बालसखा हैं सूर सभी के
केवल अपने मन की सुनते, समझो सबके मन की पीर।
लेकर बैठा है सदियों से, जाने वह किसकी तस्वीर।।
समझ रहे हो जिसे बेवफा, कुछ तो मजबूरी होगी।
तोड़ नहीं सकता था केवल, परंपरा की वह जंजीर।।
अंधेरे को दीपक काफी, तुम सूरज के लिए अड़े।
रात बीत जाए बस उसका, क्या होगा लेकर जागीर।।
चरवाहे को उस मजूर को, मथुरा-काशी मत समझा।
बरसाने से जाओ ऊधो, हमको चहिए एक अहीर।।
जन-मन की चिंता मत करना, उसे चैन से रहने दो।
पूरी भले मिले ना उसको, खा लेगा वह कभी बखीर।।
रीढ़ के बिना केंचुवे भी, जी लेते हैं अपना जीवन।
एक दूजे के काम आ सका, वही जवानी वह बलबीर।।
अली-अली बजरंग बली कह, उठवाते छप्पर-छानी।
जाने क्या हो गया आज कि, दिखते हाथों में शमशीर।।
जिनको देखा नहीं उन्हीं पर, हमको गुस्सा आता है।
कब्रिस्तानों - श्मशानों से, ले आते क्यों रोज नजीर।।
जिसे देखिए वही मगन है, लुटने और लुटाने में।
राजा व्यापारी बन बैठा, बेच रहे हैं लोग जमीर।।
अपना मुल्क निराला, इसकी खूबी भूल गए हैं लोग।
बालसखा हैं सूर सभी के,अभिभावक रसखान कबीर।।.."अनंग"
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