मुंह न मोड़ें

 मुंह न मोड़ें।   


परिस्थिति षम हो या परिस्थिति विषम हो, कलम चलती है। कलम मुंह नहीं मोड़ती है। कलम अपना काम करती है। कलम अपना दायित्व निभाती है। कलम की अपनी पांख होती हैं। कलम की अपनी आँख भी होती है। पांख और आँख का मेल ही कलम का जीवन है। वही कलम का मन है। इसी मेल से लेखन को जीवन मिलता है। पाठक के लिए, लिखे काले अक्षर, फिल्म समान हैं। वह इसी कलम के सहारे लेखक के अनुभवों से जुड़ने के लिए पहुंच बनाता है। लेखन एक पुल का काम करता है।

लेखन चाहे सदियों पुराना हो। लेखन, चाहे हजारों हजारों कोस दूर बैठ कर, लिखा गया हो। यही लेखन दृश्य और पठन की कड़ी है। यही लेखन काल के विस्तार और दूरस्थ स्थान के बीच बना पुल है। लेखन, समय से परे, समझ की पकड़ है।

काल और परिस्थितियां, ये दो घटक जीवन को तराशने, जोड़ने, तोड़ने और मरोड़ने की प्रक्रिया का नाम हैं। यह प्रक्रिया सदा जारी रहती है। काल के घेरे और परिस्थिति की जड़ में बसती हैं चुनौतियां। इन चुनौतियों के भी अपने चेहरे हैं।

चुनौतियां केवल एक ही मांग करती हैं। पूर्ण सजगता की मांग करती हैं। साहित्यिक लेखन सदा से सजग जीवन की चाह को लेकर काल और परिस्थितियों को सृजनात्मकता में ढ़ालता रहा है।

विश्व भर में, 21वीं शताब्दी का स्वागत, फूलझड़ियों और पटाखों से हुआ था। यह सब इस आशा के साथ हुआ था कि इक्कीसवीं सदी विश्व में शांति की सदी होगी। इस सदी के आरंभ में, यह सोच बनी थी कि मानवता ने पिछले दो विश्व युद्धों से बहुत कुछ सीख लिया है। मानव मानव के प्रति समझदार हो गया है। मानव जीवन के प्रति सजग हो गया है। मानव ने मानव के प्रति, सजगता के साथ, आदर की राह पकड़ ली है। इक्कीसवीं शती के आगमन पर, एक नयी सदी के शुरुआत के समय, कुछ ऐसा ही प्रतीत हुआ था।


एक बरस भी नहीं बीता था कि  9/11 के ट्विन टावर के धराशाही होने के साथ, यह सब, शांति का सपना भी तहस नहस हो गया। पिछले इक्कीस बाईस वर्षों में एक भी वर्ष शांति का नहीं रहा है।


विश्व में शांति का जिकरा, पिछली सदी में भी पहले विश्वयुद्घ और दूसरे विश्वयुद्ध में परमाणु बम की तबाही से लेकर आज तक दुनियां भर में होता रहा है। प्रत्येक देश का नेता, स्वतंत्रता दिवस पर या राष्ट्रीय महत्व के दिवस पर, सेना के दलबल और परमाणु जखीरों के साथ शांति की बात जरूर, गुरूर के साथ करता है। अपने  निकटतम व्यवसायी को अपने देश के सैन्यबल को सशक्त करने के लिए हथियार उद्योग में, भारी पूंजी लगाने को जीभर कर, सिरजोड़ और सहयोग करता है।


सीमा की सुरक्षा के नाम पर, शांति के नाम पर, हथियार निर्माण के नाम पर, आर्थिक विकास के नाम पर, जनता को रोजगार की घूंटी दी जाती रही है। जो हथियार बने हैं या जो हथियार बनेंगे। वे कहीं न कहीं काम में लिए जायेंगे। हथियार लड़ने के लिए बने हैं। वे विध्वंस ही करेंगे। 


हथियार निर्माण के बाद बाजार तलाश की दौड़ शुरू हो जाती है। विश्व में हथियार बेचने के लिए मेले लगते हैं। एक ओर ऐसे हथियार बिक्री के मेले लगते हैं और दूसरी ओर सभी धर्मों के गुरू विश्व शांति सम्मेलन कर रहे होते हैं। इस शांति सम्मेलन का आयोजक हथियार निर्माण कर्ता हो सकता है। शांति सम्मेलन का आयोजन वे व्यवसायी लोग भी करते हैं जिन्होंने अकूत पूंजी हथियारों के उत्पादन में लगाई होती है। इस शांति सम्मेलन के खर्च का उन्हें, उनकी आमदनी की कर कटौती में, पूरा आर्थिक लाभ मिलता है।


यह बड़ी विडम्बना है। इस दुमुंहे संसार में कभी शांति हो सकेगी ? इस बात की कल्पना करना मुझे विचित्र बात लगती है। आज वैश्विक नेतृत्व अपनी ही नहीं सम्पूर्ण मानव जाति की कब्र खोदने में लगा हुआ है। 


मैं कुछ और कहूं उससे पहले एक सुनी हुई लघुकथा आपसे कहता हूँ।


एक तानाशाह था। उसका बहुत बड़ा साम्राज्य था। उसका साम्राज्य चारों दिशाओं में फैला हुआ था। एक संत उस तानाशाह का मित्र भी था। यह संत जंगल में, एक बड़े पेड़ के नीचे एक कुटिया बनाकर, रहता था। तानाशाह और संत दोनों की दोस्ती बहुत गहरी थी। इस दोस्ती की मिसाल का आमजन को पता था। तानाशाह ने जंगल के पास ही एक बड़ा आलीशान महल बनवाया।


एक दिन इन दोनों मित्रों की भेंट हुई तो तानाशाह ने कहा "मित्र! मैंने एक नया महल बनवाया है।" 

फिर अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए, संत मित्र के सामने एक प्रस्ताव रखते हुए बोला "आप भी एक कमरा लेकर उसमें रहने लगो।"

संत ने विनम्र भाव से कहा "राजन क्षमा करें।"

"आप मुझे क्षमा करें।" 

"मैं अपनी कुटिया में बहुत खुश हूं।"

संत के बोल यहीं पर न रुके। उसने तानाशाह से विनम्र भाव भरे शब्दों में कहा "मुझे इससे अधिक की जरूरत नहीं है। मैं महल में ना रह पाऊंगा। मैं जीते जी मर जाऊंगा। मेरा जीवन समाप्त हो जाएगा।" 

इतना कहकर उसने अपनी टूटती सांस को सम्हाला। 


राजा ने मित्र की बात सुन अधिक दबाव देना उचित न समझा। उसने कहा "कम से कम मेरे महल को देखने के लिए ही जाओ।" 

संत ने कहा "ठीक है।"

ऐसा कहकर संत ने हामी भर दी। 


एक दिन ऐसा भी आया जब संत राजा के साथ नये महल को देखने गया। महल के चारों ओर सैनिकों का जाल बिछा था। इस स्थान पर कोई परिंदा भी अपनी मर्जी से अपने पंख नहीं फड़फड़ा सकता था। महल को सजाने संवारने में कोई कसर न छोड़ी गई थी। शौचालय की टोंटी भी सोने की बनी थी। सब  जगह हीरे मोतियों की चमक थी। सब जनता का था। जनता का सब माल महल की रौनक में लगा था।

नये महल में, संत मित्र के आने से तानाशाह बहुत खुश था। उसने अपने मित्र को महल का कौना कौना दिखाया। उसे खूब घुमा घुमाकर दिखाया। तानाशाह के अपने ही शब्दों में "दुनिया में ऐसा महल अब तक नहीं बना है। किसी के पास नहीं है। सब कुछ संगमरमर का है। मैंने इस महल को बढ़िया और सुंदर बनाने में कोई कमी नहीं छोड़ी है।" 

राजा ने बड़े शौर्य और दृढ़ता का भाव चेहरे पर लाकर कहा "यह बहुत सुरक्षित जगह है।"

सुरक्षा का ख्याल रखते हुए मैंने इसमें कोई दरवाजे खिड़कियां नहीं रखी हैं। महल में प्रवेश के लिए केवल एक ही मुख्य दरवाजा है।

यह सुनकर संत अचानक सकपकाया सा चलते चलते एकदम ठहर गया। उसका शरीर एकदम स्थिर हो गया। चलते हुए उसके दोनों कदमों के बीच की दूरी, दूरी ही बनी रही।

उससे कहते रहा न गया। उसने कहा "राजा मुझे तो यहां सांस लेने में कठिनाई आ रही है।"

विस्मित स्वर में राजा ने कहा "ऐसा क्यों ?" 

"यह तो बहुत सुरक्षित जगह है।"

बहुत सम्भल और सहज हो संत होले होले बोला, "हां, सुरक्षित तो है लेकिन यदि तुम इस मुख्य दरवाजे को भी बंद कर दोगे तो यह तुम्हारा मकबरा भी बन जाएगा।"

आज हम शस्त्रों की होड़ में अपने ही बनाये बमों पर खड़े हैं।अपने ही मकबरे की तैयारी की अनदेखी कर रहे हैं। 

अमेरिका ने रासायनिक हथियारों के नाम पर, ईराक पर युद्ध थोप दिया था। वहां की सारी सामाजिक व्यवस्था को मटियामेट कर, आइसिस के लिए सब हथियारों का जखीरा छोड़ भागा। 

बाद में तालिबान पर युद्ध थोप कर, अपने दांत खट्टे करवा कर, अफगानिस्तान से दुम दबाकर भाग निकला। सीरिया और आइसिस के किये की बाल सिसकी भरी आहें, आज भी बंदी महिलाओं के शिविर में सुनाई पड़ती हैं। 

युद्ध से पारिस्थितिकीय और पर्यावरणीय नुकसान भी बहुत होता है। जिस स्थान पर बम गिरकर फटता है, उस स्थान की मिट्टी की जैविक मौत में, करोड़ों अरबों जीवाश्म बलि हो जाते हैं। ये वे जीवाश्म हैं जो धरती पर विभिन्न रूपों में जीवन का पोषण करते हैं। जो धरती पर मानव के अस्तित्व का कारक हैं। जिनकी उपस्थिति मनुष्य से लाखों अरबों बरस पहले की है। 

द्वितीय विश्व युद्ध में नागासाकी और हिरोशिमा पर बरसाये गये बमों वाले स्थल पर आज भी घास नहीं उगती है। यह सब जानते हुए भी पारिस्थितिकीय नुकसान की भरपाई की बात किसी भी वैश्विक नेतृत्व के मुंह से नहीं उगलते बनती। उगलते इसलिए भी नहीं बनती क्योंकि पारिस्थितिकी की किसे परवाह है। सब आर्थिक विकास की आड़ में चुप हैं।

पुतिन ने यूक्रेन पर 'विशेष अभियान' के बहाने युद्ध थोंपकर, शहरों को मटियामेट कर दिया। इस घिनौनी हरकत से उपजी कड़वाहट भरी खटास अब उससे न निगलते बन रही है न उगलते। 

इस सबसे यह तो स्पष्ट है कि आग लगाना आसान है और उसे बुझाना बहुत टेढ़ी और करेले की कड़ी खीर है। 

साहित्य और कला सब शांति काल में ही सम्भव है। इस कारण जो साहित्यकार शोषण, संत्रास, घरेलू पीड़ा और युद्ध ग्रस्त क्षेत्र की चीख पुकार को सुन रहे हैं। उनके कन्धों पर, युद्ध स्थिति और काल में हस्तक्षेप कर, लेखन का बहुत बड़ा दायित्व है। 

                                                           

रामा तक्षक, नीदरलैंड्स

हार्दिक आभार संस्कार न्यूज।

प्राकृत दिवस कैसे मनाएं ?

 श्रुत पञ्चमी से शुरू हुआ प्राकृत भाषा दिवस का इतिहास


✍️प्रो.डॉ अनेकांत कुमार जैन ,नई दिल्ली



                          णमो धरसेणाणं य भूयबलीपुप्फदंताणं सयय ।

 सुयपंयमीदियसे य लिहीअ सुयछक्खंडागमो ।।


श्रुत पंचमी के दिन भगवान महावीर की मूल वाणी द्वादशांग के बारहवें अंग दृष्टिवाद के  अंश रूप श्रुत अर्थात् षटखंडागम को लिखने वाले आचार्य पुष्पदंत और भूतबली तथा उन्हें श्रुत का ज्ञान देने वाले उनके गुरु आचार्य धरसेन को मेरा सतत नमस्कार है ।


वास्तव में यह एक आश्चर्य जनक घटना थी,अन्यथा आज हमारे पास मूल वाणी के नाम पर कुछ नहीं होता | आचार्य धरसेन यदि श्रुत रक्षा के लिए आचार्य पुष्पदंत और भूतबली को अपने पास न बुलाते , उन्हें भगवान् की मूल वाणी न सौंपते और वे षटखंडागम ग्रन्थ को लिपि बद्ध न करते तो अन्य ग्यारह अंगों की भांति यह भी लुप्त हो जाता | प्राकृत भाषा में रचित षटखंडागम की रचना करके उन्होंने न सिर्फ श्रुत ज्ञान की रक्षा की बल्कि जैन आगमों की भाषा ‘प्राकृत’ की भी रक्षा की | यही कारण है कि श्रुत पञ्चमी के दिन को प्राकृत भाषा दिवस के रूप में भी मनाया जाता है |


सभी भाषाओं की जननी जनभाषा प्राकृत


महाकवि वाक्पतिराज (आठवीं शताब्दी) ने प्राकृत भाषा को जनभाषा माना है और इससे ही समस्त भाषाओं का विकास स्वीकार किया है। गउडवहो(गाथा ९३) में वाक्पतिराज ने कहा भी है -


सयलाओ इमं वाआ विसन्ति एक्तो य णेंति वायाओ।

एन्ति समुद्दं चिय णेंति सायराओ च्चिय जलाईं।।


अर्थात् 'सभी भाषाएं इसी प्राकृत से निकलती हैं और इसी को प्राप्त होती हैं। जैसे सभी नदियों का जल समुद्र में ही प्रवेश करता है और उससे ही (वाष्प रूप में) बाहर निकलकर नदियों के रूप में परिणत हो जाता है।


आगमों की भाषा प्राकृत


प्राकृत भाषा भारत की प्राचीनतम भाषा है जिसने भारत की अधिकांश क्षेत्रीय भाषाओँ को समृद्धि प्रदान की है | भगवान् महावीर की दिव्यध्वनि में जो ज्ञान प्रकट हुआ वह मूल रूप से प्राकृत भाषा में संकलित हैं  जिन्हें प्राकृत जैन आगम कहते हैं | सम्पूर्ण द्वादशांग इसी भाषा में है |सिर्फ जैन आगम ही नहीं बल्कि प्राकृत भाषा में लौकिक साहित्य भी प्रचुर मात्रा में रचा गया क्यों कि यह प्राचीन भारत की जन भाषा थी |‘प्राकृत’ का समृद्ध साहित्य है, जिसके अध्ययन के बिना भारतीय समाज एवं संस्कृति का अध्ययन अपूर्ण रहता है। इस भाषा में कथा और काव्य साहित्य भरा पड़ा है ।आयुर्वेद ,गणित ,भूगोल ,जीवविज्ञान ,भौतिक विज्ञान ,रसायन शास्त्र,आहार विज्ञान,संगीत,ज्योतिष तंत्र मन्त्र  आदि अनेक विषयों पर प्राकृत साहित्य में प्रचुर सामग्री है |


प्राकृत भाषा का संरक्षण किसकी जिम्मेवारी ?


आश्चर्य होता है कि भारत वर्ष की प्राचीन मूल मातृभाषा होने के बाद भी आज इस भाषा का परिचय भी भारत के लोगों को नहीं है | प्राकृत परिवर्तन प्रिय भाषा थी अतः वह ही काल प्रवाह में बहती हुई अपभ्रंश के रूप में हमारे सामने आई तथा कालांतर में वही परिवर्तित रूप में  राष्ट्र भाषा हिंदी के रूप में ,हिंदी के विविध रूपों में हमें प्राप्त होती है | प्राकृत भाषा ने लगभग सभी क्षेत्रीय भाषाओँ को समृद्ध किया है | 


आज भाषा के क्षेत्र में बहुत काम हो रहा है | संस्कृत, हिंदी आदि भारतीय भाषाओँ के रक्षण की भी बात बहुत होती है और कार्य भी बहुत हो रहे हैं किन्तु प्राकृत भाषा की संपदा को बचाने और समृद्ध करने की दिशा में अभी वैसे कार्य न तो सामाजिक स्तर पर हो रहे हैं और न ही राजकीय स्तर पर |


जब लोग किसी प्राचीन भाषा और संस्कृति की उपेक्षा करने लग जाएं तो उसके उद्धार के लिए किसी न किसी मसीहा को जन्म लेना पड़ता है । भगवान् महावीर के उपदेशों की भाषा जिसमें सम्पूर्ण मूल जिनागम रचा गया ऐसी भारत की सर्व प्राचीन और सर्व भाषाओं की जननी प्राकृत भाषा जब अपने ही भारत में ही इतनी  उपेक्षित होने लगी कि लोग यह भी भूल गए कि नमस्कार मंत्र किस भाषा में रचित है तब उस जननी जनभाषा प्राकृत के उद्धार के लिए 21वीं सदी  में सिद्धांत चक्रवर्ती आचार्य विद्यानंद जी ने मसीहा का कार्य किया और आज ऐसा दिन आ गया है कि कुछ लोग प्राकृत भाषा का महत्व समझने लगे हैं ,उसे पढ़ना लिखना सीख रहे हैं , कई मुनि और विद्वान् इस भाषा में नयी रचनाएं भी कर रहे हैं ।वर्तमान में नई शिक्षा नीति में भी प्राकृत भाषा के महत्त्व को स्वीकार किया गया है । 


प्राकृत दिवस का इतिहास


श्रुत पञ्चमी के दिन को प्राकृत भाषा दिवस के रूप में भी मनाने का संकल्प 1994 में प्रारंभ हुआ | नई दिल्ली में कुन्दकुन्द भारती परिसर में आचार्य विद्यानंद मुनिराज के पावन सान्निध्य में दिनांक 28-30 अक्टूबर 1994 को राष्ट्रिय शौरसेनी प्राकृत संगोष्ठी में विद्वान डॉ.फूलचंद जैन प्रेमी ,जी वाराणसी ने प्रस्ताव रखा कि हिंदी दिवस ,संस्कृत दिवस की तरह प्राकृत भाषा और उसके विकास के लिए प्राकृत-दिवस के रूप में श्रुत पञ्चमी ( ज्येष्ठ शुक्ल पञ्चमी) का दिन प्रति वर्ष मनाया जाय | डॉ.रमेशचंद जैन जी,बिजनौर ने इस प्रस्ताव का समर्थन किया और आचार्य विद्यानंद मुनिराज के आशीर्वाद से १९९५ से यह दिन प्राकृत दिवस के रूप में भी आज तक मनाया जा रहा है |


( देखें-प्राकृत विद्या ओक्टुबर-दिसंबर १९९४ ,पृष्ठ ७३ पर प्रकाशित संस्तुति संख्या पांच  )


प्राकृत भाषा को पहचानने के पांच स्वर्णिम नियम


वर्तमान में यह एक सुखद समाचार है कि प्राकृत आगमों का स्वाध्याय समाज में बढ़ा है किन्तु प्राकृत भाषा के ज्ञान तो दूर उसके सामान्य परिचय के अभाव में कई चीजें समझ नहीं पाते हैं | मैंने अक्सर बड़े बड़े पोस्टरों,बैनरों यहाँ तक कि दीवालों पर खुदा हुआ भी गाथाओं का अशुद्ध पाठ देखा है |जैसे चत्तारि पाठ में ‘मंगलं’ के स्थान पर  ‘मंगलम्’ लिखा रहता है | अतः हमें इस भाषा का सामान्य ज्ञान अवश्य होना चाहिए ताकि अशुद्धि न हो | इसके लिए मैं मात्र प्रमुख पांच नियम यहाँ आपको समझने के लिए दे रहा हूँ ताकि आप इस भाषा को पहचान तो सकें -


१. प्राकृत भाषा में हलंत (  ्‌ ) का प्रयोग कभी नहीं होता । जैसे प्राकृत में *मंगलम् कभी भी और कहीं भी नहीं लिखा जाता है । हमेशा मंगलं लिखा जाता है ।*


२.  कभी भी विसर्ग ( : ) का प्रयोग नहीं होता है जैसे *रामः कभी नहीं लिखा जाता हमेशा *रामो लिखा जाता है ।


३. हमेशा एकवचन और  बहुवचन का प्रयोग होता है कभी द्विवचन का प्रयोग नहीं होता ।


४. स्वरों में *ऐ,औ,अ:,लृ,ॡ और ऋ, ॠ का प्रयोग कभी नहीं होता ।


५. व्यंजन में  *ञ् ,ङ् , क्ष ,त्र , ष का प्रयोग नहीं होता। मागधी प्राकृत को छोड़कर कहीं भी *श का प्रयोग भी नहीं होता ।


 

प्राकृत दिवस कैसे मनाएं ?

श्रुत पञ्चमी के पावन दिन प्राकृत दिवस मनाने का शुभ संकल्प हम सभी को अवश्य करना चाहिए |

👉 इस दिन प्राकृत की पांडुलिपियों  के संपादन,अनुवाद एवं प्रकाशन की योजनायें बननी चाहिए ताकि शेष ग्रन्थ भी स्वाध्याय हेतु सामने आ सकें |

👉 प्राकृत भाषा सिखाने की कार्यशाला होनी चाहिए ताकि लोग आगमों को स्वयं पढ़ सकें | प्राकृत कवि सम्मेलन होने चाहिये |

👉 मंदिरों,स्वाध्याय भवनों,संस्थाओं में दीवारों पर प्राकृत गाथाएं ,सुभाषित स्वर्ण अक्षरों में लिखवाने चाहिए ताकि आम जन उससे लाभान्वित हो सकें | नयी पीढ़ी में संस्कार पड़ सकें |

👉 मूल आगम गाथा पाठ  का आयोजन करना चाहिए |

👉 गाथाएं कंठस्थ करने की प्रतियोगिताएं रखनी चाहिए |

👉 जय जिनेन्द्र की तरह प्राकृत में जयदु जिणिन्दो / णमो जिणाणं अभिवादन करना चाहिए |

👉 कार्यक्रमों के प्रारंभ में प्राकृत मंगलाचरण अवश्य करना चाहिए |

इसके अलावा अन्य अनेक व्याख्यान,संगोष्ठी आदि के द्वारा इस पावन दिन को यदि उत्साह पूर्वक हम करते हैं तो उससे जन जागृति होती है | हमारी वर्तमान और आने वाली पीढ़ी जिन्हें अब हिंदी समझना भी दुश्वार हो गया है उनके बीच यदि हम वर्तमान और भविष्य के लिए भाषा ,संस्कृति,संस्कार,ज्ञान,जीवन मूल्य  और जिनवाणी सुरक्षित रखना चाहते हैं तो ये प्रयत्न हमें करने ही होंगे |

प्राकृत विद्या भवन ,जिन फाउंडेशन,छत्तरपुर एक्सटेंशन,

नई दिल्ली -110074, drakjain2016@gmail.com

"भीड़ भरी सड़क पर

 "मुक्तक "


"भीड़ भरी सड़क पर 

बिल्डिंग के संजाल में होंगे

 दो कमरे हमारे भी 

वह देखती है हर सुबह 

यह ख्वाब 

उसकी नींद टूटती है 

पड़ोसी के चिल्लाने से

 जो है उसका मालिक मकान ।।


"सूद में गए दिन 

दिन गुजरने पर पता चला 

एक और "सूद " चुका दिया 

दिन-दिन गिन कर आखिर

 कितना सूद बाकी है?

 तिल -तिल जी कर भी 

नहीं मिल पाएगी 

सूद और मूल से मुक्ति ।।"


"दोस्त ने देखा था एक सपना

 जिसमें था एक घर अपना 

जहां थी बच्चों की भरमार

 अपनों का प्यार 

थे अपने भी दो -चार यार 

लेकिन कब होगा सपना पूरा

 दोस्त भी कहेंगे 

जिसे घर अपना !"

 श्रीमती राजकुमारी वी. अग्रवाल शुजालपुर मंडी मध्य प्रदेश

अपने मूल के प्रति उच्च भाव रखें


अपने मूल के प्रति उच्च भाव रखें


हम में से अनेक गोत्र वर्षों या यूँ कहें कि सदियों पूर्व राजपूत, जाट, यादव, ब्राह्मण आदि से आये, जिन्होंने बड़े अहोभाव से जैन जीवन की पद्धति को अपनाया। जो राजपूतों से जैन बने, उन्हें आज भी गर्व है कि हम राजपूत थे व उन्हें अपने राजपूत होने के प्रति आज भी आदर का भाव है। वैसे ही अन्य जातियों से आये लोगों में अपने-अपने मूल वंशजों के प्रति गर्व व आदर का भाव विद्यमान है। 

हमें अपने मूल पूर्वजों के प्रति द्वेष व अनादर का नहीं वरन् श्रद्धा व आदर का भाव रखना चाहिए। 

स्थानकवासी व तेरापंथ के अनुयायियों को मूर्तिपूजक संघ से रत्ती भर भी दुर्भावना नहीं रखनी चाहिए। अपने पूर्वजों के प्रति गर्व व आदर का भाव रखना हमारी संस्कृति है। हमारे अस्तित्व के जो मूल हैं, उनके प्रति सदैव हमें उच्च भाव रखना चाहिए। 

हमारे स्थानकवासी तथा तेरापंथी संतों को भी मूर्तिपूजक संतों के प्रति गर्व व आदर भाव रखना चाहिए। जैन धर्म तथा संस्कारों में किसी के प्रति घृणा, वैमनस्य अथवा दुर्भावना आदि रखने का निषेध है तथा अनजान में भी हो जाये तो उसका स्मरण कर क्षमायाचना करना नित्यकरणीय कार्य है।

हमारे स्थानकवासी संतों को भी मूर्तिपूजक संतों के प्रति आदर भाव रखना चाहिए। कारण, उनके गुरू ने उन्हीं से पृथक होकर अपनी नई विचारधारा को अंगीकार किया था। वैसे ही तेरापंथ के संतों को भी स्थानकवासी व मूर्तिपूजक संतों के प्रति आदर भाव रखना चाहिए। उनके पास जो भी शास्त्र व ज्ञान है, मूल में तो मूर्तिपूजक संघ की देन है, अतः उनके प्रति कृतज्ञता के भाव तो अवश्य रखने ही चाहिए। जैन दर्शन में अनेकान्तवाद के सिद्धांत के अनुसार अंशतः सत्य को पूर्ण सत्य मानने से हठधर्मिता और विद्वेष का जन्म होता है, जो त्याज्य है।

कुछ सिद्धांतों अथवा आचार पद्धति में मतभेदों से नये संप्रदायों का जन्म हुआ, परन्तु इससे मनभेद नहीं होना चाहिए। जैन समाज में समरसता और एकजुटता के लिए यह अत्यावश्यक है। 

एक गृहस्थ को अपने पिता, पितामह, प्रपितामह ही नहीं दस पीढ़ी सौ पीढ़ी ही नहीं हजारवीं पीढ़ी से पूर्व की पीढ़ियों के प्रति कभी घृणा या अनादर का भाव नहीं आता, वरन् आदर व गर्व का भाव ही रहता है। अतः हमें अपने मूल को नहीं भूलना चाहिए एवं उसके प्रति अहोभाव तथा गर्व का भाव विद्यमान रखना चाहिए।

ललित कुमार नाहटा 

 सम्पादकीय- स्थूलिभद्र संदेश


मई 2023

 ये आंवले का वृत्ताकार छल्ला हमारे प्राचीन पूर्वजों द्वारा सौंपी गई समृद्ध विरासत का हिस्सा है। आंवले से बने हिस्से में 2 या 4 छल्लेअंगूठी के आकार के इस छल्ले को जो आंवले की लकड़ी से बनी होती है को कुएं के सबसे निचले डुबाते हैं, क्योंकि आयुर्वेद के अनुसार आंवले की लकड़ी उत्कृष्ट जल शोधक है। ये कुएं के पानी को मीठा भी बनाता है। अब कुएं विलुप्त हो रहे हैं तो शायद यह विधा भी खत्म हो जाए ।


पर आवले की लकड़ी के इन गुणों को ग्रहण करना या समझना आवश्यक है प्रकृति के प्राकृतिक रूप को अंगीकार करने के लिए

प्रेषक= विपुल जैन हरबर्टपुर

ब्र. रामप्यारी देवी कौशम्बी (उ.प्र ) को क्षुल्लिका दीक्षा प्रदान

 श्रुत पंचमी महापर्व के पावन अवसर पर श्री जिनवाणी की भव्य शोभायात्रा शहर में निकाली गई एवं श्रुतज्ञान  वर्ध्दक विधान   अनुष्ठान बड़ी ही भक्ति भाव से किया गया एवं प.पू. झारखण्ड राजकीय अतिथि श्रमण मुनि श्री विशल्यसागर  जी गुरुदेव के करकमलों से




श्रुत पंचमी महापर्व के पावन अवसर पर श्री जिनवाणी की भव्य शोभायात्रा शहर में निकाली गई एवं श्रुतज्ञान  वर्ध्दक विधान   अनुष्ठान बड़ी ही भक्ति भाव से किया गया एवं प.पू. झारखण्ड राजकीय अतिथि श्रमण मुनि श्री विशल्यसागर  जी गुरुदेव के करकमलों से ब्र. रामप्यारी देवी कौशम्बी (उ.प्र ) को क्षुल्लिका दीक्षा प्रदान की गई एवं उनका धवल श्री माता जी नाम रखा गया । मुनि श्री ने इसी दीक्षा प्रसंग पर सम्बोधित करते हुए कहा कि आज देश या विश्व के लिए अणुबमों की नही अणुव्रतों की जरूरत है । वस्तुतः अणुव्रतों से ही विश्व में शांति और अमन चैन हो सकता है व्रत नियम संयम ही मानव जीवन का श्रृंगार है । कहा की है नियम और संयम के बिना प्राणी पशु तुल्य है उन्होंने कहा कि दीक्षा का अर्थ है इच्छा का समापन, संसारिक वासनाओं की तिञ्जालि , कषायों का शमन, आत्म विशुद्ध का आयाम , मानवता का चरमोत्कर्ष,भगवान बनने की प्रक्रिया का नाम है जैनेश्वरी दीक्षा

हरि की माँ

 लघुकथा

हरि को गोद में आए केवल दस महीने हुए थे जब हरि का बाप उसे हमेशा के लिए छोड़कर चला गया। हरि की माँ ने हिम्मत नहीं हारी। हरि की माँ हरि के लिए डटकर खड़ी रही। हरि की माँ को कई बार मरने के हालात से गुज़रना पड़ा पर हरि की माँ नहीं मरी।

हरि की माँ बीते बाईस बरस मर-मरकर ज़िंदा रही। हरि की माँ मर सकती ही नहीं थी, उसे हरि को बड़ा जो करना था।

हरि बड़ा हो गया। हरि ने शादी कर ली। हरि की घरवाली पैसेवाली थी। हरि उसके साथ, अपने ससुराल में रहने लगा। हरि की माँ फिर अकेली हो गई।

हरि की माँ की साँसें उस रोज़ अकस्मात ऊपर-नीचे होने लगीं। हरि की माँ की पड़ोसन अपनी बेटी की मदद से किसी तरह उसे सरकारी अस्पताल ले आई। हरि की माँ को जाँचकर डॉक्टर ने बताया, ज़िंदा है, साँस चल रही है।

हरि की माँ नीमबेहोशी में बुदबुदाई, ‘साँस चलना याने ज़िंदा रहना होता है क्या?’


संजय भारद्वाज


माँ सम और नहीं कोई दूजा

 माँ  सम  और  नहीं  कोई  दूजा 

क्यों करते हो किसी और की पूजा।


माँ ही आदी माँ ही अनादि 

माँ निर्गुण माँ गुणों की खान 

माँ सत्य माँ मुक्तिधाम 

माँ चरण सम सुख नहीं दूजा

क्यों करते हो किसी और की पूजा।


माँ सम और नहीं कोई दूजा...


माँ ही वंदन माँ ही चंदन 

माँ करुणा माँ कृपानिधान 

माँ जादू माँ शक्तिमान 

माँ सीख सम धन नहीं दूजा 

क्यों करते हो किसी और की पूजा।


माँ सम और नहीं कोई दूजा - - - 


माँ ही प्रेम माँ ही ईश्वर

माँ अमृत माँ जीवन ज्योति 

माँ शून्य माँ पूर्ण विराम

माँ आँचल सम छतर नहीं दूजा 

क्यों करते हो किसी और की पूजा।


माँ सम और नहीं कोई दूजा - - -


राजेन्द्र शर्मा 


माँ शब्द में सृष्टि समाई।



ऊँ शब्द में ब्रह्मांड समाया

माँ  शब्द में  सृष्टि  समाई।

माँ का रिश्ता अतुलनीय है 

माँ जैसा कुछ भी ना पाई।


इस रंग बदलती दुनिया में 

ऐसे   कितने  रिश्ते  देखे ।

वात्सल्य,और दया,त्याग का 

हमने संगम   कहीं ना देखे  ।


दुनिया काँटो जैसी लगती

मेरी माँ,जैसे कोई फुलवारी ।

बच्चों की सुख की खातिर,

वह अपना सुख बलिहारी।


कभी चाँदनी की शीतलता,

कभी सुरज   सी  उष्णता।

जैसे कुम्हार बर्तन सवांरता,

वही गुण मां में भी दिखता।


स्वर्ग से सुन्दर लगता है घर,

जिस घर   में माँ   होती है।

माँ बिना,जो बच्चे पले-बढ़े 

उनसे पूछो,माँ क्या होती है ।


मेरी लेखनी में कहां दम है,

जो मैं माँ का करुँ बखान।

जन्म दिया,जीवन सँवारा,

मुझे दिखे उसी में भगवान।


डॉ कुमारी कुन्दन 

पटना (बिहर)

मां


वात्सल्य में गगन सा विस्तार है

नहीं इसका कोई पार है 

सहनशीलता में धरा सी तुम हो मां

प्रकृति की अथाह देन सा ,  त्याग तुम्हारा

सीख का तुम अथाह सागर 

सरिता सी निर्मलता तुम्हारी।

 मां तुम कितना कुछ देती हो हम समझ न पाए

उम्र की हर सीढ़ी चढ़ते उन गुणों का दीदार था

जीवन शैली तुमसे प्रभावित

तुम्हारे ही गुणों का प्रकाश था

सफलता का राज, सीखें तुम्हारी

धैर्य साहस का जामा तुम्ही ने पहनाया

शनै शनै तुमने बहुत कुछ सीखाया

व्यक्तित्व मेरा,दर्पण में छबि तुम्हारी

मेरे जीवन का उत्तरोत्तर विकास तुम हो

तुम जननी भी सखा भी गुरु भी हमारी

भगवान ने किस रूप में तुमको ढाला 

चमत्कृत तुमसे स्वयं भगवान है।

हंसा मेहता इंदौर

सावन की बरसात है मां


कैसे बतलाऊं मैं तुमको,

                कैसी ममता होती मां की।

जग सारा महिमागान करे,

                 कैसी सूरत होती मां की।।

बिन मां सूना संसार लगे,

               जग-प्रेम अधूरा प्यार लगे।

आंखों से अश्रुधार बहे, 

             जननी जग की आधार लगे।।

वात्सल्य लिए निज आंचल में,

              पुचकार  लगाती  रहती हैं।

ख़ुद ठिठुर ठिठुरकर ठंडक में, 

                जाड़े की रात बिताती है।।

गीले बिस्तर पर सोती खुद मां ,

               सूखे पर लाल सुलाती है।

मां जग जननी दिल की सुनती,

              नित संस्कार सिखलाती है।।


बिन माता के लगता यारों,

                 मुझको संसार अधूरा सा।

माता यदि नहीं रही जग में,                 

               सोना भी लगता कूड़ा सा।।

मानव की क्या बात करें,

                 ईश्वर भी मां को तरसा है।

लीलाधर ने लीलाएं की,

                आंचल पाने को तड़पा है।।

मेरे मन की स्मृतियों में,

                 यादों का सुन्दर उपवन है।

अनुभूति सुखद अन्तर्मन में,

                 बरसे आंखों से सावन है।।

जीवनदायिनी हे जगजननी,

                    चरणों में तेरे नित सोया।

यादों में जब जब आयी मां,

                 आंसू से चरणों को धोया।।


प्रभु की पवित्र पावन रचना,

                कर जोर करें प्रभु ही वंदन।

ममता के पावन मूरत का,

            करता सारा जग अभिनन्दन।।

मां सुख एहसास भी है,

               रहती जो हरपल पास सदा।

परमात्मा का साक्षात रुप,

                रखती सिर पर हाथ सदा।।

दुर्गा काली वो जगदम्बा,

               वो आदिशक्ति है महामायी।

प्रकृतिस्वरुपा धारीत्री,

                ब्रह्माण्ड उदर में ठहरायी।।

भरती प्रकाश मां जीवन में,

                निराशा में इक आस है मां।

रेत से तपते जीवन में,

                 सावन की बरसात है मां।।


जग की सब माताओं को,

            कवि विशू करे निसदिन वंदन।

कोमल स्पर्श स्पंदन में,

           जैसे  मिश्रित   रहता   चंदन।।

कर जोर करुं आरती हे मां,

           मम अवगुण हृदय नहीं रखना।

मैं अधम पतित, तू पावन मां,             

         सिर पर निज हाथ सदा रखना।।

तेरे कोमल स्पर्श से मां,

              दुःख  दूर  मेरे  हो जाते  हैं।

तेरे आंचल की छांव में मां,

          संताप  सभी   मिटजाते  हैं ।।            

 कुमार@विशु


माँ और बेटी

  

मातृ दिवस पर प्रेरक कहानी

एक सौदागर राजा के महल में दो गायों को लेकर आया - दोनों ही स्वस्थ, सुंदर व दिखने में लगभग एक जैसी थीं। 

सौदागर ने राजा से कहा "महाराज - ये गायें माँ - बेटी हैं परन्तु मुझे यह नहीं पता कि माँ कौन है व बेटी कौन - क्योंकि दोनों में खास अंतर नहीं है।

मैंने अनेक जगह पर लोगों से यह पूछा किंतु कोई भी इन दोनों में माँ - बेटी की पहचान नहीं कर पाया 

बाद में मुझे किसी ने यह कहा कि आपका बुजुर्ग मंत्री बेहद कुशाग्र बुद्धि का है और यहाँ पर मुझे अवश्य मेरे प्रश्न का उत्तर मिल जाएगा...

इसलिए मैं यहाँ पर चला आया - कृपया मेरी समस्या का समाधान किया जाए।"

यह सुनकर सभी दरबारी मंत्री की ओर देखने लगे मंत्री अपने स्थान से उठकर गायों की तरफ गया। 

उसने दोनों का बारीकी से निरीक्षण किया किंतु वह भी नहीं पहचान पाया कि वास्तव में कौन मां है और कौन बेटी ? 

अब मंत्री बड़ी दुविधा में फंस गया, उसने सौदागर से एक दिन की मोहलत मांगी। 

घर आने पर वह बेहद परेशान रहा - उसकी पत्नी इस बात को समझ गई। उसने जब मंत्री से परेशानी का कारण पूछा तो उसने सौदागर की बात बता दी।

यह सुनकर पत्नी  हुए बोली 'अरे ! बस इतनी सी बात है - यह तो मैं भी बता सकती हूँ ।'

अगले दिन मंत्री अपनी पत्नी को वहाँ ले गया जहाँ गायें बंधी थीं। मंत्री की पत्नी ने दोनों गायों के आगे अच्छा भोजन रखा - कुछ ही देर बाद उसने माँ व बेटी में अंतर बता दिया - लोग चकित रह गए। मंत्री की पत्नी बोली "पहली गाय जल्दी - जल्दी खाने के बाद दूसरी गाय के भोजन में मुंह मारने लगी और दूसरी वाली ने पहली वाली के लिए अपना भोजन छोड़ दिया, ऐसा केवल एक मां ही कर सकती है - यानि दूसरी वाली माँ है। 

माँ ही बच्चे के लिए भूखी रह सकती है - माँ में ही त्याग, करुणा, वात्सल्य, ममत्व के गुण विद्यमान होते है.....

माँ ममता का सागर नही..पर महासागर है..!!

 


जब भी माँ देती है थपकी ।

 जब भी माँ देती है थपकी ।

तभी शिशु लेता है झपकी ।।

रुदन शिशु करता जब भी,

वात्सल्य उँड़ेंले माता ।

माँ जैसे ही देती थपकी,

मधुर-शांति-रस पाता ।।

हलकी हलकी थपथपाहट से,

पाता है वह चैन ।

और सुनाती लोरी के माँ,

मीठे मीठे बैन  ।।

संग दुलार निद्रा का भी,

बंद करवा देता नैन ।

शिशु नहीं सो पाये जब तक,

रहती माँ बेचैन ।।

ममता का संपूर्ण खजाना,

करती जननी अर्पण ।

जैसे शांत-कमल-सा-मुखड़ा ही,

है उसका दर्पण  ।।

रोते हुए देख शिशु को, 

सब्र तोड़ माँ लपकी ।

उसे शयन करवाने हेतु,

देती हलकी थपकी ।।

(स्वरचित/मौलिक/अप्रकाशित)

 बृजेन्द्र सिंह झाला"पुखराज"

     कोटा (राजस्थान)

मानस' की चौपाईयों का हिन्दी की ठेठ खड़ीबोली में अनुवाद


डॉक्टर मीरा गौतम और डॉक्टर नीलम जैन तुलसीदास कृत   'रामचरितमानस' की चौपाईयों का अनुवाद हिन्दी की  ठेठ खड़ीबोली में करेंगी. 

 ' श्री रामचरित भवन ' ह्यूस्टन अमेरिका से मिली  जानकारी के मुताबिक संस्था के अध्यक्ष श्री ओम गुप्ता जी ने यह दायित्त्व उन्हें सौंपा है.हिन्दी की यह  ठेठ खड़ीबोली पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सहारनपुर, मुज़फ्फरनगर, खतौली, शामली ,बड़ौत,बागपत और मेरठ   जनपदों  में बहुतायत से बोली जाती है. विदित हो कि ' मानस ' की चयनित 1008 चौपाईयों का अनुवाद अवधी,बॉंग्ला, भोजपुरी ,तेलुगू आदि भारत की प्रांतीय बोली में हो चुका है

अध्यक्ष श्री ओम गुप्ता जी ने इस  अनुवाद कार्य का उद्देश्य स्पष्ट करते हुए बताया कि   'रामचरितमानस' विश्व की महान कृति है. यह सामाजिक सम्बन्धों का इनसाईक्लोपीडिया है.उन्होंने कहा कि  वर्तमान समय में युवापीढ़ी  इस महान ग्रंथ के प्रति जिग्यासु हो और इसके सही मर्म को आत्मसात करे. 

प्रोफेसर मीरा गौतम और डॉक्टर नीलम जैन ने  इस अनुवाद-कर्म की सहर्ष स्वीकृति दे  दी है.

गीत पुस्तक -काव्य समग्र-गीत का लोकार्पण

 दिनाँक 5 मई 2023, सांय 4 बजे माननीय श्री बी एल गौड़ जी की गीत पुस्तक -काव्य समग्र-गीत का लोकार्पण इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र, जनपथ, नई दिल्ली में पद्मश्री राम बहादुर राय की अध्यक्षता में सम्पन्न हुआ।

मुख्य वक्ताओं में थे -प्रो रमा, प्राचार्य, हंसराज  कालेज, दिल्ली विश्वविद्यालय, डॉ ओम निश्चल,प्रसिद्ध गीतकार व समीक्षक तथा जाने माने वरिष्ठ गीतकार व गजलकार श्री बालस्वरूप राही । तीनों ही विद्वानों ने पुस्तक में समाहित 155 गीतों में से अनेक गीतों पर चर्चा की और डॉ ओम निश्चल ने तो सस्वर गीत पाठ भी किया। उन्हें पुस्तक का परिचय कराने के लिए अध्यक्ष महोदय का आदेश  हुआ तो उन्होंने अपने एक गीत - पंखुरी की देह पर /ओस के कण देखकर /एक पल को यों लगा /ज्यों किसी ने थामकर आंसू किसी के /ला बिखेरे फूल पर - सुनाकर पुस्तक में कैसे गीत हैं यह बताया।

अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में राय साहब ने भी दो गीतों की चर्चा की । सारा कार्यक्रम प्रो रमेश गौड़ जी की देखरेख  में लगभग दो घंटे में सम्पन्न  हुआ। लगभग 100 काव्य प्रेमियों, साहित्यकारों,गजलकारों ने कार्यक्रम  में शामिल  होकर उनका और उनकी पुस्तक  का मान बढ़ाया। उनमें से कुछ नाम इस प्रकार हैं - डॉ उपेंद्र नाथ रैणा; डॉ हरीश सिंह पाल ; डॉ राकेश पाण्डेय; डॉ अनिल चतुर्वेदी; श्री तरुण कुमार; प्रसिद्ध वकील श्री दर्शनानंद गौड़; श्री नारायण कुमार अंतरराष्ट्रीय सहयोग परिषद से ; चाणक्य पत्रिका के संपादक डॉ अमित  जैन; नेशनल एक्सप्रैस के संपादक श्री विपिन गुप्ता; डॉ अनीता व श्री विजय श्रीवास्तव; श्री राजेन्द्र  निगम व श्रीमति निगम; अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त कवित्रियां डॉ सरिता शर्मा व डॉ कीर्ति काले ; डॉ जगदीश व्योम, इनके अतिरिक्त सुश्री चंदा राउल प्रसिद्ध उड़िया नृत्यांगना ; प्रसिद्ध  गजलकार श्री विज्ञान व्रत भी सम्मिलित हुए।

अपना अपना काम कीजिए....

 अपना अपना काम कीजिए....

आप चाहे किसी संस्था में कितने घंटे मर्जी ड्यूटी बजा आओ, होते तो आप पदेन ही हैं। पद का दायित्व निभाते हैं इसलिए बदले में पांच, चार और तीन अंकों का वेतन, सेलरी, तनख्वाह पाते हो फिर चाहे ए, बी, सी और डी किसी भी वर्ग के सेवक क्यों न हो। सेवक सेवक ही होता है, वह मालिक हो ही नहीं सकता, हां अपने से एक स्तर नीचे वाले के साथ वह जरूर मालिकाना व्यवहार करता है। कोई सरकार का सेवक है तो कोई सेठ का और कोई मालिक का। और जो अपने निजी व्यवसाय में लगे हैं , वे भी स्वतंत्र नहीं है, वे अपने मालिक स्वयं दिखते भले हों पर वे भी किसी के अधीन अवश्य होते हैं। ये दुनियावी मालिक, स्वामी, सर हो सकते हैं पर हम सब का मालिक, रखवाला, स्वामी तो परम पिता ईश्वर ही है। उसी ने हमें ये पदेन दायित्व सौंपे हैं। कभी कभी एक ही समय में आप एक से अधिक पदों में होते हैं और सभी के साथ न्याय करने की, उनके मध्य संतुलन बिठाने की भरपूर कोशिश करते हैं। कभी सफलता मिलती है कभी सब बिखर जाता है, रूठामटकी होती है, शिकवा शिकायत होती है तो कभी गाडी पटरी पर आ जाती है और अपनी गति से छुक छुक चलती रहती है।

आप एक ही समय में कई कई रूपों में होते हैं। परिवार, नाते रिश्तेदारी, समाज, कार्य स्थल। पारिवारिक रिश्ते के भी कई कई  रूप हैं मसलन बेटी, बहन ,पत्नी और मां , पिता,पुत्र, भाई, पति और अन्य अन्य।आप जिस समय जिस रूप में होते हैं, उसी में अपना सर्वश्रेष्ठ देने की कोशिश करते हैं  पर हमेशा ये संभव नहीं होता । कुछ न कुछ ऊंच नीच चलती रहती है। कुछ न कुछ इतना प्रभावी जरूर हो जाता है कि दूसरा पलड़ा हल्का हो जाता है, कहीं कहीं तो पासंग और डंडी दोनों इतनी सफाई से मार दी जाती हैं कि किसी के संज्ञान में ही नहीं आ पाता। हम सब घर बाहर में इतने इतने बंटे हुए हैं, इतने इतने खाली हो चुके हैं, इतने निर्बल हो चुके हैं कि सब हाथ से फिसलता जाता है, एक को पकड़ते हैं तो दूसरा छूटता लगता है। सब रूपों में संतुलित बने रहना सीखना होता है। ये नाते संभाले रखना भी किसी दायित्व से, किसी पदेन नौकरी से कम नहीं हुआ करता।

 माता पिता भी तो पद ही हैं फिर चाहे वह स्वयं संतान जन्मते मिलते हों या पालित/पालिता बनते। पद की गरिमा में फर्क नहीं ही पड़ना चाहिए पर जाने अनजाने ये भेद शुरू हो ही जाते हैं। सारी कोशिशें बेकार हो जाती हैं। मूल की प्रतिकृति बनने के कितने भी प्रयास कर लो पर कुछ कमी तो रह ही जाती है। असल जैसे तो दिख ही नहीं पाते। मूल पास होता नहीं और उसका स्थान लेने वाले पर दूसरा/दूसरी का ठप्पा/ मोहर लग जाती है। दूसरा/दूसरी का भूत हावी हो जाता है, सब जैसे एक अपराध बोध में जीते रहते हैं। जो है उसे स्वीकार नहीं पाते और छूट चुका है, विगत हो चुका है, स्वर्गीय हो चुका है वह वर्तमान बन नहीं सकता । लगातार अविच्छिन्न रूप से तुलना कभी परोक्ष तो कभी अपरोक्ष, चलती ही रहती है। सबका देखने का नजरिया ही बदल जाता है। अपना पराया शुरू हो जाता है। कभी भी परिस्थिति का आंकलन नहीं किया जाता, दूसरा/दूसरी के मन को नहीं समझा जाता, भावनाओं की परख नहीं की जाती, कार्य करने में निहित भाव को नहीं पकड़ा जाता। बस जब देखो तब आलोचना, प्रत्यालोचना, क्रिटिसिज्म, दोष देखना, तुलना करने का दौर जारी रहता है। देखने की दृष्टि ही बदल जाती है। बहुत मुश्किल होता है पदेन दायित्व को निभाना, आप हर समय सीसीटीवी कैमरों से अधिक अपनों की अन्दर तक बेधती आंखों की जद में रहते हो। आपके अच्छे बुरे कार्य को एक विशेष चश्मे से देखा जाता है। सारे के सारे सन्दर्भ ही बदल जाते हैं। इन सबके बीच अगला स्वयं ही बहुत कांसस हो जाता है। काम करते हाथ कंपकंपाने और कदम डूगलाने लगते हैं। हर क्षण भय लगता है कि कहीं कुछ गलत न हो जाए। अब दायित्व तो दायित्व है फिर चाहे वह पदेन हो या मूल सो अपना काम तो निष्ठा से ही

 करना है। दुनिया से क्या प्रमाणपत्र लेना, बस मन से साफ बने रहिए, अपनी निगाहों में मत गिरिए, किसी को जवाब दें मत दें पर ईश्वर को जवाब तो देना ही होगा। बस उसी के लिए अपने को तैयार रखिए। बाकी दुनिया को अपने हिसाब से चलते रहने दीजिए। कोई फर्क नहीं पड़ता कि आपको लेकर कोई क्या सोचता है। सोचने दीजिए उन्हें, ये उनका काम है। आप तो बस अपना काम करते रहिए।

बीना शर्मा

बढ़ते संबंध विच्छेद कारण निवारण

 बढ़ते संबंध विच्छेद कारण निवारण

शादी एक पवित्र बन्धन है जो केवल दो लोगों को ही एक बंधन में नहीं बाँधता बल्कि दो परिवार को  एक कर देता है। शादी में तो एक रस्म भी है 'मिलनी'। जब दूल्हा घोड़ी पर बैठकर दुल्हन से शादी करने के लिए आता है तो दरवाजे पर सबसे पहले मिलनी की रस्म होती है जिसने मामा, चाचा, भाई हर रिश्तेदार एक दूसरे को तिलक करके गले मिलते हैं। इस तरह से कई रिश्ते नए बनते हैं और जीवनपर्यंत निभाए जाते हैं।

लेकिन आज समय बदल गया है आज जो मुख्य पति पत्नी का रिश्ता होता है उसमे भी विच्छेद होने लगे हैं। जिस रिश्ते को हम सात जन्मों का रिश्ता कहते थे कभी-कभी वह 7 दिन, 7 महीने भी नहीं चल पाते हैं।

आज की युवा पीढ़ी उच्च शिक्षा के साथ, जीवन की मूलभूत शिक्षा रिश्तों को निभाना, सहनशीलता, सीख ही नहीं पाते हैं और रिश्ते बनने से पहले ही टूटकर बिखर जाते हैं। कभी-कभी सगाई से पहले बहुत अधिक दिखावा किया जाता है और शादी होने के बाद दोनों परिवार के बारे में सच्चाई का पता चलता है तो मनमुटाव शुरू हो जाता है।कई बार लड़की के घरवालों का अनावश्यक हस्तक्षेप भी तलाक का कारण बन जाता है।

पति और पत्नी दोनों का जॉब करना और कमाना लेकिन घर का कार्य फिर भी पत्नी ही करें, इस विचार के कारण भी कल कई बार संबंधविच्छेद की नौबत आ जाती है।जहाँ प्रश्न होता है वहाँ उसके जवाब भी होते हैं। जहाॅं कारण होता है वहीं समाधान भी होता है।

पहले के समय में तो दोनों परिवार ऐसी परिस्थिति हो तो एक साथ बैठकर इस समस्या का समाधान निकाल लेते थे लेकिन आज समय बदल गया और बच्चे ही बड़ों की बात नहीं सुन रहे हैं तो समस्या का समाधान कैसे निकलेगा।

बच्चों को समझाना पड़ेगा परिवार का महत्व क्या है, रिश्तो का महत्व क्या है, रिश्ते निभाने के लिए किस तरह से एक दूसरे को त्याग करना पड़ता है। लड़की के परिवार वाले को लड़कों के परिवार में जो अनावश्यक हस्तक्षेप होता है उसको कम करना चाहिए।

लड़के को भी पुरुषवादी मनोवृत्ति से निकलकर गृहकार्य में पत्नी का सहयोग देना चाहिए।

आज की पीढ़ी पहले काम पर और फिर घर आकर भी अपना अधिकतर समय सोशल मीडिया पर और मोबाइल, लैपटॉप में देते हैं। पति पत्नी दोनों एक दूसरे को समझने के लिए समय ही नहीं देते हैं। जब समय ही नहीं देंगे तो हर छोटी बात पर झगड़ा होना निश्चित ही है।

इसलिए पति पत्नी दोनों को चाहिए कि वह एक दूसरे को समय दें और एक दूसरे को समझे।बचपन से ही यदि बच्चों में परिवार और रिश्तो को खुलकर जीने का वातावरण दिया जाएगा तो वही बच्चे बड़े होकर रिश्तो की गरिमा को समझेंगे और किस तरह से रिश्तो को निभाना है यदि यह सीख पाए तो संबंध विच्छेद समस्या खड़ी नहीं होगी।

दोनों ही परिवार के माता-पिता को भी समझना होगा कि समय बदल रहा है और उनकी सोच के अनुसार अपनी सोच में परिवर्तन करना होगा।

कई बार ससुराल में कड़े नियम होते हैं पहनावे और रहन-सहन में। उसके लिए परिवार के बड़ों को थोड़ा विचार में परिवर्तन लाना होगा और समय के दौर के अनुसार स्वयं को बदलना होगा।समस्या की जड़ तक हम पहुँच जाएं इसका समाधान भी अवश्य मिल जाएगा।

इसके लिए सबसे पहले तो पति और पत्नी दोनों को ही समझना होगा कि दुनिया में कोई भी परफेक्ट नहीं होता है और हर व्यक्ति में कुछ ना कुछ कमी और खूबियां होती है उन कमियों और खूबियों को एक साथ समझते हुए ही जीवन आगे बढ़ा जाता है।

छोटी-छोटी बातों का समाधान तो बातचीत करके भी निकाला जा सकता है उसके लिए कोर्ट कचहरी में जाने की कहाँ जरूरत है।

एक दूसरे के लिए समर्पण, एक दूसरे को समझना, एक दूसरे के साथ समय बिताना, एक दूसरे के विचारों का आदर करना, एक दूसरे की परिस्थिति समझना और अत्यधिक गुस्से में कोई भी निर्णय नहीं लेना, मेडिटेशन नियमित रूप से करना, समय और काम में संतुलन बना कर रखना, एक दूसरे के परिवार के सदस्यों का आदर करना, समय-समय पर अवकाश लेकर एक दूसरे के साथ समय बिताना, ऐसी छोटी छोटी बातें अपनाकर भी यह समस्या कम हो सकती है।


शशि लाहोटी, कोलकाता

सखी

 

सखी

बातें करने को सखी से
मन इतना हुआ अधीर
अँखियाँ बदली सी बनीं
भर-भर आये नीर
उलसित मन इतना हुआ
दिल की कुछ धड़कन बढ़ी
जब आई याद सखी
सालों से न देखा था
बातें करनी थीं कई
मन की बस मन में रही
फिर संदेशा फोन पर
आया जब एक दिन
कुछ पल न समझ सकी
रोये, हँसे या क्या करे
जब शब्द ढूंढे मिल न सके
बचपन फिर सजग हो उठा
यादों के पन्ने पलटने लगे
मन पुलकित हुआ
नयन बरसने लगे
पल ठहर से गये
कुछ समय के लिये
जब सखी ने पुकारा उसे
फिर शब्दों का सैलाब
रुक न सका
एक दूजे से कितना 
कुछ कह गयीं
जिसमे सारे शिकवे
गिले बह गये
दूरियाँ मिट गयीं
पल गुजरते रहे
जब बातों के 
चलने लगे सिलसिले 
कुछ अपनी कही
कुछ उसकी सुनी
क्या हुआ जो
मिल न सकीं वह गले।

-शन्नो अग्रवाल


बाकी है

 बाकी है


चंद खुशियों  की हसरत में बेपनाह दर्द बाकी है।
जो बीच रास्ते छोड़ दिया तुमने अभी वो साथ  बाकी है।

जो तुम तक पहुंच न पाई मेरी सदायें बाकी है।
मेरे खामोश लफ्जों की हजारों बातें बाकी है।

थकी आंखों का  लम्बा अभी इंतजार बाकी है।
जो रूह को  सकून दे  जाता तेरा  दिदार बाकी है।

चंद खुशियों  की हसरत में बेपनाह दर्द बाकी है।
जो बीच रास्ते छोड़ दिया तुमने अभी वो साथ  बाकी है।

किस कसूर की दी  है सजा अभी इल्ज़ाम बाकी है।
मौत का दे दिया फरमान अभी हमारी जान बाकी है।

सजदों में  बांधी  उस डोर की अभी वो गांठ बाकी है।
क्यों दुआएं कबूली नही गई वो फरियाद बाकी है।

चंद खुशियों  की हसरत में बेपनाह दर्द बाकी है।
जो बीच रास्ते छोड़ दिया तुमने अभी वो साथ  बाकी है।

हम ने अजमा लिया सब को खुदा का इम्तिहान बाकी है।
इश्क़ का यह सिला है ....क्यों हमारा  फरमान बाकी है।

प्रीति शर्मा 'असीम'
नालागढ़, हिमाचल प्रदेश

कर्मभूमि ही तपोवन मेरा

 बिन फल-इच्छा-निश्छल मन से 

दत्त-चित्त हो पूर्ण लगन से ।

इन्दियाँ एकाग्र निरंतर,

कर्म करूँ नित-नित्य मगन से ।।

कर्म साधना-कर्म ही तप है, 

ज़र्रा-ज़र्रा कर्मभूमि है ।

हौसला है तपोवन मेरा, 

सफलता चरण चूमी है ।।

जिसे समझले ऐरा-ग़ैरा, 

अन्धविश्वास का मिटे अन्धेरा ।

लापरवाही न करे बसेरा,

कर्मभूमि ही तपोवन मेरा ।।

यही एक उत्थान मेरा, 

ऐसा हिन्दुस्तान मेरा ।

राम-कृष्ण की वसुंधरा पर,

कर्मभूमि ही तपोवन मेरा ।।

(स्वरचित/मौलिक/अप्रकाशित)

 बृजेन्द्र सिंह झाला"पुखराज"

                कोटा (राजस्थान)

"सुखी परिवार का रहस्य "

 

लघुकथा

 "सुखी परिवार का रहस्य "

"जापान में" यामातो "नामक एक सम्राट हुए। उनका एक पूर्व मंत्री था जिसका नाम " ओ सो सान"था ! 

 इस मंत्री का परिवार बहुत बड़ा था ।उसके घर पर परिवार की "पांच पीढ़ियों "में कोई "1000" सदस्य थे !"सान" के परिवार की खूबी यह थी कि परिवार के लोग एक ही छत के नीचे , एक साथ  रहते थे । वे मिलजुल कर सारे काम निपटाते और सब के सुख- दु:ख में भागीदार बनते! परिवार के किसी भी सदस्य पर कोई मुसीबत आए तो सभी एकजुट रहते हुए उसका निदान करते हैं! इस परिवार की ख्याती पूरे देश में थी ।

सम्राट ने एक दिन सोचा कि इस परिवार की इतनी ख्याति है,तो क्यों ना इस कारण से जाना जाए। ऐसा सोचकर वह अपने एक मंत्री के साथ "सान" के घर जा पहुंचे! उस समय तक सान बहुत बुजूर्ग हो चुके थे ।

जब उन्होंने "सम्राट" को अपने घर  मे देखा तो उनका यथोचित सत्कार किया और कक्ष में बैठाया। 

सम्राट ने "सान" से पूछा --आपके परिवार की एकता और सौहार्द की कहानियां बहुत सुनी है ?मैं जानना चाहता हूं कि इतने बड़े परिवार में यह सब कैसे संभव हो सकता है ?

कमजोर अवस्था के कारण "सान"कुछ बोल नहीं पाये।उसने अपने "प्रपुत्र "को इशारा कर कागज कलम मंगवाई!

 प्रपुत्र उसकी बताई चीजें ले आया ।"सान "ने कागज पर कुछ लिखने की कोशिश की मगर उसके हाथ कांप रहे थे उसकी वजह से करम नीच गिर गई ।उसने कलम उठाई और कागज पर कांपते हुए हाथों से 3 बार लिखा "सहनशीलता -सहनशीलता -सहनशीलता" सम्राट में जब कागज पड़ा तो "चमत्कृत" रह  गया। 

इसके बाद "सान" ने बुल- बुलाते हुए कहा - यदि "सहनशीलता "का "मंत्र" हमारे पास हो और नीत्य इस मंत्र का जाप किया जाए ,तो एक "परिवार "क्या पूरा "राष्ट्र," कहे तो पूरा "विश्व "इसी तरह

" प्रेम "से रह सकता है!

 आप भी तो एक परिवार की तरह ही है

 यह सुनकर सम्राट को अपनी जिज्ञासा का समाधान मिल गया।"

 श्रीमती राजकुमारी वी.अग्रवाल शुजालपुर मंडी मध्य प्रदेश

अठारह सौ वर्ष प्राचीन अरिहंतगिरि तीर्थ में बारह सौ प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा संपन्न




 अठारह सौ वर्ष प्राचीन अरिहंतगिरि तीर्थ में बारह सौ प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा संपन्न

श्रीमती सरिता एम.के. जैन ने अरिहंतगिरि को बनाया सुविधापूर्ण तीर्थ

भव्यातिभव्य सर्वार्थसिद्धि जिन मंदिर दर्शनीय बना


1800 वर्ष प्राचीन तीर्थ अरिहंतगिरि तिरुमलै (तमिलनाडू) । आचार्यश्री समन्तभद्रजी महाराज की समाधिस्थली, आचार्य अंकलकदेव की विद्या आराधना स्थली अरिहंतगिरि जैन मठ तिरुमलै में सर्वार्थसिद्धि जिन मंदिर पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव भव्यातिभव्य रूप में 3 मई 2023 को संपन्न हुआ। तपश्चर्या चक्रवर्ती आचार्यश्री सुविधिसागरजी, आचार्य श्री गुलाबभूषणजी, युगल मुनि अमोघकीर्ति अमरकीर्तिजी महाराज सहित गणिनी आर्यिका सुविधिमति माताजी, समस्त भट्टारक स्वामी, विद्वानों की उपस्थिति में तीस चौबीसी के सात सौ बीस, विदेह क्षेत्र के बीस तीर्थंकर 458 अकृत्रिम जिनबिम्ब सहित बारह सौ प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा प्रतिष्ठाचार्य पं. प्रदीप जैन मधुर मुंबई, पं. आनंदप्रकाश शास्त्री कोलकाता, पं. वसंत शास्त्रि, पं. श्रीमंधर जैन, पं. जयपाल जैन ने संपन्न कराई ।


दक्षिण भारत के भामाशाह दान चिंतामणि श्रीमती सरिता एम. के. जैन ने बनवाया भव्य जिनालय

अरिहंतगिरि दिगम्बर जैन मठ के भट्टारक चिंतामणि स्वस्तिश्री धवलकीर्ति स्वामीजी के निर्देशन में हुए समस्त कार्यों में श्राविका शिरोमणि श्रीमती सरिता एम.के.जैन चैन्नई ने अरिहंतगिरि तीर्थ के विकास में अपना अभूतपूर्व योगदान दिया है । श्रवणबेलगोलातीर्थ के परम् पूज्य जगदगुरु कर्मयोगी स्वस्तिश्री चारुकीर्तिजी महास्वामी ने भव्य जिनालय की प्रेरणा देते हुए जिनालय का नाम सर्वार्थसिद्धि जिन मंदिर रखा है। उक्त तीर्थ 1800 वर्ष प्राचीन है लेकिन यहां पर किसी तरह की कोई सुविधाएं नहीं थी । श्रीमती सरिता एम. के. जैन परिवार की ओर से तीर्थ के विकास में चार चांद लगाकर जंगल में मंगल कर दिया । तीर्थ पर विशाल जिनमंदिर के साथ ठहरने, भोजन आदि की समुचित व्यवस्थाएं हैं। यहां श्रीमती सरिता एम. के. जैन विद्यालय भी संचालित है जहां पर बच्चे लौकिक, धार्मिक एवं आध्यात्मिक शिक्षा प्राप्त कर रहे है।


भट्टारक चिंतामणि धवलकीर्तिजी का रजत जयंती वर्ष उत्साह से मनाया


विगत 25 वर्ष पूर्व अरिहंतगिरि तीर्थ पर किराये की झोपड़ी में आकर तीर्थ का स्वप्न देखने वाले भट्टारक चिंतामणि स्वस्तिश्री धवलकीर्ति स्वामीजी ने यहां तीर्थ को समुन्नत बनाया । श्रवणबेलगोला के परम पूज्य जगदगुरु कर्मयोगी स्वस्तिश्री चारुकीर्तिजी भट्टारक स्वामीजी ने 25 वर्ष पूर्व स्वस्तिश्री धवलकीर्तिजी को दीक्षा देकर भेजा था। तब यहाँ पर किसी भी प्रकार की सुविधा नहीं थी । स्वस्तिश्री धवलकीर्तिजी अपनी सुझबूझ से व श्रीमती सरिता एम.के. जैन चैन्नई का सहयोग लेकर अभूतपूर्व कार्य किये है। आज तीर्थ पर सभी प्रकार की सुविधाएं उपलब्ध है ।

स्वस्तिश्री धवलकीर्तिजी के दीक्षा रजत जयंती समारोह में समस्त तीर्थों के भट्टारक पहुंचे, जिनमें परम् पूज्य जगदगुरु कर्मयोगी स्वास्तिश्री चारुकीर्तिजी भट्टारक महास्वामी श्रवणबेलगोला द्वारा दीक्षित प्रमुख भट्टारक स्वस्तिश्री ललितकीर्तिजी (कार्कल), स्वस्तिश्री भुवनकीर्तिजी ( कनकगिरि), स्वस्तिश्री धवलकीर्तिजी ( अरिहंतगिरि), स्वस्तिश्री भानुकीर्तिजी (कम्बदहल्ली), स्वस्तिश्री चारुकीर्तिजी ( मुडबद्री), स्वस्तिश्री लक्ष्मीसेनजी (जिनकांची), स्वस्तिश्री धर्मकीर्ति (वरुद), स्वस्तिश्री डॉ. देवेन्द्रकीर्तिजी (हुम्मचा), स्वस्तिश्री भट्टाकलकजी (सौंदा), स्वस्तिश्री लक्ष्मीसेनजी (एन. आर. पूरम्), स्वस्तिश्री वृषभसेनजी (लक्कवल्ली), स्वस्तिश्री जिनसेनजी (नांदणी), स्वस्तिश्री सिद्धांतकीर्ति (आरतिपुर), स्वस्तिश्री लक्ष्मीसेनजी (कोल्हापुर), क्षुल्लक प्रमेयसागर (महावीर तपोभूमि), पं. नंदकुमार शास्त्रि (श्रवणबेलगोला) ने भट्टारकजी का अभूतपूर्व अभिनंदन किया ।


उल्लेखनीय है कि इस तीर्थ पर आचार्य श्री समन्तभद्रजी ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार ग्रंथ लिखा था ।


छोटी सी पहाड़ी पर अतिप्राचीन श्री नेमिनाथ भगवान की अतिप्राचीन प्रतिमा चरण चिन्ह स्थापित है ।


श्रीमती सरिता - एम. के. जैन का अभिनंदन ग्रंथ प्रकाशित होगा।


श्री अरिहंतगिरि दि. जैन मठ की ओर श्रीमती सरिता एम. के. जैन का अभूतपूर्व अभिनंद गया। उन्हें सद्धर्म कल्पतरु की उपाधि से भी सम्मानित किया गया। इस अवसर पर धर्मस्थल धर्माधिकारी डी. वीरेन्द्र हेगड़े के प्रतिनिधि श्री सुरेन्द्र हेगड़े जी उपस्थित हुए ।


समस्त भट्टारक स्वामी व उपस्थित जन समुदाय के बीच अखिल भारतीय दिगम्बर जैन ...... परिषद के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ. श्रेयांसकुमार जैन (बड़ीत) ने कहा कि श्रीमती सरिताजी के कार्य अभिनंदनीय है। जिस पर एक विस्तृत अभिनंदन ग्रंथ प्रकाशित किया जाएगा। जिसमें डॉ. श्रेयांसकुमार जैन (बड़ीत) के साथ प्रो. नलिन के शास्त्री (लाडनू), डॉ. नीलम जैन (प), राजेन्द्र जैन महावीर (सनद), विस्तृत योजना बनाकर प्रस्तुत करेंगे।

उपस्थित जन समुदाय व मंचासीन श्री सुरेन्द्र हेगड़े, समस्त भट्टारक स्वामीजी, श्री विनोद चाकलीवाल (मैसूर), श्रीमती रंजना बाकलीवाल, श्रीमती निशा जैन, डॉ.ज्योत्सना जैन (दिल्ली), श्रीमती रजनी जैन ( महासभा कार्यालय दिल्ली), डॉ. संगीता विनायका ( इन्दौर), श्रीमती इन्द्रा बड़जात्या (जयपुर), प्रतिष्ठाचार्य पं. कुमुदचंद सोनी ( अजमेर), पं. महेश जैन डीमापुर,, श्रीमती सीमा जैन, डॉ. ममता जैन (पुणे), श्रीमती संगीता दिनेश सेठी (चेन्नई), श्रीमती पुष्पलता संध्या सेठी, श्रीमती सुमन पाण्डया, डॉ. अर्चना जैन, श्रीमती राजरानी जैन, श्रीमती अनिता जैन, श्रीमती लता सिंघई, संजय टोलिया (पांडिचेरी), सौधर्म इन्द्र अजय जैन, श्रीमती सोनिया जैन ( बैगलुरु), कुबेर इन्द्र श्री ऋषभकीर्ति जैन एवं प्रमोद जैन (दिल्ली), हेमचंद जैन (दिल्ली), हुकुमीचंद ढोलिया ( पांडिचेरी), जयकुमार जैन ( कोटा, जयपुर), जम्बूप्रसाद जैन (गाजियाबाद), निहालचंदजी जैन टोलिया (बैगलौर) सहित अनेकजन उपस्थित थे ।




सभी ने श्रीमती सरिता एम. के. जैन के कार्यों को अभूतपूर्व बताया जो कि समाज के लिए प्रेरणादायी है । अभिनंदन समारोह का संचालन प्रो. नलिन के शास्त्री ने किया महिला महासभा ने भी श्रीमती सरिता एम. के. जैन का अभिनंदन किया ।


उल्लेखनीय हैं कि श्रीमती सरिता एम के जैन जैन जगत की राष्ट्रीय महिला नेत्री हैं जिन्हें 1040 वर्ष के इतिहास में पहली बार गोम्मतेश्वर भगवान बाहुबली स्वामी महा मस्तकाभिषेक समारोह श्रवणबेलगोला का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनी। भारत वर्षीय दिगम्बर जैन तीर्थ क्षेत्र कमेटी के इतिहास में पहली बार राष्ट्रीय अध्यक्ष, भारत वर्षीय दिगम्बर जैन महिला महासभा की प्रथम राष्ट्रीय अध्यक्ष सहित अनेक पदों को सुशोभित किया है। उनके सामाजिक, धार्मिक, शैक्षिक, अनेक कार्यों को अभिनंदन ग्रंथ में समाहित किया जाएगा।


150 ग्रंथों का हुआ विमोचन


आचार्य सुविधि सागरजी महाराज द्वारा लिखित व संपादित 150 ग्रंथों का विमोचन किया कि एक वर्ल्ड रिकार्ड है। आचार्य श्री द्वारा पूर्व अनेक ग्रंथों को एक पेन ड्राइव में उपलब्ध कर जन्माभिषेक में तमिलनाडू प्रदेश के हजारों श्रद्धालु सम्मिलित हुए । तमिलनाडू सरकार के केबिनेट मंत्रा मा सम्मिलित हुए । आयोजन के दौरान सांस्कृतिक कार्यक्रम भी आयोजित हुए। इस अवसर पर दक्षिण भारत के भामाशाह श्री एम. के. जैन चैन्नई का अभिनंदन अरिहंतगिरि जैन मठ के द्वारा किया गया ।


3 मई को पूज्य स्वामीजी का 74वां जन्मदिवस मनाया स्वर्गस्थ परम पूज्य जगदगुरु कर्मयोगी स्वस्तिश्री चारुकीर्ती भट्टारक महास्वामी का 74 जन्म दिवस के अवसर पर युगल मुनिश्री ने उनका गुणानुवाद किया । हुमचा के भट्टारक स्वस्तिश्री डॉ. देवेन्द्र के जीवनवृत्त सुनाकर सबको भाव विभोर कर दिया । भट्टारक चितामणि स्वस्तिश्र तीर्थ के विकास का प्रणेता बताया । सौवामद के स्वस्तिश्री भट्टा रक जी ने भी संबोधित किया। सभी वक्ताओं ने उन्हें अभूतपूर्व आत्मीय व्यक्तित्व बताते हुए उनके कार्यों, स्नेह को भूतो न भविष्यति निरूपित किया। संगीतकार श्री रुपेश जैन द्वारा बनाया मजन का लोकार्पण किया गया। महोत्सव में देशभर के प्रतिष्टितजन सम्मिलित हुए । भारतवर्षीय दि जैन महासभा का नैतिक अधिवेशन राष्ट्रीय महामंत्री श्री प्रकाशचंदजी बड़जात्या (चेन्नई) ने संपन्न कराया।

महोत्सव के दौरान सुस्वादु भोजन व्यवस्था विनोद चावल (मैसूर) ने संभालव्यंजन परोसे। श्री दिनेश सेठी (चेन्नई), श्री संजय ढोल्या (पाण्डिचेरी), श्री राजेश खन्ना, श्री सुरेश जैन,सत्या जैन, शांतराज रामदास, सतीष जैन, अजित जैन, राजकुमार जैन विजयराज जैन,

पं. वसंत शास्त्री (अतिगिरि) आदि ने भट्टारक चिंतामणि स्वस्ति श्री भट्टारक स्वामी नेतृत्व में आयोजन को मूर्त रूप प्रदान किया ।आयोजन की प्रमुख एवं भगवान के माता-पिता श्रीमती सरिता एम. के. जैन ने समस्त उपस्थित विद्वतगण एवं कार्यकर्ताओं का सम्मान करते हुए सभी का आभार माना


व कहा कि मेरे जीवन का यह अपूर्व अवसर है जिसे मैं शब्दों में बयान नहीं कर सकती। संपूर्ण भारत की जैन समाज समस्त आचार्य, मुनिराज भट्टारक स्वामीजी त्यागवृन्द, विद्वतगण व समाजजनों का आभार व्यक्त किया।

अरिष्ट जिनभगवान नेमिनाथ की अति प्राचीन प्रतिमा छोटी सी पहाड़ों पर स्थापित है। यहां पर 2000 वर्ष प्राचीन मंदिर व प्रतिमाएं स्थापित है, यह तीर्थ तमिलनाडु की राजधानी चेन्नई से 170 कि.मी. दूर स्थित है। तिरुपति बालाजी से 145 कि.मी. दूर मुख्य मार्ग पर स्थित है। यह समस्त प्रकार की सुविधाएं उपलब्ध है ।


राजेन्द्र जैन 'महावीर"

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