मर्म समझ रे कुछ तो भाई,
ज़िन्दगी क्यों व्यर्थ गँवाई ।
धरी रहेगी वाही-वाही,
ईश-भजन ही एक कमाई ।
नहीं किसी का बहिन-भाई,
नहीं किसी का बाप-माई,
कोई किसी का न हरजाई,
ईश-भजन ही एक कमाई ।
कभी न स्थिर पाई-पाई,
चलती-फिरती हाय-बाॅय ।
इधर कुआँ उधर है ख़ाई,
ईश-भजन ही एक कमाई ।
जितना जीना जी ले भाई,
भला-बुरा यहीं है भाई,
हर इक चलता-फिरता राही,
ईश-भजन ही एक कमाई ।
(स्वरचित/मौलिक/अप्रकाशित)
बृजेन्द्र सिंह झाला"पुखराज"
कोटा (राजस्थान)
No comments:
Post a Comment