आचार्य श्री विद्या सागर जी का एक हाईकू:

             भ्रमर से हो,

             फूल सुखी, हो दाता

             पात्र योग से ।

फूल अपनी जगह लगा है, पराग है, गंध है, आकर्षण है, लेकिन उस फूल को भी, प्रफुल्लिता बढ़ाने के लिए भ्रमर का होना बहुत ज़रूरी है। भ्रमर को भी फूल की ज़रूरत होती है पराग पाने के लिए। फूल के कारण भ्रमर आनंदित होता है और भ्रमर के कारण फूल भी आनंदित हो जाता है। मुनिराज (श्रमण) और गृहस्थ (श्रावक) दोनों अलग-अलग अपने कर्तव्य कार्यों में लगे होते हैं, मुनिराज अपनी तप-तपस्या-साधना में लीन रहते हैं, और श्रावक अपने धन उपार्जन में लगा रहता है, पर जब दोनों का एक साथ योग बनता है, यानि गृहस्थ दाता बनकर मुनिराज का पड़गाहन करता है और मुनिवर अतिथि (पात्र) बनकर अपनी आहार विधि के साथ निकलता है और उसकी आहार विधि दाता के यहाँ सम्पन्न हो रही होती है तो इस आहार-चर्या को देख हज़ारों नेत्र आनंदित हो जाते हैं। मुनिवर की अंजलि में गृहस्थ के द्वारा दिये जा रहे अन्न-जल के दृश्य को देखने मनुष्य तो क्या इन्द्र देव भी तरसते हैं। यही दृश्य सबसे महत्वपूर्ण होता है जब मुनि महाराज अपनी अंजलि में आहार ले रहे हैं और श्रावक गृहस्थ आहार दे रहा है।

आहार-चर्या एक ऐसी क्रिया है जिसमें सब कुछ छोड़ देने वाले तप-तपस्या-साधना करने वाले मोक्ष-मार्ग में अग्रसर मुनिराज शरीर पूर्ति के लिये, सब कुछ जोड़ने वाले के यहाँ आकर आहार ग्रहण करते हैं, उसे धन्य व भाग्य-शाली बना देते हैं, उसके घर को शुद्ध व पवित्र कर देते हैं। दाता का द्रव्य, पात्र के मोक्ष-मार्ग में सहायक बनता है। युग के आदि में घटी घटना इतिहास बन गई, वही परम्परा आज भी चली आ रही है, जब-जब युगादि पुरूष आदि प्रभु को याद किया जाएगा, राजा श्रेयांस को भी याद किया जाएगा। जब दाता और पात्र आमने-सामने होते हैं तो ऐसा लगता है जैसे पुष्प-उद्यान में खिले फूलों पर भ्रमर आकर रूक गया हो।

जय जिनेंद्र देव की ।

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