(1)
घूँघट परदा में लगे, नारी सुंदर रूप।
रूपवती नारी लखै, मोहित होते भूप।।
मोहित होते भूप, हरण बाकौ करबाते।
करते प्रेम विवाह, और मन को बहलाते।।
कहे देख"सुमनेश",होय ना भय से खटपट।
मुगल समय की रीत, नारियाँ करती घूँघट।।
(2)
होते जग में काम कुछ,पर्दे की ले ओट।
होते भ्रष्टाचार नित,मन में उपजे खोट।।
मन में उपजे खोट,काम ना करते वैसे।
रिश्वत दैनौ पाप, काम होएगो कैसे।।
कहे देख "सुमनेश",काटते चक्कर थोते।
परदा की ले ओट,काम रिश्वत से होते।।
(3)
नारी लज्जावान जो, घूँघट काढै रोज़।
बिन घूँघट जो डोलती, नयना करते खोज।।
नयना करते खोज, नारि वह होय सयानी।
घूँघट के पट खोल, बोलती मीठी बानी।।
कहे देख"सुमनेश" परिश्रम करती भारी।
लज्जा रखे बचाय, रहे घूँघट में नारी।
(4)
सबसे परदा कर सकै, ईश्वर से ना होय।
सबके मन को जानता,सब जानत हैं मोय।।
सब जानत हैं मोय,ईश बिन हिलै न पत्ता।
मन में होते मुदित, ईश की कैसी सत्ता।।
रखें सभी "सुमनेश", लोग पर्दा मतलब से।
इक दिन पर्दा उठै,भेद खुल जावै सबसे।।
डॉ. सुरेश चतुर्वेदी "सुमनेश"
नमक कटरा भरतपुर राज
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