देह से हूं


समय के प्रवाह के साथ एक प्रश्न मनुष्य के लिए यक्षप्रश्न बन चुका है। यह प्रश्न पूछता है कि जीवन कैसे जिएँ?

इस प्रश्न का अपना-अपना उत्तर पाने का  प्रयास हरेक ने किया। जीवन सापेक्ष है, अत: किसी भी उत्तर को पूरी तरह खारिज़ नहीं किया जा सकता। तथापि एक सत्य यह भी है कि अधिकांश उत्तर भौतिकता तजने या उससे बचने का आह्वान करते दीख पड़ते हैं।

मंथन और विवेचन यहीं से आरंभ होते हैं।  स्मार्टफोन या कम्प्युटर के प्रोसेसर में बहुत सारे इनबिल्ट प्रोग्राम्स होते हैं। यह इनबिल्ट उस सिस्टम का प्राण है।  विकृति, प्रकृति और संस्कृति मनुष्य में इसी तरह इनबिल्ट होती हैं। जीवन इनबिल्ट से दूर भागने के लिए नहीं, इनबिल्ट का उपयोग कर सार्थक जीने के लिए है।

मनुष्य पंचेंद्रियों का दास है। इस कथन का दूसरा आयाम है कि मनुष्य पंचेंद्रियों का स्वामी है। मनुष्य पंचतत्व से उपजा है, मनुष्य पंचेंद्रियों के माध्यम से जीवनरस ग्रहण करता है। भ्रमर और रसपान की शृंखला टूटेगी तो जगत का चक्र परिवर्तित हो जाएगा, संभव है कि खंडित हो जाए। कर्म से, श्रम से पलायन किसी प्रश्न का उत्तर नहीं होता। गृहस्थ आश्रम भी उत्तर पाने का एक तपोपथ है। साधु (संन्यासी के अर्थ में) होना अपवाद है, असाधु रहना परंपरा। सब साधु होने लगे तो असाधु होना अपवाद हो जाएगा। तब अपवाद पूजा जाने लगेगा, जीवन उसके इर्द-गिर्द अपना स्थान बनाने लगेगा।

एक कथा सुनाता हूँ। नगरवासियों ने तय किया कि सभी वेश्याओं को नगर से निकाल बाहर किया जाए। निर्णय पर अमल हुआ। वरांगनाओं को जंगल में स्थित एक खंडहर में छोड़ दिया गया। कुछ वर्ष बाद नगर खंडहर हो गया जबकि खंडहर के इर्द-गिर्द नया नगर बस गया।

समाज किसी वर्गविशेष से नहीं बनता। हर वर्ग घटक है समाज का। हर वर्ग अनिवार्य है समाज के लिए। हर वर्ग के बीच संतुलन भी अनिवार्य है समाज के विकास के लिए। इसी भाँति संसार में देह धारण की है तो हर तरह की भौतिकता, काम, क्रोध, लोभ, मोह, सब अंतर्भूत हैं। परिवार और अपने भविष्य के लिए भौतिक साधन जुटाना कर्म है और अनिवार्य कर्तव्य भी।

जुटाने के साथ देने की वृत्ति भी विकसित हो जाए तो भौतिकता भी परमार्थ का कारण और कारक बन सकती है। मनुष्य अपने 'स्व' के दायरे में मनुष्यता को ले आए तो  स्वार्थ विस्तार पाकर परमार्थ हो जाता है।

इस तरह का कर्मनिष्ठ परमार्थ, जीवनरस को ग्रहण करता है। जगत के चक्र को हृष्ट-पुष्ट करता है। सृष्टि से सृष्टि को ग्रहण करता है, सृष्टि को सृष्टि ही लौटाता है। सांसारिक प्रपंचों का पारमार्थिक कर्तव्यनिर्वहन उसे प्रश्न के सबसे सटीक उत्तर के निकट ले आता है।

प्रपंच में परमार्थ, असार में सार, संसार में भवसार देख पाना उत्कर्ष है। देह इसका साधन है किंतु देह साध्य नहीं है। गर्भवती के लिए कहा जाता है कि वह उम्मीद से है। मनुष्य को अपने आप से निरंतर कहना चाहिए, 'देह से हूँ पर देह मात्र नहीं हूँ। ' विदेह तो कोई बिरला ही हो सकेगा पर  स्वयं को  देह मात्र मानने को नकार देना, अस्तित्व के बोध का शंखनाद है। इस शंखनाद के कर्ता, कर्म और क्रिया तुम स्वयं हो।


संजय भारद्वाज 🙏


श्रमण श्री विशल्यसागर जी मुनिराज को जीनियस बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड की ओर से भारत गौरव

 कर्नाटक प्रदेश के मुख्य सचिव (मुख्य मंत्री के निजी सचिव ) श्री मनोज कुमार जैन पाटनी एवं सीनियर वैज्ञानिक forensic axpart (फोरेंसिक एक्सपर्ट )भागलपुर व डॉ अजित शास्त्री गुरुजी रायपुर के नेतृत्व में प.पू. सराक केसरी, झारखण्ड राजकीयअतिथि, जिनश्रुत मनीषी, P.HD,D.litt, एवं अनेक उपाधियों से सम्मानित श्रमण श्री विशल्यसागर जी मुनिराज को जीनियस बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड की ओर से भारत गौरव की उपाधि से अलंकृत किया गया।




घोटना और घोंटना

           डॉ. रामवृक्ष सिंह, लखनऊ

किसी ठोस पदार्थ को तरल / द्रव के साथ मिलाकर बार- बार रगड़ते हुए लेप जैसा बनाने की प्रक्रिया कहलाती है घोटना। जब हम छोटे थे, उस समय लकड़ी की तख्ती को काला पोतकर उसपर बांस, सरकंडे/ सेंठे या नरकट की कलम को सफेद दुधिया या दुद्धी में डुबा-डुबाकर लिखा जाता था। दुधिया की डली लाकर (दुकान से या नदी किनारे की मिट्टी से खोदकर) उसे दवात में घोला जाता था। घोलने के लिए दवात में कोई ठोस लकड़ी डालकर बार- बार फेटना जरूरी होता था। यह प्रक्रिया 'घोटना' कहलाती थी। तख्ती को कड़ाह (वह विशाल पात्र जिसमें गन्ने का रस पकाकर गुड़ बनाया जाता था) के पेंदे में जमी कालिख से पोतकर काला किया जाता और खूब अच्छे से सुखा लिया जाता। सूखने के बाद तख्ती की काली सतह को कांच की दवात के चिकने पेंदे से रगड़ा जाता, ताकि वह एकदम चमक जाए। रगड़ने की यह क्रिया भी घोटना कहलाती थी। ठंडाई बनाने के लिए सिल पर बट्टे से भांग और बादाम घोटने का काम होली के समय खूब करते हैं भंगेड़ी लोग। दवा की टिकिया पीसकर चूर्ण बनाने के लिए पत्थर का जो पात्र प्रयोग में आता है, उसे भी इसीलिए घोट्टा कहा जाता है कि उसमें टिकिया को बार- बार रगड़कर चूर्ण बनाया जाता है। 

घोटने में प्रधान है बारंबारता। इसीलिए किसी पाठ, श्लोक, कविता या सूत्र को बार-बार रटकर याद करने की क्रिया भी घोटना या घोट्टा मारना कहलाती है। घोटना की प्रेरणार्थक क्रिया है घोटाना। यह घोटाना ही बन जाता है घुटाना। सिर के बालों को खोपड़ी से सफाचट कराकर, बिलकुल गंजा होने की क्रिया को भी 'घुटाना' कहते हैं। संभवतः इसलिए कि सिर छिलवाने या बाल उतरवाने की क्रिया में उस्तरे को बार-बार सिर पर घसीटना होता है। ओकार के उकार बनने का एक बड़ा उदाहरण है 'खोदाई' शब्द का 'खुदाई' बनना। 'घोटाई' शब्द से 'घुटाई' का बनना भी वैसा ही है। 


हिन्दी में बिन्दी का बहुत महत्त्व है। इसका आशय यह नहीं कि हर जगह जबर्दस्ती बिन्दी चेप दी जाए। किन्तु लिखने वाले अक्सर यही करते हैं। मसलन एक से अधिक लोगों को संबोधित करने में ओकार तो आता है, किन्तु नासिक्य ध्वनि वाली बिन्दी नहीं। भाइयो, बहनो, देवियो- ये संबोधन के लिए सही रूप हैं, न कि भाइयों, बहनों और देवियों।

घोटना के साथ भी कुछ लोग यही करते हैं और घो पर अनावश्यक बिन्दी सटा देते हैं। घो पर बिन्दी लगते ही इस शब्द का अर्थ बदल जाता है। घोंटना शब्द में घुटन का भाव निहित है। घुटन यानी, श्वासनली के दबने या किसी अन्य बाधा के कारण सांस का अवरुद्ध होना। जब कोई गला दबाकर या तकिये आदि से नाक- मु़ंह दबाकर किसी की सांस लेने की क्रिया बाधित कर दे तो उसे दम घोंटना या गला घोंटना कहा जाता है। दम  यानी हवा, सांस लेने में प्रयुक्त होनेवाली हवा। (बिरयानी बनाते समय हवा बरतन से बाहर न निकले, इसका जुगाड़ करने की क्रिया को दम लगाना और रुककर सांस लेने को दम लेना कहा जाता है)। इसीलिए जहाँ हम हवा की कमी के कारण सांस नहीं ले पाते,उसे दमघोंटू वातावरण कहते हैं‌।हालांकि घुटन के घु में नासिक्य ध्वनि नहीं है, किन्तु घोंटना में नासिक्य ध्वनि न हो तो उसका अर्थ बिलकुल अलग हो जाएगा,  जिसका उल्लेख ऊपर किया गया है। पूर्वांचल में घोंटना शब्द निगलने के लिए भी प्रयोग होता है। घोंटना और घूंट एक ही शब्द के दो रूप हैं। पहला यानी घोंटना क्रिया है, जबकि घूंट संज्ञा। कहते हैं मैं खून का घूंट पीकर रह गया। 


तब आएंगे राम



  -डॉ.शिशुपाल


मर्यादा पुरुषोत्तम पावन,

अच्छाई के ग्राम।

मर्यादित व्यवहार रहे प्रिय!

तब आएंगे राम।।

     

बनो राम से आज्ञा पालक,

लक्ष्मण जैसे भ्रात।

रखो भरत सम भाईचारा,

तब जीवन सौगात।।

     

हनुमत जैसे बनो सहायक,

सबके आओ काम।

मर्यादित व्यवहार रहे प्रिय!

तब आएंगे राम।।

      वचनबद्धता हो हम सब में,

सबरी-सा अनुराग।

सिद्धांतों पर अडिग रहें हम

जीवन में हो त्याग।।


मीठा-मीठा बोलो प्यारे!

नहीं लगे कुछ दाम।

मर्यादित व्यवहार रहे प्रिय!

तब आएंगे राम।।

     

ऊँच-नीच का भेद भुलाकर,

करें सभी से प्यार।

लाचारों के हित में सबका,

सदा खुला हो द्वार।।


परहित पथ पर बढ़ते जाएँ,

कभी नहीं हो शाम।

मर्यादित व्यवहार रहे प्रिय!

तब आएंगे राम।।

     मान करें हम सदा बड़ों का,

रहें नशे से दूर।

महिलाएँ सब आदर पाएँ

ख़ुशियाँ हो भरपूर।।


सबके ही आदर्श बनें हम,

सद्कर्मों के धाम।

मर्यादित व्यवहार रहे प्रिय!

तब आएंगे राम।।

      

कर्त्तव्यों के पालन में हम,

हों सबके सरताज।

शिक्षा के पंखों से उड़कर,

सतत संवारें आज।।


करें भला लाचारों का हम,

बिना बताए नाम।

मर्यादित व्यवहार रहे प्रिय!

तब आएंगे राम।।

  

भाईचारा-प्रेम सभी का,

बाधाओं की ढाल।

सामाजिक समरसता सब में

बनी रहे 'शिशुपाल'।।


राम राज हर घर में हो अब,

सब कुछ हो अभिराम।

मर्यादित व्यवहार रहे प्रिय!

तब आएंगे राम।।

संगरिया, हनुमानगढ़, (राजस्थान)


क्या है जन्मभूमि अयोध्या का इतिहास भाग 1



प्रो अनेकांत कुमार जैन  

प्राचीन जैन साहित्य में धर्म नगरी अयोध्या का उल्लेख कई बार हुआ है ।जैन महाकवि विमलसूरी(दूसरी शती )प्राकृत भाषा में पउमचरियं लिखकर रामायण के अनसुलझे रहस्य का उद्घाटन करके भगवान् राम के वीतरागी उदात्त और आदर्श चरित का और अयोध्या का वर्णन करते हैं तो  प्रथम शती के आचार्य यतिवृषभ अपने तिलोयपण्णत्ति ग्रंथ में अयोध्या को कई नामों से संबोधित करते हैं । जैन साहित्य में राम कथा सम्बन्धी कई अन्य ग्रंथ लिखे गये, जैसे  रविषेण कृत 'पद्मपुराण' (संस्कृत), महाकवि स्वयंभू कृत 'पउमचरिउ' (अपभ्रंश) तथा गुणभद्र कृत उत्तर पुराण (संस्कृत)। जैन परम्परा के अनुसार भगवान् राम का मूल नाम 'पद्म' भी था।बाद में तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में प्राकृत ,अपभ्रंश में रामायण लिखने वाले सभी कवियों को कवि वंदना के रूप में प्रणाम भी किया है ,निश्चित रूप से उन्होंने रामचरित मानस की रचना से पूर्व उन ग्रंथों का स्वाध्याय किया था -

जे प्राकृत कबि परम सयाने ।भाषाँ जिन्ह हरि चरित बखाने ॥

भए जे अहहिं जे होइहहिं आगें ।प्रनवउँ सबहि कपट सब त्यागें ॥

भावार्थ -जो बड़े बुद्धिमान प्राकृत कवि हैं, जिन्होंने भाषा में हरि चरित्रों का वर्णन किया है, जो ऐसे कवि पहले हो चुके हैं, जो इस समय वर्तमान हैं और जो आगे होंगे, उन सबको मैं सारा कपट त्याग कर प्रणाम करता हूँ।- श्रीरामचरितमानस (बालकाण्ड )

संकलन

डॉ विजय जैन 'शाहगढ' भोपाल

विमलसूरि और उनकी रामकथा

 


डाo नीलम जैन 


विमलसूरि प्राकृत के यशस्वी महाकवि के रूप में प्रतिष्ठित है। उन्होंने रामकथा को साहित्यिक रूप-स्वरूप प्रदान कर एक सशक्त परम्परा प्रारम्भ की थी। महाराष्ट्री प्राकृत में रामकथा निबद्ध करने वाले विमलसूरि भारतीय वाङ्मय के निष्णात बहुश्रुत प्रथम कवि है। वैदिक परम्परा में संस्कृत साहित्य में जो प्रतिष्ठित अग्रणी स्थान आदि कवि बाल्मीकि का है वहीं गौरवपूर्ण स्थान प्राकृत साहित्य में विमलसूरि का है। अपनी अमृतमयी एवं सरस प्राकृत भाषा से विमलसूरि ने अनुपम, विमल एवं अक्षुण्ण कीर्ति प्राप्त की है। भारतीय मनीषी अपनी रचनाओं को प्रसिद्धि, मान, सम्मान का माध्यम न बनाकर लोकमंगल, चारित्रिक उत्कर्ष व मनुष्य जन्म सार्थकता आदि से जन मानस में प्रेरणा का स्रोत बनाते थे। अपने निजी जीवन का अल्प से अल्पतम परिचय भी वे अपनी कृतियों में नहीं देते थे। इसीलिए विमलसूरि का जीवन परिचय भी अपरिचय के अन्धकार में है।

विमलसूरि के जीवनवृत्त के स्रोत यद्यपि अनुपलब्ध है। पूर्ववर्ती परवर्ती किसी साहित्यिकृतियों, अभिलेखों, शिलालेखों अथवा पट्टावलियों आदि में भी इनका परिचय अप्राप्त है। विमलसूरि ने रामकथा जिसका नाम उन्होंने पउमचरियं रखा है में अपना उल्लेख गुरु-परम्परा के साथ किया है-

राहुनामायरिओ ससमयपरसमयगहियसव्मावो ।

विजओ य तस्स सीसो, नाइलकुल वंस नंदियरो ।।

सीसेण तस्स रइयं राहवचरियं तु सूरिविमलेणं ।

सोऊणंपुव्वगए,नारायण-सीरिचरियाई ।।'

(स्वसिद्धान्त और परभाव सिद्धान्त के भाव को ग्रहण करने वाले राहु नाम के एक आचार्य हुए उनके नागिल वंश के लिए मंगलकारी विजय नामक शिष्य थे। उनके शिष्य विमलसूरि ने पूर्वग्रन्थों में आए हुए नारायण और हलधर के चरितों को सुनकर यह राघवचरित रचा है।)

अंतरसाक्ष्य से स्पष्ट है कि वे नाइल कुल वंश विभूषण विजय के शिष्य थे तथा राहु के प्रशिष्य थे, उन्होंने जैनेतर दर्शन और साहित्य का भी गहन अध्ययन किया था। विमलसूरि का नाम प्रत्येक उद्देश (पर्व अथवा सर्ग) के अन्त में मात्र 'विमल' रूप में भी मिलता है। ग्रन्थ की अन्तिम पुष्पिका में उन्होंने स्वयं को विमलार्य या विमलाचार्य (विमलायरिएण) लिखा है तथा इसके पूर्व पद में विमलसूरि (सूरि विमलेण) कहा है। अतः पउमचरियं के रचनाकार विमलसूरि है, यह स्पष्ट है साथ ही यह भी सिद्ध होता है कि विमलसूरि पहले कवि है जिन्होंने नारायण व हलधर के चरित को सुनकर पउमचरियं की रचना की।

 पउमचरियं का रचनाकाल 

पंचेव च वाससया दुसमाए तीसवरिससजुत्ता । 

वीरे सिद्धभुवगए, तओ निबद्धं इमं चरियं ।।


(इस दुःषमकाल में महावीर के मोक्ष जाने के बाद पाँच सौ तीस वर्ष (अर्थात् ई. पूर्व 467) व्यतीत होने पर यह चरित लिखा है।)

 परवर्ती राम कथा में उल्लेख 

-पद्मचरित संस्कृत भाषा में जैन रामकथा पर लिखित सर्वाधिक प्राचीन महाकाव्य है। इसके रचयिता रविषेण ने अपनी रचना विक्रम सं. 734 में पूर्व की। यह महाकाव्य पउमचरियं के कथानक पर ही आधृत है। पं. नाथूराम प्रेमी ने इसे पउमचरियं की छाया कहा है। आचार्य रविषेण ने तो इसका लेखनकाल स्वयं दिया है-

द्विश्ताभ्यधिके समासहस्त्रे समतीतेऽर्घ चतुर्थ वर्षयुक्ते । जिनभास्करवर्द्धमानसिद्धे, चरितं पदामुनेरिदं निबद्धं ।।


(जिन सूर्य के वर्द्धमान जिनेन्द्र के मोक्ष जाने के पश्चात् एक हजार तीन सौतीन वर्ष छह मास बीत जाने पर यह पद्ममुनि का चरित लिखा गया।)


 कवि स्वयंभू अपनी अपभ्रंश रामकथा (पउमचरिउ) में आचार्य रविषेण व पूर्ववर्ती आचार्य को श्रद्धा अर्पित करते हैं। उनका पउमचरिउ 8वीं शती का माना गया है। उन्होंने लिखा है-


पुणु रविसेणायरिय-पसाएं। बुद्धिएँ अवगाहिय कइराएं।।*


प्राकृत भाषा की प्रसिद्ध कृति 'कुवलयमाला" (788 ई.) में उद्योतनसूरि ने विमलसूरि को प्राचीन कवि के रूप में श्रद्धा सहित विनयांजलि अर्पित की है-


जारिसयं विमलंको विमलं को तारिसं लइह अत्थं । अमय-मइयं च सरसं सरसं चि य पाइअं जस्स ।।


(विमलसूरि कवि के द्वारा रचित विमल कार्यों को प्रकट करने वाला अमृतमय रसयुक्त जो पउमचरियं प्राकृत काव्य है, उस काव्य के अर्थ को अब कौन-सा कवि प्राप्त कर सकता है।)

इस प्रकार आचार्यों ने विमलसूरि की कृति की महत्ता का वर्णन किया। पउमचरियं के प्रकाश में आने के पश्चात् विद्वानों ने सांस्कृतिक, धार्मिक ऐतिहासिक, साहित्यिक दृष्टि से गहन अध्ययन किया,।

अनेक विद्वानों ने भी पउमचरियं के काल निर्धारण के प्रमाण हेतु अपने-अपने तर्क दिये। जिन विद्वानों ने पउमचरियं का अध्ययन किया, उन्होंने अपने-अपने निष्कर्ष प्रस्तुत किये। जर्मन विद्वान डॉ. हर्मन जैकोवी सर्वप्रथम इस कृति का सुसम्पादन कर प्रकाश में लाये। उन्होंने इसे भाषा के आधार पर तीसरी चौथी शती की रचना माना है।रामकथा सम्बन्धी अनेक विश्वविद्यालयों में संलग्न शोधकर्ताओं ने भी अपने शोध ग्रन्थ में पउमचरियं का उल्लेख कर प्राकृत भाषा का प्राचीनतम काव्य तो सिद्ध किया ही है साथ ही अपने तिथि निर्धारण सम्बन्धी अभिमत भी दिये है-।


परवर्ती आचार्यों के ग्रन्थों में पउमचरियं एवं विमलसूरि के नाम में श्रद्धा सहित स्मरण से एवं कवि द्वारा रचना तिथि का उल्लेख करने से निर्विवाद सिद्ध है कि विमलसूरि कृत पउमचरियं प्रथम शती से तीसरी-चौथी शती के मध्य की ही रचना है।


विमलसूरि की अन्य रचनाओं में हरिवंश का उल्लेख उद्योतन सूरि ने कुवलयमाला में किया है लेकिन वर्तमान में यह अनुपलब्ध है।


वुहयण-सहस्स-दइयं हरिवंसुप्पत्ति-कारयं-पढयं । वदामि वंदियं पिहु हरिवरिसं चेय (हरिवंस चेव)।।'


पउमचरियं की वर्तमान में प्राप्य प्राचीन प्रति ताड़पत्रीय है वि. सं. 1198 (सन् 1141 ई.) में राजा जयसिंह के राज्यकाल में भडौंचनगर में यह लिखी गयी। सन् 1914 में प्रख्यात जर्मन विद्वान भारतीय-साहित्य के तलस्पर्शी अध्येता डा. हर्मन जैकोबी ने इसका सशक्त कुशल सम्पादन कर चर्चित एवं लोकप्रिय बनाया।


पउमचरियं में 118 उद्देश (समुद्देश्य या पर्व) है। कवि ने इसे 7 सगर्गों में विभाजित किया है। उद्देशों में पद्यों की संख्या में समानता नहीं है। नौंवे अध्याय में 90 पद्य है, आठवें में 286 पद्य है। वर्तमान में उपलब्ध संस्करण में 8651 पद्य है। विद्वानों के अभिमत में इसमें 9000 पद्य से अधिक थे। पं. नाथूलाल प्रेमी जी इसमें 10,000 पद्य मानते हैं। पउमचरियं महाराष्ट्री प्राकृत भाषा में लिखित प्राचीनतम पौराणिक माहाकाव्य है। इसमें भारतीय संस्कृति एवं राष्ट्रीय एकता का सजीव व गत्यात्मक चित्रण हुआ है 

विमलसूरि ने उस सभी प्रसंगों को नवीन मौलिक एवं परम्परा से प्राप्त नामावली से ही निबद्ध किया है।  

विमलसूरि सन्त है उनकी रचनाधर्मिता के आलेक में पउमचरियं सत्यं, शिव सुन्दरम् से अभिमण्डित है। इसमें लोकमंगल का बीजांकुरण है, मानवता का नवीन प्रकाश है। आगम एवं अन्य लौकिक, ज्ञानवर्द्धक शास्त्रों के गम्भीर अध्ययन व उनकी सूक्ष्म व दूरदृष्टि साहित्य का परिचायक है-

विमलसूरि लिखते है,,,

(हलधर राम के इस चरित्र को जो शुद्ध भाव से सुनता है वह सम्यकत्व और अत्युत्कृष्ट बुद्धि, बल एवं आयु प्राप्त कराता है। इसके सुनने से शस्त्र उठाये हुए शत्रु और उनका उपसर्ग शीघ्र ही उपशान्त हो जाता है और यश के साथ ही वह पुण्य अर्जित करता है। इसमें सन्देह नहीं, इसके सुनने से राज्यरहित व्यक्ति राज्य और धनार्थी विपुल एवं उत्तम धन प्राप्त करता है। व्याधि तत्क्षण शान्त हो जाती है और रोग सौम्य हो जाते हैं। स्त्री की इच्छा करने वाले उत्तम स्त्री और पुत्रार्थी कुल को आनन्द देने वाला पुत्र प्राप्त करते हैं और परदेश गमन में भाई का समागम होता है।)

विमलसूरि ने कालजयी कृति के कृतिकार का दायित्व निर्वहण करते हुए साहित्य की सामाजिक व सांस्कृतिक आध्यात्मिक, दार्शनिक एवं धार्मिक उपयोगिता सिद्ध करने का पूर्व प्रयास किया है जिसमें वे पूर्णतया सफल रहे यही कारण है सहस्त्रों वर्ष पश्चात् भी पउमचरियं की प्रतिष्ठा गौरव-शिखर पर प्रतिष्ठित है।

 

H 210 Daffodils

Magarpatta city

Pune,-411013

टोडरमल जैन की धार्मिक सहिष्णुता और उदारता की प्रेरणास्प्रद कहानी ............


अभी महावीर जयंती के दिन मुझे पंजाब के फतेहगढ़ साहिब में स्थित गुरु ग्रन्थ साहिब वर्ल्ड यूनिवर्सिटी में एक अन्ताराष्ट्रीय सम्मेलन में जैनदर्शन पर व्याख्यान देने हेतु जाने का अवसर प्राप्त हुआ| फतेहगढ़ साहिब पंजाब के फतेहगढ़ साहिब जिला का मुख्यालय है। यह जिला सिक्‍खों की श्रद्धा और विश्‍वास का प्रतीक है। पटियाला के उत्‍तर में स्थित यह स्‍थान ऐतिहासिक और धार्मिंक दृष्टि से बहुत महत्‍वपूर्ण है। सिक्‍खों के लिए इसका महत्‍व इस लिहाज से भी ज्‍यादा है कि यहीं पर गुरु गोविंद सिंह के दो बेटों को सरहिंद के तत्‍कालीन फौजदार वजीर खान ने दीवार में जिंदा चुनवा दिया था। उनका शहीदी दिवस आज भी यहां लोग पूरी श्रद्धा के साथ मनाते हैं। फतेहगढ़ साहिब जिला को यदि गुरुद्वारों का शहर कहा जाए तो गलत नहीं होगा। यहां पर अनेक गुरुद्वारे हैं जिनमें से गुरुद्वारा फतेहगढ़ साहिब का विशेष स्‍थान है। 


वहां के जागरूक शोधअध्येताओं ने मुझसे जैनदर्शन पर बहुत अभिरुचि प्रगट की ,वे मुझे वहां के उस प्रसिद्द गुरूद्वारे ले गए जहाँ गुरु गोविन्द सिंह जी के दोनों पुत्रों को वहां के नवाब ने दीवार में जिन्दा चुनवा दिया था | इसी सन्दर्भ में उन्होंने वहां के दीवान टोडरमल जैन की उदार दृष्टि की जो कथा सुनाई वह मुझे पता ही नहीं थी , उन्होंने बताया कि  -तीन सौ वर्ष पहले सरहिंद में गुरु गोबिंद सिंह जी के दो पुत्रों को दीवार में चिनवाने के बाद उनके व दादी मां के पार्थिव शरीरों को अंतिम संस्कार के लिए नवाब जगह नहीं दे रहा था , उसने शर्त रखी कि अंतिम संस्कार के लिए जितनी जगह चाहिए उतनी जगह स्वर्ण मुहरें बिछा दो , वहां के सुप्रसिद्ध नगर सेठ टोडरमल जैन ने यह जिम्मेदारी  अपने ऊपर ले ली, और स्वर्ण मुद्राएँ बिछा दीं , नवाब का लालच बढ़ गया और फिर उसने कहा कि स्वर्ण मुद्राएँ खड़ी करके बिछाओ लिटा का नहीं, टोडरमल जी ने फिर भी शर्त मान ली और खड़ी स्वर्ण मोहरें बिछा दीं और अंतिम संस्कार हेतु जगह ली |

नवाब से स्वर्ण मोहरें बिछाकर भूमि प्राप्त करने वाले दीवान टोडरमल जैन का नाम भी तीर्थ भूमि सरहिंद से जुड़ा है। सामाना में जन्मे व माता चक्रेश्वरी देवी के उपासक टोडरमल जैन जमीनी मामलों के जानकार होने के कारण सरहिंद के नवाब वजीर खां के दरबार में दीवान के पद पर असीन हुए। उन्होंने नवाब से सोने की मोहरों के बदले भूमि लेकर उन तीनों महान विभूतियों का स्वयं अंतिम संस्कार किया। उसी स्थान पर फतेहगढ़ साहिब में गुरुद्वारा श्री ज्योति स्वरूप बना हुआ है जिसके बेसमैंट का नाम दीवान टोडरमल जैन हाल है।

उसके बाद वे वहां स्थित जैन मंदिर ले गए जहाँ जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर श्री आदिनाथ जी की अधिष्ठात्री चक्रेश्वरी देवी का एकमात्र ऐतिहासिक प्राचीन मंदिर, सरहिंद शहर के चंडीगढ़ रोड पर स्थित है। यहां 12वीं सदी से लगातार माता जी के श्रद्धालु विशेषत: खंडेलवाल बंधु अपनी कुलदेवी के रूप में माता जी की पूजा-अर्चना के लिए आते रहे हैं।पास में ही तीर्थंकर आदिनाथ का एक सुन्दर श्वेताम्बर मंदिर भी है जहां भगवान आदिनाथ के दर्शनों का लाभ भी मिलता है |

उन्होंने बताया कि12वीं शताब्दी में मारवाड़ में भीषण अकाल के कारण पंजाब की ओर लोगों ने पलायन किया। जैन खंडेलवाल परिवारों का एक जत्था कांगड़ा में विराजित भगवान ऋषभ देव के दर्शनों के लिए बढ़ रहा था जो सरहिंद में एक रात्रि के लिए रुका। अगली सुबह अधिष्ठात्री कुलदेवी की पूजन शिला वाली बैलगाड़ी आगे नहीं बढ़ी। दूसरी रात्रि भी वहीं रुकना पड़ा, तब आकाशवाणी सुनाई दी-मेरा स्थान आ गया है। मेरा भवन यहीं बनवाया जाए। भक्तों ने वहीं पर मंदिर बनवाया और स्वयं भी सरहिंद एवं पंजाब के अन्य शहरों में बस गए परन्तु सरहिंद में माता चक्रेश्वरी देवी के इस स्थान पर निरंतर आते रहे।

मैंने वहां देखा कि तीर्थ परिसर में विशाल धर्मशाला, विश्राम घर, खुले लॉन, भोजनशाला आदि की सुचारू व्यवस्था है। अपने गौरवपूर्ण व स्वर्णिम इतिहास तथा श्रद्धा का व्यापक आधार होने के कारण माता चक्रेश्वरी देवी के इस स्थान को अब अखिल भारतीय जैन तीर्थ होने का भी गौरव प्राप्त है।वहीँ दीवार पर बने टोडरमल जी के दो चित्र भी इस लेख के साथ संलग्न हैं |

इस पूरी कहानी से यह पता चलता है कि जैन समाज अपने से अन्य धर्म और धार्मिकों के प्रति कितनी उदार दृष्टि रखता आया है | जैनों द्वारा इस प्रकार की धार्मिक सहिष्णुता के हजारों किस्से हैं |


डॉ अनेकांत कुमार जैन 


क्या ध्यान ही एकमात्र उपाय है!


मानव जीवन पहिये की भाँति है। पहिये के दो सिरे हैं - बाहरी वृत व धुरी। पहिये का बाहरी वृत दौड़ता है। वह दौड़ने के लिए ही बना है। मानव में भी ठीक पहिये के बाहरी वृत की भाँति, दिमाग में विचार प्रक्रिया चलती रहती। शरीर के तल पर भी समय के साथ मनुष्य घुटनों के बल रेंगकर, जवानी और बुढ़ापे की सीढ़ी चढ़ता है। मस्तिष्क और शरीर के तल पर बदलाव जीवनभर जारी रहते।

पहिये का बाहरी वृत कोसों दूर दौड़ता रहता। दूरियाँ तय करता। पहिए के केन्द्र की धुरी यथावत एक स्थान पर बनी रहती।  

जीवन को समझने के लिए, पहिए की धुरी और पहिए का बाहरी वृत, ये समझने वाली दो बातें हैं। हाँ, एक तथ्य कहने लायक है कि जो व्यक्ति केवल विचारों के स्तर पर जीना चाहता है। जिसने विचार को सच समझ लिया है। उसके लिए यह आलेख भैंस के सामने बीन बजाने जैसा है।

ठीक पहिए में धुरी की तरह मानव जीवन में भी एक ऐसा ही केंद्र है। गहरे तल पर। हृदय के तल पर। मन के तल पर। यह धुरी है, जो बाहरी वृत पर, विचारों की भाँति बदलती नहीं है। यहाँ केवल होना है। समय में जैसे वर्तमान 'अब' के रूप में, समय का केंद्र है वैसे ही मानव जीवन में यही 'होना' - वह है, मैं हूँ और वे सब हैं, जीवन का केन्द्र है। 

यह आप स्वयं भी अपने जीवन में देख सकते हैं। अभी आप जिस भी आयु के हों। यदि आप अपने जीवन को पीछे मुड़कर देखें कि पिछले साल, 10 बरस पहले या 20 बरस पहले या बचपन तक कुछ ऐसा है आपके जीवन में, जो ठीक वैसा ही है जो बचपन में था, जो दस बरस पहले था । जो जवानी में था और आज भी है।

सामान्यतः  जन्म के बाद सशर्त जीवन - परिवार की शर्तें, पाठशाला की शर्तें, धर्म की शर्तें, समाज की शर्तें, ये सब हमारे मन पर, धूल की तरह परत दर परत, चढ़ती चली जाती और हम अपने केंद्र से, धुरी से दूर होते जाते उसको भूल जाते। यह एक नायाब तरीका है मानव जीवन पर नियन्त्रण का। मानव के चेतन पर उसके मन के तल पर धूल की पर्तें चढ़ा दो। जब मानव के इस तल पर पर विचारों की पर्तें चढ़ जायेंगी तो उस पर नियन्त्रण आसानी से हो जायेगा। उसे युद्धभूमि में आसानी से लाया जा सकता है, युदध की आग में झोंका जा सकता है।।आज तक सभी राजनीतिज्ञों ने, धर्मों ने यही किया है और अभी भी कर रहे हैं। 

सशर्त जीवन बोझिल बन जाता है। व्यक्ति की चहक उसका चैतन्य है। शर्तिया समाज व्यक्ति के चेतन को छीन लेता। उसकी चहक को छीन लेता। यदि व्यक्ति जोर से ठहाके लगे तो समाज व्यक्ति के ठहाकों को भी झेल नहीं सकता। समाज जीवन के उत्सव को, सशर्त कर जहरीला बना देता है।

व्यक्ति के जीवन पर नियंत्रण करना हो तो उसे, उसके धरातल, सेक्स से काट दो। यह सभी धर्मों ने यही किया है। तभी तो व्यक्ति, अपने धरातल को पढ़ने, समझने की अपेक्षा, धर्म-गृह की दीवारों में गर्दन झुकाए, धोक देने चुपचाप चला आता है। 

धर्मों ने मानव को, मानव न रहने दे कर, धार्मिक बना दिया। एक लेबल् लगा दिया। एक परत चढ़ा दी। तुम मुसलमान हो, तुम हिन्दू हो, तुम ईसाई हो, तुम यहूदी हो।

ऐसी दीवार खड़ी कर, इनको आसानी से आपस में लड़ाया जा सकता है।

इस तरह व्यक्ति जीवन की परिधि पर जीवन जीता है। जब परिधि पर जीता तो विचार प्रक्रिया उसका धरातल बन जाता। वह इसी विचार प्रक्रिया को जीवन में सुलझाता रहता। यही उसका सच बन जाता। वेदों का सुना संजोया ज्ञान कहीं विचारों की रेत की परतों के तले दब लुप्त सा हो जाता। बहुत गहरे में।

विचार के धरातल पर अहम और बेइज्जती मनुष्य जीवन का केन्द्र बन गये हैं।

यदि किसी को झँझट मोल लेना हो तो किसी की आलोचना कर दो। इससे भी आगे बढ़ना हो। अपना सिर फुड़वाना हो तो किसी को गाली दे दो। केवल जीभ चलाने की देरी है। दुश्मनी की दीवारें चन्द सैकण्डों में खड़ी हो जायेंगी। आपको हाथ पैर हिलाने की जरूरत नहीं है। यह खबर भी आग की तरह फैल जायेगी। मानव जीवन रुग्ण हो गया है। परिधि पर है। धुरी का उसे भान नहीं है।

कहते हैं एक बार बुद्ध प्रवचन दे रहे थे। कुछ लोग बुद्ध को उलटा सीधा कह रहे थे। एक दो गाली भी दे रहे थे। प्रवचन समाप्ति के बाद बुद्ध सीधे उन लोगों के पास गये। बुद्ध ने उनसे कहा कि जो प्रसाद अभी तक आप बाँट रहे थे। जो अपशब्द आप लोग कह रहे थे। उस प्रसाद को मैंने अपनी झोली में नहीं लिया। आपका प्रसाद मैंने स्वीकार नहीं किया। मैंने अपने हाथ प्रसाद लेने के लिए नहीं बढ़ाये। प्रसाद बाँटने वाले के पास ही रहने दिया। वह प्रसाद आप ही के पास है। बुद्ध की यह समझ किसी भी धर्म के देवालयों में नहीं मिलेगी।

इस तथ्य को थोड़ा और समझने का प्रयास करें।

प्रेमी युगल के हृदय तल पर प्रेम घटता है। यही तल जीवन की ऊँचाइयों को छूने का, मंजिलें तय करने का सहज सम्बल देता है। दिल की दीवारों के बीच समर्पण घटता है। 

जब जब प्रेम घटता है तब बाहें भी मिलती हैं। मिलन व तड़प की आहें भी जगह पाती हैं । हम आलिंगनबद्ध होते हैं। यह घटना नियति के सिरे पर घटती है यानी जीवन की धुरी के सिरे पर घटती है। युगल का एक होने के लिए मिलन। एक होकर जीने का संज्ञान। जीवन की धुरी पर द्व सम्भव नहीं है। इसीलिए तो प्रेम को तलवार की धार पर चलने की संज्ञा दी गयी है।

जीवनयापन की जब बात आती है तो हमें प्रेम के तल से , धुरी से जीवन के वृत की परिधि के सिरे पर आना पड़ता है। योजनाएँ बनानी पड़ती हैं। अन्य व्यक्तियों से सम्पर्क साधना होता है। अपनी सोच को अभिव्यक्त करना होता है। यह सब चिंतन के सिरे पर, प्रश्न और उत्तर के जगत पर, जीवन के वृत की परिधि पर घटता है।

प्रेम का दिनमान जब प्रतिदिन की ऊँच नीच को, पेचीदगियों को जीता तो उसे परिधि पर आना ही पड़ता है। यहाँ परिधि पर आकर, वहाँ पर खड़े प्रश्नों के व्यूह में, युगल अपने प्रेमाधार - हृदय तल पर, भूल की धूल चढ़ने लगती। दिमाग परिधि की इस राह पर नये नये प्रश्न खड़े कर, नये नये सपने देकर अचेतन की भूल भूलैया में धकेल देता है।

व्यक्तिगत स्तर पर थोड़े बहुत झँझट  विकराल रूप ले लेते हैं। शाम को घर पर थोड़ा झंँझट हो तो वह झँझट बिस्तर में साथ सोता है। और सुबह जब आप उठते हैं तो वह झँझट सामने खड़ा मिलता है। यह सब विचारों के तल पर घटता है। उसको, झँझट को निपटाने का, उस झँझट को छोड़ने का उसे दफन करने का समाधान ना हुआ।


पति-पत्नी का वैचारिक मतभेद, उनके सम्बन्ध को, चौराहे पर ला खड़ा करता है। विचार के तल पर, एक व्यक्ति के, हजारों रुप हैं परन्तु हृदय के तल पर हजारों व्यक्ति एक सूत्र से जुड़े हैं -एक हैं।


पति-पत्नी के बीच छोटा सा मनमुटाव, दोनों के बीच, उनके बिस्तर पर तलवार की धार बन जाता है। उनके बीच आलिंगन का तो प्रश्न ही नहीं उठता। उनकी नजदीकी भी सैकड़ों कोसों की दूरियाँ बन जाती हैं। एक कड़वाहट, दो शरीरों में, बिस्तर पर सोती है। एक ऐसी कड़वाहट जो केंचुली की परत बन, परत दर परत मोटी होती चली जाती है। दो व्यक्ति जो प्यार के कारण जुड़े थे। जो हृदय तल पर जुड़े थे। वे वैचारिक तल पर पर आकर एक दूसरे का चेहरा देखना भी नहीं चाहते। वे अपने दिल को भूल जाते हैं और दिमाग का दही बना लेते हैं।

एक ईर्ष्या भाव, द्वेष, एक क्रोध भाव जो एक केंचुली की तरह से दिमाग में को जकड़ कर बैठ गया है। वह एक प्रश्न के सिरे से शुरू होकर, अन्तहीन प्रश्न-श्रृंखला बन, झगड़े की आग बन, जीवन में  महाभारत का रूप भी ले लेता है। 

उसको छोड़ने छुड़ाने का कोई इन्तजाम न हुआ। झँझट जो साँझ घर पर हुआ था। सुबह उठे तो सामने था। वही काम के दफ्तर में काम की टेबल तक पहुंच गया तो वहाँ भी आपको परेशानी ही देगा। 

ठीक इसके विपरीत यदि झँझट दफ्तर की कुर्सी पर शुरू हुआ या टेबल पर शुरू हुआ और वह शाम को घर पहुंच जाता है तो वह झँझट खाने की टेबल पर पहुंच जायेगा। यह केंचुली बना साथ घूमता। उस केंचुली से छुटकारे का उपाय यथासमय न हुआ।


अब प्रश्न यह उठता है कि दिनभर में मानसिक तल पर जो क्रोध, ईर्ष्या, संताप व पीड़ा एकत्रित होती है उससे छुटकारा कैसे पाया जाय ? ताकि जीवन में मस्तिष्क एक कचरा पात्र न बनकर स्वस्थ यन्त्र बन जाये।


भारतीय दर्शन में इस प्रश्न पर, इस क्षेत्र में बहुत व्यापक स्तर पर आदिकाल से शोध हुआ है कि जीवन में दु:ख से छुटकारा कैसे मिले ? हमारे ऋषि मुनियों ने बहुत तपस्या की है, मनस के सूक्ष्म बिन्दुओं तक पहुँचने की।  दु:खों से छुटकारा पाने की। आत्म-मुक्ति की राह बनाने की।


ध्यान, ध्यान और ध्यान ही एक उपाय है। मौन भी बैठना हो सकता है। नृत्य की थिरकन भी और हँसी का फव्वारा भी ध्यान है। ध्यान धुरी के तल पर एक अनुभूति है। जो विचार शून्य है। इसकी अभिव्यक्ति गूँगे के मुँह में गुड़ जैसी है।


सहज साक्षी हो जीवन के वृत की परिधि से जीवन की धुरी पर ध्यान की सीढ़ी के सहारे सहज उतरने का श्रम है। जब आप इस ध्यान की सीढ़ी से धुरी की तरफ उतरेंगे तो वृत पर विचार के तल पर जितना कचरा आपने दिनभर में इकट्ठा किया था वह पुँछ जायेगा। जो धूल इकट्ठी हुई थी वह झड़ जाएगी। जो क्रोध, ईर्ष्या, संताप व पीड़ा की केंचुली बनी थी वह घुल जायेगी और आपके जीवन में खिलना हो जाएगा। 

मानव जीवन में परिधि और धुरी की समझ व उसमें तादात्म्य कैसे बिठाया जाय यही एक चुनौती है।


रामा तक्षक


 एहसास


आज अलसुबह ही वर्षों पूर्व खाए गोलगप्पे का स्वाद याद आ गया।


 बचपन से ही वह गोलगप्पे खूब चाव से खाती थी ।


 उम्र बढ़ जाने के कारण ऐसी चीज खाने से डॉक्टर मना करते हैं।


  इस मन का क्या करें?

 बड़ी बेचैनी हो रही है।

  खुद जाकर ठेले पर गोलगप्पे कैसे खाऊं?



 पता नहीं बेटा कैसे रिएक्ट करेगा?  प्रयत्न करने पर भी अब नींद नहीं आ रही थी। 


 सुबह बेटा रोज की तरह ऑफिस  जाने पूर्व मेरे कमरे में आया।


मुझे उदास देखकर पूछ बैठा 

मां क्या बात है ?

आज आप उदास लग रहे हो?


 किसी ने कुछ कहा?

  पापा की याद आ रही है ?

मैं  अपनी दुविधा क्या बताती ?


मेरी गोलगप्पे खाने की इच्छा पर वह नाराज होगा ? हंसेगा?


 या फिर इस उम्र में गोलगप्पे खाने के नुकसान  गिना  दे तो।


 मैंने चुप रहना ही उचित समझा।

 पर वह मेरा पीछा कहां छोड़ने वाला था।

  बात को हल्का करने मैंने कहा

 कुछ नहीं बेटा बस ऐसे ही श्याम चाटवाले के गोलगप्पे याद आ गए।

 कितना स्वादिष्ट बनता था।

 तेरे पापा और मैं हर रविवार को जाते थे खाने।

 बरसबस सच्ची बात मुंह से निकल गई।


 अरे मां पहले क्यों नहीं बताया?

 मैं आज शाम को चाटवाले को घर  आने बोल देता हूं।

 आप खा लेना ।


 अलसुबह से चली आ रही मेरी कशमकश इतनी सरलता से समाप्त हो जाएगी ,सोचा ही नहीं था।


 बड़े इंतजार के बाद 4:00 बजे चाटवाले ने  आवाज लगायी।

मैं  प्रसन्नता से दरवाजे पर आ गई ,

चाटवाला

 बोला अम्मा जी मसाला हल्का रखूं या तेज ?

मैंने कहा थोड़ा तेज।

 वह मसाला बनाने लगा

इतने  मे ,मैं 35 वर्ष पहले  के अतीत मे पहुंच गई।

वृद्धावस्था में मेरी सासू मां ने आलू पूरी खाने की इच्छा प्रकट की थी।

उन्हें तला भुना बहुत नुकसान करता था।

  डॉक्टर की सलाह मानकर तला खिलाना बंद कर दिया था ।

मैंने  कहा लीची, आम लाई हूं अम्मा जी उन्हें खाओ ना पूरी आपको नुकसान करेगी।

 अम्मा जी मायूस हो गयी ।

अब कितना जीना है चल जैसे तेरी मर्जी।

2 महीने में ही अम्मा जी चली गई ।

उनके श्राद्ध पर घर में आलू पुरी जरूर बनती है कौवे को जरूर खिलाते हैं ।जीते जी उनकी इच्छा पूरी न करने का मलाल हमेशा  रहता है।आज मेरा बेटा भी यदि डॉक्टर की सलाह बता  कर मुझे गोलगप्पे खाने से मना कर देता तो?

मेरी आंखों से झर झर आंसू टपक रहे थे हाथ में गोलगप्पा लिए चाट वाला मुझे टुकुर टुकुर देख रहा था।


अपराजिता शर्मा

रायपुर छत्तीसगढ़

लघुकथा -----अभिनय-


आकाश मंच पर बैठा अकेले सोच रहा था , बुद्धू  मुझे कहती है और स्वयं.... इतना सा अभिनय भी नहीं कर सकती।कहती हैं आपसे सीख रही हूँ, तो देखो मैं बरसों से तुम्हें भूलाने का जो अभिनय करता हूँ , उससे सीखों । 

आज एक मिंटीग के दौरान दोनों फिर मिले थे। धरा और आकाश वक्त बार बार सामने ला देता हैं।जैसे  भाग्य खेल रहा हो दो व्यक्ति से कि अलग भी नहीं होने देता और मिलाना भी नहीं चाहता।बस उनका छटपटाना देखता है पल -पल -प्रतिपल  ।धरा हमेशा कि तरह जल्दबाजी करती रही  आज भी मानो उसे कहीं जाना हो या फिर इस जगह से छुटकारा पाना हो। आकाश वैसा ही जैसे बरसों से है शांत धीर गंभीर और हांँ मौन यह विशेषताएं थी उसके व्यक्तित्व की। मिटींग में दोनों पास ही बैठे थे बिल्कुल अजनबियों की तरह सबकी सुनते  सुझाव देते मुसकाते लेकिन एक दूसरे को  नजर भर कर ना देखते, जैसे कोई करार टूट जाएगा। मिंटीग खत्म हुई सभी पुनः मिलने के वादे पर अलग हो रहे थे। जब धरा आकाश आमने सामने आए तो केवल अभिवादन छोड कर कुछ नहीं किया जैसे टाल रहे हो एक दूसरे को नया प्रण करने से कोई करार करने से। तभी धरा के हाथ से पर्स गिर जाती हैं उसने झुक कर पहले आकाश के चरणों को स्पर्श  किया फिर पर्स उठाया आकाश स्पर्श  पहचानता है मन से अनेकों आशीर्वाद देता रहा और खुद अनभिज्ञ  होने का अभिनय भी खूब करता रहा।धरा ने भी आकाश का साथ दिया और सभी से विदाई लेती हुई आगे बढ़ी ट्रेन का समय हो रहा था। टैक्सी ले लिए हाल  के बाहर खड़ी थी रात हो चली थी आकाश भीतर से देख रहा था सभी व्यस्त है कोई छोड सकता है ना स्टेशन तक ।कुछ ना बोला किसी से बाहर आकर कार निकाली और  धरा को बैठने का इशारा किया। धरा भी बैठ गई आज तक कोई बात नहीं टाली फिर यह तो चंद मिनट का ही साथ था वह भी छोडने जा रहा था आकाश उसे और क्या चाहिए । कुछ देर में स्टेशन आ गया, आकाश केवल इतना ही बोला अंदर चलूं ....?

ना ,मैं चली जाऊंगी आप बेफिक्र रहिए।

वहीं तो, बेफिक्र ही तो नहीं रह सकता, तुमसे आज तक कुछ भी श्रेष्ठ नहीं हो पाया, आज का अभिनय भी नहीं। अपना ख्याल रखना, मेरे लिए ..... प्लीज़ मेरा  आर्डर   ही समझों । 

धरा हल्की सी मुस्कान के साथ हां में स्वीकृति देती हैं और चल देती हैं।आकाश बहुत देर तक पार्किंग में ही बैठा रहता है, फिर  बुदबुदाहट भरे स्वर में खुद से बातें करता है  धरा मैं केवल कह देता हूँ तुम सुन लेती हो मान लेती हो मेरी सरल धरा! तुमसे कहता हूँ अभिनय ठीक से करो लेकिन मैं भी तो नहीं कर पाता  हूँ।

अब रात गहराती जा रही थी यादों के दीप जल उठे थे दूर जंगल जूगनुओं से झिलमिला रहा था, इधर आकाश में सितारें जगमगा रहे थे। दूर तक प्रकृति में संतुष्टि थी आपके मिलन की भी और विछोह की भी। अभिनय खूब रहा दोनों का निपुण तो नहीं थे दोनों पर संतोष चेहरे पर साफ दिखाई दे रहा था।


सौ सुमन गोपाल दुबे 

सन्नाटे की आहट - हुक्के की गुड़गुड़ाहट।

 सन्नाटे की आहट - हुक्के की गुड़गुड़ाहट।


एक छोटी सी घटना है मेरे अपने बचपन की। यह घटना भले ही छोटी हो परन्तु बड़ी गहरी चोट करती है। 'राम' नाम  शब्द भी छोटा है। दो ही अक्षरों  का है। एक सम्पूर्ण मंत्र है। यदि यही मंत्र, मानव मन का भी मंत्र बन जाए तब जीवन की सजगता की गहन परतों का पता देता है।

मैं गर्मी की छुट्टियों में नानी के पास गया था। नानी काशीपुर, नैनीताल के पास रहती थी। मेरे नाना भी जीवित थे। नाना  दिनभर हुक्का गुड़गड़ाते। उनका दिनभर हुक्के की गुड़गुड़ाहट के इर्द-गिर्द ही व्यतीत होता। चाय पी लें तो हुक्का चाहिए। भोजन कर लिया तो हुक्का। सुबह घूम आए तब भी और कोई मेहमान आ जाए, तब भी उनकी आवभगत भी, हुक्के से ही होती।

जब भी कोई आता हुक्के को नया जीवन दिया जाता। हुक्के के, सिर वाले, अलग होने वाले ऊपरी भाग, चिलम में नई तम्बाकू की परत जमाई जाती। उस तम्बाकू पर एक गोल ठेकरी रखी जाती। चिलम में ठीकरी के ऊपर नई आग के अंगारे रखे जाते। हुक्के की देह से पुराना पानी निकाल दिया जाता। 

इस पानी की तम्बाकू सड़ान्ध से बचने के लिए, मैं कहीं दूर, पेड़ के नीचे आ बैठता। हुक्के में नया पानी भरा जाता। आग घर में हमेशा जलती रहती। अतः हुक्के के लिए अँगारे भी सदैव उपलब्ध रहते। 

मेरा जन्म एवं मेरी परवरिश ऐसे परिवार में हुई जो पीढ़ियों से तंबाकू के सेवन से दूर रहता आया है। यहां तक की तम्बाकू को छूना भी पाप माना जाता है।

यदि कोई  तम्बाकू सेवन करने वाला मेहमान घर पर आ जाता तो बड़ी कठिनाई होती । मेहमान बीड़ी या सिगरेट अपने साथ ही लाते थे। कभी अनायास मेहमान को किसी कारणवश एक दो दिन लम्बा ठहरना पड़ता तब तो उनके तम्बाकू सेवन की व्यवस्था गांव में जोशी जी की छोटी सी दुकान से खरीद कर की जाती।

जोशी जी को तंबाकू का सेवन  करने व तम्बाकू को न छूने के बारे में मेरी पारिवारिक स्थिति का पता था। इसलिए वह बीड़ी या सिगरेट के पैकेट को एक लंबे धागे में बांधकर मुझे दे देते। धागे में लटकते हुए बीड़ी सिगरेट के पैकेट को घर पर लाकर मैं मेहमान के हवाले कर देता।

इस इसलिए जब भी मैं नाना नानी के पास होता मुझसे कोई भी हुक्का में तंबाकू या हुक्के में पानी भरने के लिए कोई नहीं कहता। 

इसी विशेष कारण से मैं नानी के कमरे में सोता। क्योंकि नाना  के कमरे में हुक्का गुड़गड़ाने की और तंबाकू की महक सदैव बनी रहती। उनके बिस्तर और कपड़ों में भी। उनके हाथ पर पीलापन, हुक्के की नाल पकड़ने वाला भाग, स्थायी रुप से बना रहता।

बाहर अँधेरा हो चुका था। सोने के कमरे में लालटेन की रोशनी थी। नानी मुझे आपबीती सुना रही थी। यह आपबीती उस समय की थी जब मेरे नाना और नानी इस जमीन को खरीदकर यहां रहने लगे थे। यहाँ चारों तरफ जंगल ही  जंगल था और जंगली जानवर भी थे।

शुरू के दिनों में तो रात को जंगली जानवरों के खतरे से बचने के लिए,  विशेषत:  परिवार के बच्चों की सुरक्षा के लिए, रात भर मोटी मोटी लकड़ियों की आग जलानी पड़ती थी।

यह आप बीती मुझे बहुत ही रोचक लग रही थी। तभी नानी को कल के काम के बारे में याद आया। नानी को अगले दिन सुबह कुछ  काम था। इस काम की तैयारी के लिए उन्हें  दूसरे कमरे में,अँधेरे में, कुछ ढूंढना था। उन दिनों बिजली की रोशनी नहीं थी। उनको लालटेन की जरूरत थी ताकि अपनी कल की तैयारी कर सकें।

नानी ने कहा "मैं लालटेन ले जा रही हूं थोड़ी देर के लिए।"

मैंने कहा " नानी लालटेन मत ले जाओ मुझे डर लगता है।" नानी ने कहा "तुम्हारे पास भगवान राम हैं। डरने की कोई जरूरत नहीं है।"

मैंने नानी से कहा "नानी आप भगवान राम को साथ ले जाओ पर आप लालटेन यहीं छोड़ जाओ।"

नानी की यह बात बहुत बरसों बाद, रामचरितमानस के अध्ययन के बाद, समझ में आयी।

राम को जब वनवास के जाने के बारे में सुनने को मिलता है तो वह तनिक भी, विचलित हुए बिना, पिता के वनवास के आदेश को, राजतिलक की अपेक्षा, सहज अँगीकार कर लेते हैं।

"जौं पितु मातु कहेउ बन जाना। तौं कानन सत अवध समाना॥"

राम का जीवन के प्रति स्पष्ट संकेत है कि माता-पिता का आदेश है  तो कानन यानी वन भी मेरे लिए अवध समान हो जाएगा। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि मेरा राजतिलक हो। राजतिलक एक दिखावा है। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता है कि मैं वन में रहूं। वन भी एक दिखावा है। वन भी अवध समान ही हैं।

यह पढ़कर मेरे दिमाग में, नानी के लालटेन ले जाने का प्रसंग, एक प्रश्न रुप में, बिजली की तरह कौंधा।

नानी की जरूरत पर तो मैं उनको लालटेन दो मिनट के लिए भी ले जाने नहीं दे रहा था। मुझे अंधेरा हो जाने का भय खाए जा रहा था। यहां तो राम चौदह वर्ष के लिए वनवास जाने को तैयार हैं। बिना विचलित हुए। मैंने स्वयं से ही पूछा - आखिर रहस्य क्या है ? 

मेरी नानी का यह कथन कि 'भगवान राम तुम्हारे साथ हैं।' उनका यह जो संदेश है वह शब्दों से परे है। शब्द केवल इशारा भर हैं। उनका कहना था कि स्थिति को स्वीकार करो और स्वीकार भाव से चित्त में उतर जाओ, अन्तर की यात्रा करो। वहां कोई डर नहीं है। वहां लालटेन के प्रकाश की आवश्यकता नहीं है।

ब्रह्मांड में उजाले का और प्रकाश का 'होना' है। यह होना एक घटना है। जबकि 'डर' एक विचार है। 'दु:ख' एक विचार है। 'उजाला' एक स्थिति है और 'अंधेरा' भी एक स्थिति भर है। 

नानी के शब्दों का गहरे में अर्थ है कि इंद्रियों की दौड़ को वापस समेट लो।  इंद्रियों की बाहर की तरफ दौड़, सदैव एक डर के साथ, बनी रहेगी। इस बाहर की दौड़ में गिर जाने का खतरा भी सदैव बना रहेगा। जब अंतर यात्रा पर उतरोगे तो बाहर का डर, अपने आप समाप्त हो जाएगा। डर विलुप्त, विलीन हो जाएगा।

अंतर की यात्रा में गिरने का खतरा नहीं है।जब जब हम आशक्त होते हैं तो हमारी चिंतन प्रक्रिया, हमारी पूरी जीवन धारा, उसी तरफ, उसी आशक्ति की ओर जीवन ऊर्जा खिंचती चली जाती है।

विपरीत परिस्थितियां सदैव व्यक्ति के सामने दो विकल्प खड़े करती। एक विकल्प तो यह कि व्यक्ति उस परिस्थिति को स्वीकार भाव से पूर्णतया स्वीकार कर, अपने मानसिक संतुलन को बनाए रखते हुए, अपनी जिज्ञासा को खोजते हुए उस प्रतिकूलता का अध्ययन कर  समाधान ढ़ूढ़े।

दूसरा विकल्प है कि हम सिर्फ मानसिक तौर पर चिंतत हो जायें, समय को कोसने लगें। पागलपन के दौरे पड़ने लगें और हम पागल हो जायें।

राम का जीवन एक सामान्य व्यक्ति का जीवन है। उदाहरण के तौर पर यदि आप देखें  कि जब राम वनवास काल में थे और उन्होंने  रावण की चाल में आकर, सोने के हिरण का शिकार किया। उस शिकार को जब राम लेने गए तो उस समय जो उनका व्यक्तित्व है। वह एक सामान्य व्यक्ति का व्यक्तित्व है। उसमें परमात्मा का स्वरूप नहीं दिखाई देता।

लेकिन जब उनको सीता के अपहरण की जानकारी होती है और उसके बाद की जो घटना है वह राम के जीवन का स्वीकार भाव है। 

उस स्वीकार भाव में स्थित रहते हुए, सीता को वापस कैसे लाया जाए यह  रणनीति बनाते हैं। इस रणनीति में उनके स्वीकार भाव के साथ साथ उनका धैर्य, उनकी जिज्ञासा और उनका नेतृत्व ये सभी गुण दृष्टिगोचर होते हैं। राम योजना को सफलतापूर्वक क्रियान्वित करने के लिए पूरी रणनीति बनाते हैं। उस रणनीति के लिए वह यथोचित व्यक्ति एवम् सही पात्र चुनते हैं। सही पात्र चयन का आशय है कि पचास प्रतिशत सफलता। 

सन्नाटे की आहट को सुनने का धैर्य व्यक्ति को कालजयी बना देता है। यह बात राम के जीवन में हर पल दृष्टिगोचर होती है। 

रामचरितमानस या रामायण का कोई भी प्रसंग हो, जब सीता के स्वयंवर के लिए जनकपुर में शिव धनुष तोड़ रहे थे तब की बात हो या अयोध्या में उनका वनवास की तैयारी हो रही  है तब भी और जब राम ने वन के लिए गमन किया तब भी। बार बार उनका असीम धैर्य चरितार्थ हुआ। 

जब सीता का अपहरण हुआ उस समय तो उनके ऊपर सन्नाटे का पहाड़ टूट पड़ा था । लेकिन हर स्थिति में अपने आप को सन्नाटे की आहट के साथ बनाए रखा।

राम के जीवन का जो चित्र है उसमें यह सर्वत्र दिखाई देता है कि जीवन 'अब' है। इस वर्तमान क्षण में है। परिस्थितियां चाहे प्रतिकूल हो जायें या अनुकूल। परिस्थितियां चाहे प्रिय हों या अप्रिय हों। चाहे प्रकाश हो या फिर घोर अंधेरा है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। उन परिस्थितियों को मानसमात्र संपूर्ण रूप से जी सके। यही राम के जीवन का सबसे बड़ा मूल मंत्र है।

स्वीकार भाव, व्यक्ति को 'अब' और 'वर्तमान क्षण' की नब्ज की पहचान कराता है। कल नहीं, 'अब'। आज नहीं, 'अब' में जीवन के तार, समय की कुञ्जी को जीने के लिए कहीं गहरे में आत्मसात कराता है। इस आत्मसात की अनुभूति में 'मैं' का कोई स्थान नहीं है। वहाँ सब होना है। सब राममय है।

वाल्मीकि कृत रामायण हो या फिर तुलसीकृत रामचरितमानस राम के जीवन में सन्नाटे की आहट की प्रतिध्वनि जीवन के हर महत्वपूर्ण मोड़ पर सुनाई पड़ती है। जो कि उनके धैर्य में स्पष्ट रूप से प्रतीत होती है। उनकी एकाग्रता भी इसी सन्नाटे की प्रतिध्वनि का ही प्रतिबंब है। राम का संदेश है - मेरा जीवन मेरे 'स्वीकार भाव' में है।


राम के जीवन में सर्वत्र 'स्वीकार भाव' दिखाई देता है। राम परिस्थितियों के साथ जीते हैं। परिस्थिति चाहे अनुकूल हो या प्रतिकूल हो। इस बात का उनके जीवन पर कोई असर नहीं पड़ता। 


जीवन अपने आप में पूर्ण है, अनुकूल स्थिति में भी और प्रतिकूल परिस्थिति में भी। यह बात राम के जीवन में पग पग पर दिखाई देती है। हर क्षण दिखाई देती है। उनके जीवन में 'स्वीकार भाव' अनुपस्थित नहीं है, सदैव उपस्थित है।


राम के जीवन में 'स्वीकार भाव' ही जिज्ञासा का धरातल है और जिज्ञासा का धरातल ही उनको अपनी योजनाओं की सफल क्रियान्वित की समझ देता। राम विपरीत परिस्थितियों को अनुकूल बनाने के लिए योजना बनाते हैं। अपनी योजनाएं को  सफलतापूर्वक कार्यान्वित करने तक पूर्ण धैर्य भी रखते हैं।

यही स्वीकार भाव और यही समझ उनके नेतृत्व का आधार है। परिस्थिति चाहे जैसी भी क्यों न हो! चाहे हलचल हो या सन्नाटा।सन्नाटे की अपनी सत्ता है।सन्नाटे की आहट आप भी सुन सकते हैं। शर्त केवल और केवल मात्र एक है। वह शर्त है - जब आप भी मानसिक रूप से, शारीरिक रूप से, तन से, मन से, उस क्षण में, जो वर्तमान में आपके समक्ष  सन्नाटे के रूप में खड़ा है, उपस्थित हैं। तभी आप सन्नाटे की आहट सुन सकते हैं। आप सन्नाटे के साथ एकरस हो सकते हैं।

यही क्षण आपको स्थितप्रज्ञ होने की चुनौती देता है। आपके स्वीकार भाव को चुनौती देता है। यदि आप निर्विचार हैं, उस क्षण में, उपस्थित हैं, उस परिस्थिति में उपस्थित हैं। और परिस्थिति को पूर्णतया स्वीकार करने में, कहीं भी मन में, उस  परिस्थिति के प्रति, प्रतिकार नहीं है। ऐसी स्थिति में ही स्वीकार भाव घटता है। स्थितप्रज्ञ होने की घटना घटती है।

यदि आप स्थितप्रज्ञ हो जाएँ, तभी आप सन्नाटे की आहट को सुन पाएंगे। आप अपनी चेतना तक पहुंच पाएंगे। आप अपने को पहचान पायेंगे। कहीं गहरे में इस प्रश्न का उत्तर अनुभव कर पायेंगे कि 'मैं कौन हूँ ?"


राम के व्यक्तित्व  में यही  स्वीकार भाव, राजतिलक के अवसर एवम् सिंहासनारूढ़ होने की अपेक्षा, वनवास का आदेश सुनने से लेकर, पिता दशरथ के अस्वस्थ होते हुए भी एवम् मां कौशल्या को विव्हल देखकर भी राम विचलित नहीं होते हैं। पेचिदगियों से भरी पारिवारिक स्थिति में भी, उनको परिस्थिति का स्वीकार भाव, अविचलित बनाए रखता है।

वनवास का आदेश सुन वे स्थिति को भांपते हैं, तटस्थ बने रहते हैं। बीमार पिता के पास जाते हैं, रुदन करती माता के पास जाते हैं। राम अपने माता पिता के पैर छूते हैं। सहर्ष अपने  माता पिता की जीवन-ऊर्जा का, चरणस्पर्श कर, आचमन मन करते हैं।

"रघुकुलतिलक जोरि दोउ हाथा। मुदित मातु पद नायउ माथा॥"

यही स्वीकार भाव, राम को , इस प्रतिकूल परिस्थिति को, अनुकूल बनाने में, उस क्षण को उसी की पूर्णता में जीने में, सहायक बनता है।अपने राम अपने गुरु वशिष्ठ से भी शीश नवाते हुए विदा लेते हैं

एहि बिधि राम सबहि समुझावा। गुर पद पदुम हरषि सिरु नावा।

स्वीकार भाव आपको जीवन की 'अनुभूति' की यात्रा करवाता है।  इसके ठीक विपरीत 'अनुमान' आपको जीवन के दूसरे छोर पर ला खड़ा करता है।। अनुमान के लिए स्वीकार भाव में कोई स्थान नहीं है। स्वीकार भाव में आप 'अनुमान' से दूर और अनुभव के पास हैं, अनुभव की गोद में हैं।

जीवन के प्रति यही स्वीकार भाव उनके धैर्य का आधार है।यही धैर्य उनकी कठिन परिस्थितियों को साधने की कला बन जाता है। उनको सही निर्णय के लिए भी प्रेरित करता है। यही स्वीकार भाव सही निर्णय के रुप में उनकी सफलता का मार्ग बन जाता है।जब जीवन सरल तरीके से चल रहा हो और उसमें अचानक कुछ परिस्थितियां, समय की राह को ही बदल दें तो जो आपके मस्तिष्क में चिंतन क्रियाओं का बहाव शुरू  होगा। यह सारा बहाव,हमसे हमारा वर्तमान छीन ले जाता है। हमारे सामने एक झंझट खड़ा हो जाता।  यही एक छोटा सा क्षण है जो हमारे जीवन के संतुलन को तौलता है। यदि हम उस झंझट को स्वीकार कर लें। इसी स्वीकार भाव से, इस शुरू हुए नये झंझट की दिवारें, एक एक कर गिरनी प्रारम्भ हो जाती हैं। 


रामा तक्षक

नीदरलैंड्स

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