अपना अपना काम कीजिए....
आप चाहे किसी संस्था में कितने घंटे मर्जी ड्यूटी बजा आओ, होते तो आप पदेन ही हैं। पद का दायित्व निभाते हैं इसलिए बदले में पांच, चार और तीन अंकों का वेतन, सेलरी, तनख्वाह पाते हो फिर चाहे ए, बी, सी और डी किसी भी वर्ग के सेवक क्यों न हो। सेवक सेवक ही होता है, वह मालिक हो ही नहीं सकता, हां अपने से एक स्तर नीचे वाले के साथ वह जरूर मालिकाना व्यवहार करता है। कोई सरकार का सेवक है तो कोई सेठ का और कोई मालिक का। और जो अपने निजी व्यवसाय में लगे हैं , वे भी स्वतंत्र नहीं है, वे अपने मालिक स्वयं दिखते भले हों पर वे भी किसी के अधीन अवश्य होते हैं। ये दुनियावी मालिक, स्वामी, सर हो सकते हैं पर हम सब का मालिक, रखवाला, स्वामी तो परम पिता ईश्वर ही है। उसी ने हमें ये पदेन दायित्व सौंपे हैं। कभी कभी एक ही समय में आप एक से अधिक पदों में होते हैं और सभी के साथ न्याय करने की, उनके मध्य संतुलन बिठाने की भरपूर कोशिश करते हैं। कभी सफलता मिलती है कभी सब बिखर जाता है, रूठामटकी होती है, शिकवा शिकायत होती है तो कभी गाडी पटरी पर आ जाती है और अपनी गति से छुक छुक चलती रहती है।
आप एक ही समय में कई कई रूपों में होते हैं। परिवार, नाते रिश्तेदारी, समाज, कार्य स्थल। पारिवारिक रिश्ते के भी कई कई रूप हैं मसलन बेटी, बहन ,पत्नी और मां , पिता,पुत्र, भाई, पति और अन्य अन्य।आप जिस समय जिस रूप में होते हैं, उसी में अपना सर्वश्रेष्ठ देने की कोशिश करते हैं पर हमेशा ये संभव नहीं होता । कुछ न कुछ ऊंच नीच चलती रहती है। कुछ न कुछ इतना प्रभावी जरूर हो जाता है कि दूसरा पलड़ा हल्का हो जाता है, कहीं कहीं तो पासंग और डंडी दोनों इतनी सफाई से मार दी जाती हैं कि किसी के संज्ञान में ही नहीं आ पाता। हम सब घर बाहर में इतने इतने बंटे हुए हैं, इतने इतने खाली हो चुके हैं, इतने निर्बल हो चुके हैं कि सब हाथ से फिसलता जाता है, एक को पकड़ते हैं तो दूसरा छूटता लगता है। सब रूपों में संतुलित बने रहना सीखना होता है। ये नाते संभाले रखना भी किसी दायित्व से, किसी पदेन नौकरी से कम नहीं हुआ करता।
माता पिता भी तो पद ही हैं फिर चाहे वह स्वयं संतान जन्मते मिलते हों या पालित/पालिता बनते। पद की गरिमा में फर्क नहीं ही पड़ना चाहिए पर जाने अनजाने ये भेद शुरू हो ही जाते हैं। सारी कोशिशें बेकार हो जाती हैं। मूल की प्रतिकृति बनने के कितने भी प्रयास कर लो पर कुछ कमी तो रह ही जाती है। असल जैसे तो दिख ही नहीं पाते। मूल पास होता नहीं और उसका स्थान लेने वाले पर दूसरा/दूसरी का ठप्पा/ मोहर लग जाती है। दूसरा/दूसरी का भूत हावी हो जाता है, सब जैसे एक अपराध बोध में जीते रहते हैं। जो है उसे स्वीकार नहीं पाते और छूट चुका है, विगत हो चुका है, स्वर्गीय हो चुका है वह वर्तमान बन नहीं सकता । लगातार अविच्छिन्न रूप से तुलना कभी परोक्ष तो कभी अपरोक्ष, चलती ही रहती है। सबका देखने का नजरिया ही बदल जाता है। अपना पराया शुरू हो जाता है। कभी भी परिस्थिति का आंकलन नहीं किया जाता, दूसरा/दूसरी के मन को नहीं समझा जाता, भावनाओं की परख नहीं की जाती, कार्य करने में निहित भाव को नहीं पकड़ा जाता। बस जब देखो तब आलोचना, प्रत्यालोचना, क्रिटिसिज्म, दोष देखना, तुलना करने का दौर जारी रहता है। देखने की दृष्टि ही बदल जाती है। बहुत मुश्किल होता है पदेन दायित्व को निभाना, आप हर समय सीसीटीवी कैमरों से अधिक अपनों की अन्दर तक बेधती आंखों की जद में रहते हो। आपके अच्छे बुरे कार्य को एक विशेष चश्मे से देखा जाता है। सारे के सारे सन्दर्भ ही बदल जाते हैं। इन सबके बीच अगला स्वयं ही बहुत कांसस हो जाता है। काम करते हाथ कंपकंपाने और कदम डूगलाने लगते हैं। हर क्षण भय लगता है कि कहीं कुछ गलत न हो जाए। अब दायित्व तो दायित्व है फिर चाहे वह पदेन हो या मूल सो अपना काम तो निष्ठा से ही
करना है। दुनिया से क्या प्रमाणपत्र लेना, बस मन से साफ बने रहिए, अपनी निगाहों में मत गिरिए, किसी को जवाब दें मत दें पर ईश्वर को जवाब तो देना ही होगा। बस उसी के लिए अपने को तैयार रखिए। बाकी दुनिया को अपने हिसाब से चलते रहने दीजिए। कोई फर्क नहीं पड़ता कि आपको लेकर कोई क्या सोचता है। सोचने दीजिए उन्हें, ये उनका काम है। आप तो बस अपना काम करते रहिए।
बीना शर्मा
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