कुछ टूट रहा परिवारों में

   

कुछ टूट रहा परिवारों में 

कुछ छूट रहा व्यवहारों में 

अपनापन का गला घोट वहाँ,

फूट है भाईचारों में 

कुछ टूट रहा परिवारों में 

कुछ छूट रहा व्यवहारों में 

मन स्वार्थी होता चला जहाँ 

इन्सानियत खोता चला जहाँ 

"तेरे मेरे" का चलन जहाँ 

हर इक में होती जलन जहाँ 

गंगाजल जैसे संस्कार अब बिक रहे बाज़ारों में, 

कुछ टूट रहा परिवारों में 

कुछ छूट रहा व्यवहारों में 

हर ज़मीं ज़मीं पर सदा लड़े 

कौड़ी कौड़ी पर सदा लड़े 

अपना ही मतलब पूरा हो,

दुनियाँ गड्ढे में चाहे पड़े 

जहाँ प्यार नहीं सम्मान नहीं नहीं समझ अक्ल के मारों में, 

कुछ टूट रहा परिवारों में 

कुछ छूट रहा व्यवहारों में 

उन मात-पिता ने बड़ा किया 

अपने पैरों पर खड़ा किया 

बलिदान किये कितने ही जो, 

सपनों का महल जड़ा दिया 

उन मात-पिता को अलग अलग करते बेटे बँटवारों में, 

कुछ टूट रहा परिवारों में 

कुछ छूट रहा व्यवहारों में 

जो छोटे थे बन रहे बड़े 

अपनी हैंकड़ में रहे अड़े 

अज्ञान मयी तिमिर के कारण,  

मति पर ताले रहे पड़े 

एक नहीं ऐसे कितने ही मिले कई बाज़ारों में, 

कुछ टूट रहा परिवारों में 

कुछ छूट रहा व्यवहारों में 

पीढ़ी कभी समझ न पाती, 

ऐसा भी कोई पल होगा 

जैसी करनी वो करें आज,

उनका भी कोई कल होगा 

नीलाम हुई इज़्जत बूढ़ों की जग के कई नज़ारों में, 

कुछ टूट रहा परिवारों में 

कुछ छूट रहा व्यवहारों में 

त्रेता-सतयुग नहीं रहा, 

यह कलियुग का प्रभाव है 

मात-पिता और गुरूजनों से, 

हर कोई खाता भाव है 

हवा-पानी-खान-पान का असर है दुराचारों में, 

कुछ टूट रहा परिवारों में 

कुछ छूट रहा व्यवहारों में 

अपनापन का गला घोट,

वहाँ फूट है भाईचारों में

कुछ टूट रहा परिवारों में 

कुछ छूट रहा व्यवहारों में 

 बृजेन्द्र सिंह झाला"पुखराज"

       कोटा (राजस्थान)

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