कंटक भरा जीवन सफर,
संभल - संभल चलना प्राणी,
गम ज़्यादा, खुशियाँ हैं कम,
सोच - सोच पग धरना प्राणी,
डाली से टूटा फूल मुरझाया,
काँटों को मुरझाने का खौफ नहीं,
शूल बन उतर गया जो,
फिर दर्द का इल्म नहीं,
कली बनी खिल न सकी,
कुचल दी गयी खिलने से पहले,
रखवालों ने ही नोंच डाला,
जो सिसकती थी कभी,
काँटा चुभने से पहले,
तन की पीड़ा तो सह लूँगी,
मन के घाव कैसे भरूँगी,
गहरा कितना काँटा चुभा दिल में,
उसका दर्द कैसे बयां करुँगी,
दर्द देकर उफ़ नहीं करते,
दुनिया का यही दस्तूर है,
होठों को सी लो, आँसू पी लो,
"शकुन" तुम्हारी यही तक़दीर है।।
शकुंतला अग्रवाल, जयपुर
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