी। काम का वीभत्स तांडव यहाँ जारी है।

पुरुष इन युद्धों में मरते हैं और औरतें जीवन में अकेली रह जाती हैं।

पुरुषों की त्रासदी यह है कि  उनके सामने ही औरतों के साथ बलात्कार हो रहे हैं और वे  इसका प्रतिरोध तक नहीं कर पा  रहे  हैं। 

युद्ध होतै हैं तो पुरुष ही युद्धों में जाते हैं। स्त्रियांँ अपने पुरुषों को खो देती हैं। यह इन स्त्रियों को मंजूर नहीं इसीलिए वे, उन्हें युद्धों में भेजकर राजी नहीं हैं। परन्तु,  वे जो सोचती हैं, क्या वह कभी पूरा हो पाता है। हर स्त्री एक विवशता में बँधी हुई है।

इस उपन्यास के स्त्री पात्रों ने इस घुटन से मुक्ति पायी है और यह उनका क्रांतिकारी क़दम है।

हीर हम्मो की बेटी को पालने वाली पद्मा और सलमा ने स्त्री -विमर्श पर बिल्कुल नयी बहस का आगाज़ किया है।  पुरुषों में सत्ता संभालने की क्षमता नहीं है। दोनों ही पितृसत्ता को चुनौती दे रही हैं कि अब सत्ता स्त्रियों के हाथ में हो। 

दोनों को ससुराल में बहुत अधिक सताया गया है। बेकसूर सलमा को तीन बार तलाक़ तलाक़ तलाक़ का दंश झेलना पड़ा है  और वहीं, पद्मा का पति लौटकर आने की कहकर, कभी नहीं लौटकर नहीं आया। उसकी सूनी आंँखें रिक्त हैं। जिनमें हमेशा के लिए एक खालीपन भर  गया है। जब पति ने ही इज़्ज़त नहीं दी है तो दोनों के घरों की  बड़ी औरतों ने उन पर और भी कहर बरपाने शुरु कर  दिये हैं। यह समाज का कड़ुआ सच है जिसकी कालिख ,घर की दीवारों पर पुती हुई है। इन स्त्रियों को अपने  बेटों में कोई खोट नज़र  नहीं आता। स्त्री ही स्त्री की दुश्मन बन  गयी है और जीवन बरबाद हो रहे हैं। यह घर-परिवारों  का ऐसा सच है जिससे समाज अभी तक भी मुक्त नहीं हो पाया है।

मगर, दोनों स्त्रियों ने धैर्य नहीं खोया है और  अपनी नयी राहें तलाशी  हैं।यह इस उपन्यास का  महत्त्वपूर्ण  पहलू है।

उपन्यासकार का स्वप्न है कि स्त्रियांँ  मज़बूत  हों। समर्थ  बनें। इसीलिए

लेखक ने ऐसे स्त्री पात्रों का सृजन भी किया है और इसमें वह  पूरी तरह सफल भी हुआ है। यह रचनात्मक ज़िम्मेदारी  उपन्यास की ख़ूबसूरती है जिसे लेखक ने बख़ूबी निभाया  हैं। 

हीर हम्मो की बात करें तो विवाह की पूर्व संध्या पर जो मेंहदी उसके हाथों में रचायी गयी थी और फिर यकायक  जेहादी हमले में वह छूट भी गयी थी वह, उपन्यास के अंत में, और गहरी  होकर उसके हाथों में  खिल उठी है। उसे अंधे गायक की बांँहों का सहारा मिला  है और वह तर गयी है। 

सबाया बनीं औरतें  शुद्धिकरण के बाद घर लौटीं हैं। सलमा और पद्मा के जीवन की नयी राह में असहाय और विवश स्त्रियांँ अपने रास्ते तलाश सकती हैं।

वे  दोनों अकेली हैं मगर, उनके अकेलेपन में भी एक सोद्देश्यता है।

कुल मिलाकर कहें तो यह उपन्यास दुःख से सुखान्तिकी ओर बढ़ा है।

रचना वही सार्थक होती है जो किसी भी बड़ी  समस्या को उठाकर , उसे समाधान तक  ले जाती है। 

उपन्पयास में  सलमा और पद्मा हीर हम्मो की अनाथ बेटी  मरिया की मांँ और संरक्षक की भूमिका  में एक दृष्टांत पेश करती हैं।  

अलग जाति और  अलग धर्म की होने के बावजूद वे  मरिया को भले ही जन्म नहीं दे पायीं हैं परन्तु,ममता और वात्सल्य के स्तर पर वे  पूरी तरह माँ के रूप में दिखायी दे रही हैं।

वे मांँ हैं और मांँ की  कोई जाति या धर्म नहीं होता। जन्म देने भर से ही कोई मांँ नहीं बन जाता।

मांँ धरती है जो बिना किसी भेदभाव के सबको अपने आंँचल में  समेट लेती है। उपन्यास की यह सकारात्मक सोच मन को संबल देती है।

इस उपन्यास में आतंकवाद से सतायी गयी हीर हम्मो  को समाधान की दिशा मिली है  जो उसने ख़ुद तलाशी है। यह एक रास्ता जो स्त्री को  राह  दिखाता है। यह एक सिला है और एक मंज़िल भी।


इसमें सलमा और पद्मा के क़िस्से में नया यह  हुआ है कि जब  स्कूल में दाखिले के लिए हीर हम्मो की बेटी मरिया  के मांँ और पिता के नाम  लिखाने की बारी आती है तो दोनों, मांँ और पिता की जगह अपना नाम  लिखवा देती हैं। उनके इस फ़ैसले ने बनी-बनायी लीक को तोड़ा है।

पुरुषों की सतायी हुई पद्मा और सलमा को अब पुरुषों  की  बैसाखी  की ज़रूरत  नहीं  है। 

सलमा और पद्मा का मानना है कि पितृसत्तात्मक परिवारों में पुरुष अहंकारी ,दम्भी और निर्मम होते  हैं।

यह पुरुषों के प्रति उनकी यह सोच मोहभंग की स्थिति है।

यह स्त्री-विमर्श परम्परागत भले ही लग रहा है परन्तु इसमें बात नयी यह है कि वे पुरुष के अस्तित्व को सिरे से खारिज कर  रही हैं।  

यहांँ पुरुष लेखक  रामा तक्षक पूरी तरह संतप्त  स्त्री के पक्ष में खड़े  दिखाती दे रहे हैं।

स्त्री - पुरुष लेखन को अलग - अलग मानने वालों को समझना होगा कि संवेदनशील रचनाकार इस तरह के विभेद को मिटा देते हैं ।

संवेदना के स्तर पर इस तरह का विभाजन उचित भी नहीं है। लेखक ने यह साबित भी कर दिखाया है। यह इस उपन्यास की बड़ी रचनात्मक उपलब्धि है।


गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर  ने  सौ वर्ष पूर्व कहा था कि इतिहास के वर्तमान दौर में अभी सभ्यता पूरी तरह पुरुष प्रधान है। स्त्रियांँ छाया की तरह बगल में सरका दी गयी हैं। समय आ चुका है जब  स्त्री सामने आयें और ताक़त की मतिहीन गति में अपनी जीवन लय को जोड़ें। 'स्त्री' शीर्षक पर केन्द्रित   यह व्याख्यान स्त्री और पुरुष की चर्चा को नये  परिप्रेक्ष्य में अग्रसरित करता है।  

उनकी पुस्तक 'पर्सनैलिटी लेक्चर्स : डिलीवर्ड इन अमेरिका ' 1917 में यह व्याख्यान प्रकाशित हुआ है।


अब स्त्री- विमर्श किस रूप में है और इसकी असली पहचान क्या है का यक्ष प्रश्न अभी  भी सामने है।

'फेमिनिज्म' की वर्तमान स्थिति का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि जब अमेरिका की सुप्रीम कोर्ट में,  हाल ही में जज बनीं केटांजी ब्राउन जैक्सन से पूछा गया कि क्या वह स्त्री को परिभाषित कर सकती हैं तो उन्होंने उत्तर देने में असमर्थता ज़ाहिर की। वह उत्तर देने से ही कतरा गयीं।

कितने आश्चर्य की बात है कि लगभग दो सौ साल पहले अमेरिका से ही शुरु हुआ स्त्री आंदोलन आज वहां अंतिम सांँसें ले रहा है।


अब देखें ,  हम्मो का क्या हुआ ?

हमें सलमा और पद्मा के छोर पकड़कर रखने की ज़रूरत है। उपन्यास के पहले और दूसरे खण्डों में दोनों के संवादों से ऐसी झलक मिलती है कि उससे इस कथा का सिरा सहज आगे जुड़ जाता  है।


सलमा थियेटर में एक शो को देखने पहुंँचती है और लौटने पर पद्मा को यह क़िस्सा सुनाती है और, कथानक  एकबारगी आपकी  पकड़ में आ जाता है।

क़िस्सा यों है कि  थियेटर के रहस्यमय आलोक में एक आकृति उभरती है।

एक अन्धा गायक और उसे संभाल रही एक स्त्री की आकृति भी साथ ही उभरती है। हाल तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठता है।

ज़ाहिर है कि एक स्थापित कलाकार से दर्शक  रु ब रु  हो रहे हैं।

वह पात्र अंधा है और गायक भी है। बोलने की कला में वह बड़ा ही पटु है। अपने बोलने से वह दर्शकों से तादात्म्य स्थापित कर लेता है।

 

एक प्रकरण में लेखक ने राजस्थान के गाडरिया लोहार समूह की जीवन-शैली  के सम्बन्ध में बताया है कि ये खानाबदोशी जीवन जीते हैं और इन्हें राणा प्रताप का वंशज माना जाता है। इनका रहन-सहन ,वेशभूषा और इनकी स्त्रियों  का गांँव के धनाढ्यों  द्वारा होने वाला दैहिक  शोषण साबित करता है कि आज भी ग़रीबी,क़र्ज़ और  चक्रवृद्धि ब्याज के अभिशाप से गांँव मुक्त नहीं हो पाये हैं। और इसकी क़ीमत उनकी स्त्रियों को चुकानी पड़ती है।

ऐसी ही पात्र लिच्छी है जो घर-घर शादी ब्याह के बुलावे देती  घूमती है। यह बिंदास स्त्री पात्र है और अपनी मर्ज़ी से जीवन जीना चाहती है। गांँव के लड़कों पर उसका पूरा राज है और उसके सम्बन्ध हैं।

इसके मन में इस बात का मलाल है कि उसे बड़े घरों की उतरन क्यों पहननी पड़ती है। उसमें विद्रोह और बगावत के सुर तीखे हो उठे हैं।

वह अनब्याही गर्भवती  हो जाती है जिसमें, उसकी मर्ज़ी शामिल हैं। 

एक रात वह घर से गायब हो जाती है। यह आज भी गाँवों का यथार्थ है।

अभी भी गांँवों में ग़रीबी,अपढ़ता, दैहिक और आर्थिक शोषण की तस्वीरें बाक़ायदा देखी जा सकती हैं।

हीर हम्मो की बेटी  जॉन जैसे पात्रों के ही जरिए पद्मा और सलमा की देखरेख में पहुँची है। उसका नाम मरिया रखा गया है। 

कैथरिना रूस में पत्रकार  थी जिसे रुस-यूक्रेन  युद्ध के दौरान रूस छोड़ना पड़ा क्योंकि, रूस ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर पाबंदी लगा दी थी।

,ःःःःःःःःःःःःःःःःःःःःःःःःःःःःःःःःःःःःःःःःःःःःःःःःःःःःःयह उपन्यास शब्दों में बंँधा  लेखक का करूण गान है   जिसे आईसेक्ट पब्लिकेशन, भोपाल, मध्य प्रदेश, भारत ने छापा है  जो,  राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी उच्च स्तरीय गुणवत्ता के कारण जाना- पहचाना जाता है। 

इसके स्वप्नदृष्टा श्री संतोष चौबे जी हैं जो स्वयं देश के मूर्धन्य साहित्यकार हैं।

उल्लेखनीय  है कि इसी पब्लिकेशन से  निकलने वाली विश्वस्तरीय  साहित्यिक और  सांस्कृतिक पत्रिका  'विश्वरंग 'के  वह प्रधान संपादक भी हैं। 

यह ज़िक्र इसलिये भी कि  'विश्वरंग ' की सम्पादक त्रयी में  श्री संतोष चौबे साहित्यिक और  सांस्कृतिक संस्था 'साहित्य का  विश्वरंग '  के महानिदेशक भी हैं । श्री संतोष चौबे जी और श्री  लीलाधर मंडलोई जी के साथ उपन्यास के लेखक  रामा तक्षक जी भी  'साहित्य का विश्वरंग ' संस्था के संयोजन और संपादन का गुरुतर कार्य नीदरलैंड्स में  सफलतापूर्वक संभाल रहे हैं। 

'साझा संसार', 'प्रवास: मेरा नया जन्म',   'हिंदी विश्व में सर्वाधिक बोले जाने वाली भाषा  है '  और 'संस्कृत की वैश्विक विरासत 'जैसी  अन्तर्राष्ट्रीय साहित्यिक और सांस्कृतिक संस्थाएंँ   साहित्य और संस्कृति के बड़े समुच्चय हैं  जिनका संयोजन इस महान त्रयी का बड़ा स्वप्न है जो  विश्व के कई देशों में  निरन्तर साकार हो रहा है। प्रेम और करुणा इनका मर्म है।

कवि लीलाधर मंडलोई अपनी कविता में धरती पर कम होती जा रही प्रेम और करूणा  की भावनाओं को लौटा लाने का मार्मिक आग्रह कर रहे हैं, 

" इन वक़्तों  में

जबकि प्रेम कम हो रहा है 

करूणा रूठ गयी है

 इन्सानियत ठिठकी  है

बस पुकार लो

और दौड़कर थाम लो 

जो बिखरने को है 

फूल मुरझाना नहीं खिलना चाहते हैं...."।



उपन्यास हीर हम्मो का  मूल स्वर  भी ' प्रेम और करूणा ' पर आधारित है  जो इस स्वप्न को साकार कर रहा है।


विश्वरंग - 22 की थीम भी 'प्रेम और करूणा' पर  ही केन्द्रित रही है।

  

उपन्यास के केन्द्र में हीर हम्मो एक ऐसी नारी पात्र है जिसने, आइसिस के जेहादी आंतकवादियों के नृशंस बलात्कार को झेला, सहा और धैर्य के साथ, नये जीवन की तलाश की है। 'प्रेम और करूणा' की बुनियाद भी  रख दी है । जेहादियों की बर्बरता से  छटपटा रही हीर हम्मो ने अंत तक धैर्य नहीं खोया है और यही ,उसका हासिल है।


उपन्यास के तीसरे खण्ड में, 

ब्याह कीपहली सांँझ अपने भावी शौहर को  अपनी आंँखों में भरे हुए, सुख-सपनों में खोयी हीर हम्मो को, जेहादी आतंकवादी द्वारा अचानक लगायी गयी ठोकर ने, आने वाले समय के लिए आगाह कर, सुझबूझ का पहला पाठ पढ़ा दिया था। उसके ब्याह की तैयारियांँ भी धरी की धरी रह  गयीं थीं और दर्द का अनाम काफ़िला उसके संग चल निकला था।


12 खण्डों और 254 पृष्ठों में बंँधे इस उपन्यास में कई  सवाल हैं । उपन्यास से गुजरते हुए यह प्रवासी लेखक अपने पात्रों से स्वयं बोल -बतिया रहा है  और कई वैश्विक सवाल  उठाकर समाधान की और बढ़  रहा है। 

इस उपन्यास की ख़ासियत यह है कि यह  

स्त्री -विमर्श की उस मान्यता को  खारिज करता है कि रचनात्मक स्तर पर

स्त्री और पुरुष  की संँवेदनाएं अलग-अलग होती हैं ।


हालांँकि, दार्शनिक प्लेटो ने स्त्री और पुरुष  को भाषा और भावनात्मक स्तर पर अलग - अलग माना है परन्तु, उनके शिष्य अरस्तू ने उनकी इस  मान्यता को ध्वस्त कर दिया है। 

जो हृदय विदारक कृन्दन और हाहाकार उपन्यास की नायिका हीर हम्मो के कलेजे से  उठ रहा है वह, इस धरती के हृदय को  विदीर्ण करने को काफ़ी है।

उपन्यास के पात्र जटिल  सवालों को उठाकर  समाधान तक स्वयं पहुंँच रहे हैं। यह  इस उपन्यास की बड़ी उपलब्धि है। हीर हम्मो ने दृष्टिहीन कलाकार को जीवन साथी के रूप में चुना है। यह उसकी करूणा,सेवा और समर्पण का पवित्र भाव है।

अंधे गायक ने हीर हम्मो को  अपनी बांँहों में समेट लिया है।वह मन की आंँखों से इसे अनुभव कर रहा है। लेखक भी संग- संग गा  रहा  है,  "प्रीति की आंँखों से देखो, वहांँ अंधियारा नहीं है,

मन की आंँखों से  देखो, उजियारा हर कहीं है..। "

प्यार का प्रस्ताव और इकरार दोनों साथ-साथ हैं यहाँ.. और,यही जन्नत है..।

हीर हम्मो अंधे गायक की मुस्कराहटों में खोने लगी है...

वह उसका  चुम्बन लेने को  आगे बढ़ती ही  है कि बत्ती गुल कर दी जाती है...। हाल की गड़गड़ाहट ने इसकी साक्षी  भी दे दी है...  इस मंगल -उत्सव में आज..  सब जुड़ गये हैं...।


दर्शक हीर हम्मो की प्यार भरी फुसफुसाहट सुनते हैं... , मुझे अपनी बांँहों में यूंँ ही थामे रहो....,।"


इन क्षणों में  हम  भी  गा रहे हैं....शगुन मना रहे हैं..


शायर मख़दूम को  याद कर रहे हैं...


" फिर छिड़ी रात बात फूलों की,  रात है या बारात फूलों की.... "


फ़िल्म बाज़ार में इस ग़ज़ल का ख़ूबसूरत प्रयोग  हुआ है।



मीरा गौतम



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