बिनब्याही अपूर्णता


सुनो न!

तुम्हारी पूर्णता 

भाती नहीं मुझे; 

क्योंकि तुम मुझसे 

द्रुत गति मे चलायमान हो।

हाँ, मै अपूर्ण हूँ।

तुम मुग्ध हो, अपनी पूर्णता पर 

और मुझे गर्व है, अपनी अपूर्णता पर;

क्योंकि आज मुझे 

एहसास हो रहा है :–

कुछ रिक्तता बहुत ज़रूरी है,

ज़िन्दगी को तराशने के लिए।

मै काम्य कर्म से परे

काम्यत्व से रहित

कापथ से मुक्ति का 

आकांक्षक रहा हूँ।

तुम्हारा आक्रमिता-चरित्र

मुझे तुम्हारी ओर आकृष्ट नहीं कर सकता;

क्योंकि तुम्हारा गर्विता-रूप

गर्ह्यवादी प्रतीत होता आ रहा है।

मुझे तलाश है :–

एक मधुर और बिनब्याही अपूर्णता की;

जो अनसुनी, अनकही तथा अनदेखी रही हो;

वही अपूर्णता स्निग्ध है;

सौजन्य, सौम्य, सौरभित है;

बिनब्याही मंज़िल-सी।

आओ! माँग भर दें;

एक ऐसे अनुराग का प्रस्फुटन कर दें,

जिससे हम अद्वैत गवाक्ष से 

द्वैत पर द्वैधपूर्ण दृष्टि का अनुलेपन करते रहें

और हम अपूर्ण रहकर भी 

पूर्णता के साक्षी बनते रहें।

 आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज, 

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