लघुकथा -----अभिनय-


आकाश मंच पर बैठा अकेले सोच रहा था , बुद्धू  मुझे कहती है और स्वयं.... इतना सा अभिनय भी नहीं कर सकती।कहती हैं आपसे सीख रही हूँ, तो देखो मैं बरसों से तुम्हें भूलाने का जो अभिनय करता हूँ , उससे सीखों । 

आज एक मिंटीग के दौरान दोनों फिर मिले थे। धरा और आकाश वक्त बार बार सामने ला देता हैं।जैसे  भाग्य खेल रहा हो दो व्यक्ति से कि अलग भी नहीं होने देता और मिलाना भी नहीं चाहता।बस उनका छटपटाना देखता है पल -पल -प्रतिपल  ।धरा हमेशा कि तरह जल्दबाजी करती रही  आज भी मानो उसे कहीं जाना हो या फिर इस जगह से छुटकारा पाना हो। आकाश वैसा ही जैसे बरसों से है शांत धीर गंभीर और हांँ मौन यह विशेषताएं थी उसके व्यक्तित्व की। मिटींग में दोनों पास ही बैठे थे बिल्कुल अजनबियों की तरह सबकी सुनते  सुझाव देते मुसकाते लेकिन एक दूसरे को  नजर भर कर ना देखते, जैसे कोई करार टूट जाएगा। मिंटीग खत्म हुई सभी पुनः मिलने के वादे पर अलग हो रहे थे। जब धरा आकाश आमने सामने आए तो केवल अभिवादन छोड कर कुछ नहीं किया जैसे टाल रहे हो एक दूसरे को नया प्रण करने से कोई करार करने से। तभी धरा के हाथ से पर्स गिर जाती हैं उसने झुक कर पहले आकाश के चरणों को स्पर्श  किया फिर पर्स उठाया आकाश स्पर्श  पहचानता है मन से अनेकों आशीर्वाद देता रहा और खुद अनभिज्ञ  होने का अभिनय भी खूब करता रहा।धरा ने भी आकाश का साथ दिया और सभी से विदाई लेती हुई आगे बढ़ी ट्रेन का समय हो रहा था। टैक्सी ले लिए हाल  के बाहर खड़ी थी रात हो चली थी आकाश भीतर से देख रहा था सभी व्यस्त है कोई छोड सकता है ना स्टेशन तक ।कुछ ना बोला किसी से बाहर आकर कार निकाली और  धरा को बैठने का इशारा किया। धरा भी बैठ गई आज तक कोई बात नहीं टाली फिर यह तो चंद मिनट का ही साथ था वह भी छोडने जा रहा था आकाश उसे और क्या चाहिए । कुछ देर में स्टेशन आ गया, आकाश केवल इतना ही बोला अंदर चलूं ....?

ना ,मैं चली जाऊंगी आप बेफिक्र रहिए।

वहीं तो, बेफिक्र ही तो नहीं रह सकता, तुमसे आज तक कुछ भी श्रेष्ठ नहीं हो पाया, आज का अभिनय भी नहीं। अपना ख्याल रखना, मेरे लिए ..... प्लीज़ मेरा  आर्डर   ही समझों । 

धरा हल्की सी मुस्कान के साथ हां में स्वीकृति देती हैं और चल देती हैं।आकाश बहुत देर तक पार्किंग में ही बैठा रहता है, फिर  बुदबुदाहट भरे स्वर में खुद से बातें करता है  धरा मैं केवल कह देता हूँ तुम सुन लेती हो मान लेती हो मेरी सरल धरा! तुमसे कहता हूँ अभिनय ठीक से करो लेकिन मैं भी तो नहीं कर पाता  हूँ।

अब रात गहराती जा रही थी यादों के दीप जल उठे थे दूर जंगल जूगनुओं से झिलमिला रहा था, इधर आकाश में सितारें जगमगा रहे थे। दूर तक प्रकृति में संतुष्टि थी आपके मिलन की भी और विछोह की भी। अभिनय खूब रहा दोनों का निपुण तो नहीं थे दोनों पर संतोष चेहरे पर साफ दिखाई दे रहा था।


सौ सुमन गोपाल दुबे 

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