विमलसूरि और उनकी रामकथा

 


डाo नीलम जैन 


विमलसूरि प्राकृत के यशस्वी महाकवि के रूप में प्रतिष्ठित है। उन्होंने रामकथा को साहित्यिक रूप-स्वरूप प्रदान कर एक सशक्त परम्परा प्रारम्भ की थी। महाराष्ट्री प्राकृत में रामकथा निबद्ध करने वाले विमलसूरि भारतीय वाङ्मय के निष्णात बहुश्रुत प्रथम कवि है। वैदिक परम्परा में संस्कृत साहित्य में जो प्रतिष्ठित अग्रणी स्थान आदि कवि बाल्मीकि का है वहीं गौरवपूर्ण स्थान प्राकृत साहित्य में विमलसूरि का है। अपनी अमृतमयी एवं सरस प्राकृत भाषा से विमलसूरि ने अनुपम, विमल एवं अक्षुण्ण कीर्ति प्राप्त की है। भारतीय मनीषी अपनी रचनाओं को प्रसिद्धि, मान, सम्मान का माध्यम न बनाकर लोकमंगल, चारित्रिक उत्कर्ष व मनुष्य जन्म सार्थकता आदि से जन मानस में प्रेरणा का स्रोत बनाते थे। अपने निजी जीवन का अल्प से अल्पतम परिचय भी वे अपनी कृतियों में नहीं देते थे। इसीलिए विमलसूरि का जीवन परिचय भी अपरिचय के अन्धकार में है।

विमलसूरि के जीवनवृत्त के स्रोत यद्यपि अनुपलब्ध है। पूर्ववर्ती परवर्ती किसी साहित्यिकृतियों, अभिलेखों, शिलालेखों अथवा पट्टावलियों आदि में भी इनका परिचय अप्राप्त है। विमलसूरि ने रामकथा जिसका नाम उन्होंने पउमचरियं रखा है में अपना उल्लेख गुरु-परम्परा के साथ किया है-

राहुनामायरिओ ससमयपरसमयगहियसव्मावो ।

विजओ य तस्स सीसो, नाइलकुल वंस नंदियरो ।।

सीसेण तस्स रइयं राहवचरियं तु सूरिविमलेणं ।

सोऊणंपुव्वगए,नारायण-सीरिचरियाई ।।'

(स्वसिद्धान्त और परभाव सिद्धान्त के भाव को ग्रहण करने वाले राहु नाम के एक आचार्य हुए उनके नागिल वंश के लिए मंगलकारी विजय नामक शिष्य थे। उनके शिष्य विमलसूरि ने पूर्वग्रन्थों में आए हुए नारायण और हलधर के चरितों को सुनकर यह राघवचरित रचा है।)

अंतरसाक्ष्य से स्पष्ट है कि वे नाइल कुल वंश विभूषण विजय के शिष्य थे तथा राहु के प्रशिष्य थे, उन्होंने जैनेतर दर्शन और साहित्य का भी गहन अध्ययन किया था। विमलसूरि का नाम प्रत्येक उद्देश (पर्व अथवा सर्ग) के अन्त में मात्र 'विमल' रूप में भी मिलता है। ग्रन्थ की अन्तिम पुष्पिका में उन्होंने स्वयं को विमलार्य या विमलाचार्य (विमलायरिएण) लिखा है तथा इसके पूर्व पद में विमलसूरि (सूरि विमलेण) कहा है। अतः पउमचरियं के रचनाकार विमलसूरि है, यह स्पष्ट है साथ ही यह भी सिद्ध होता है कि विमलसूरि पहले कवि है जिन्होंने नारायण व हलधर के चरित को सुनकर पउमचरियं की रचना की।

 पउमचरियं का रचनाकाल 

पंचेव च वाससया दुसमाए तीसवरिससजुत्ता । 

वीरे सिद्धभुवगए, तओ निबद्धं इमं चरियं ।।


(इस दुःषमकाल में महावीर के मोक्ष जाने के बाद पाँच सौ तीस वर्ष (अर्थात् ई. पूर्व 467) व्यतीत होने पर यह चरित लिखा है।)

 परवर्ती राम कथा में उल्लेख 

-पद्मचरित संस्कृत भाषा में जैन रामकथा पर लिखित सर्वाधिक प्राचीन महाकाव्य है। इसके रचयिता रविषेण ने अपनी रचना विक्रम सं. 734 में पूर्व की। यह महाकाव्य पउमचरियं के कथानक पर ही आधृत है। पं. नाथूराम प्रेमी ने इसे पउमचरियं की छाया कहा है। आचार्य रविषेण ने तो इसका लेखनकाल स्वयं दिया है-

द्विश्ताभ्यधिके समासहस्त्रे समतीतेऽर्घ चतुर्थ वर्षयुक्ते । जिनभास्करवर्द्धमानसिद्धे, चरितं पदामुनेरिदं निबद्धं ।।


(जिन सूर्य के वर्द्धमान जिनेन्द्र के मोक्ष जाने के पश्चात् एक हजार तीन सौतीन वर्ष छह मास बीत जाने पर यह पद्ममुनि का चरित लिखा गया।)


 कवि स्वयंभू अपनी अपभ्रंश रामकथा (पउमचरिउ) में आचार्य रविषेण व पूर्ववर्ती आचार्य को श्रद्धा अर्पित करते हैं। उनका पउमचरिउ 8वीं शती का माना गया है। उन्होंने लिखा है-


पुणु रविसेणायरिय-पसाएं। बुद्धिएँ अवगाहिय कइराएं।।*


प्राकृत भाषा की प्रसिद्ध कृति 'कुवलयमाला" (788 ई.) में उद्योतनसूरि ने विमलसूरि को प्राचीन कवि के रूप में श्रद्धा सहित विनयांजलि अर्पित की है-


जारिसयं विमलंको विमलं को तारिसं लइह अत्थं । अमय-मइयं च सरसं सरसं चि य पाइअं जस्स ।।


(विमलसूरि कवि के द्वारा रचित विमल कार्यों को प्रकट करने वाला अमृतमय रसयुक्त जो पउमचरियं प्राकृत काव्य है, उस काव्य के अर्थ को अब कौन-सा कवि प्राप्त कर सकता है।)

इस प्रकार आचार्यों ने विमलसूरि की कृति की महत्ता का वर्णन किया। पउमचरियं के प्रकाश में आने के पश्चात् विद्वानों ने सांस्कृतिक, धार्मिक ऐतिहासिक, साहित्यिक दृष्टि से गहन अध्ययन किया,।

अनेक विद्वानों ने भी पउमचरियं के काल निर्धारण के प्रमाण हेतु अपने-अपने तर्क दिये। जिन विद्वानों ने पउमचरियं का अध्ययन किया, उन्होंने अपने-अपने निष्कर्ष प्रस्तुत किये। जर्मन विद्वान डॉ. हर्मन जैकोवी सर्वप्रथम इस कृति का सुसम्पादन कर प्रकाश में लाये। उन्होंने इसे भाषा के आधार पर तीसरी चौथी शती की रचना माना है।रामकथा सम्बन्धी अनेक विश्वविद्यालयों में संलग्न शोधकर्ताओं ने भी अपने शोध ग्रन्थ में पउमचरियं का उल्लेख कर प्राकृत भाषा का प्राचीनतम काव्य तो सिद्ध किया ही है साथ ही अपने तिथि निर्धारण सम्बन्धी अभिमत भी दिये है-।


परवर्ती आचार्यों के ग्रन्थों में पउमचरियं एवं विमलसूरि के नाम में श्रद्धा सहित स्मरण से एवं कवि द्वारा रचना तिथि का उल्लेख करने से निर्विवाद सिद्ध है कि विमलसूरि कृत पउमचरियं प्रथम शती से तीसरी-चौथी शती के मध्य की ही रचना है।


विमलसूरि की अन्य रचनाओं में हरिवंश का उल्लेख उद्योतन सूरि ने कुवलयमाला में किया है लेकिन वर्तमान में यह अनुपलब्ध है।


वुहयण-सहस्स-दइयं हरिवंसुप्पत्ति-कारयं-पढयं । वदामि वंदियं पिहु हरिवरिसं चेय (हरिवंस चेव)।।'


पउमचरियं की वर्तमान में प्राप्य प्राचीन प्रति ताड़पत्रीय है वि. सं. 1198 (सन् 1141 ई.) में राजा जयसिंह के राज्यकाल में भडौंचनगर में यह लिखी गयी। सन् 1914 में प्रख्यात जर्मन विद्वान भारतीय-साहित्य के तलस्पर्शी अध्येता डा. हर्मन जैकोबी ने इसका सशक्त कुशल सम्पादन कर चर्चित एवं लोकप्रिय बनाया।


पउमचरियं में 118 उद्देश (समुद्देश्य या पर्व) है। कवि ने इसे 7 सगर्गों में विभाजित किया है। उद्देशों में पद्यों की संख्या में समानता नहीं है। नौंवे अध्याय में 90 पद्य है, आठवें में 286 पद्य है। वर्तमान में उपलब्ध संस्करण में 8651 पद्य है। विद्वानों के अभिमत में इसमें 9000 पद्य से अधिक थे। पं. नाथूलाल प्रेमी जी इसमें 10,000 पद्य मानते हैं। पउमचरियं महाराष्ट्री प्राकृत भाषा में लिखित प्राचीनतम पौराणिक माहाकाव्य है। इसमें भारतीय संस्कृति एवं राष्ट्रीय एकता का सजीव व गत्यात्मक चित्रण हुआ है 

विमलसूरि ने उस सभी प्रसंगों को नवीन मौलिक एवं परम्परा से प्राप्त नामावली से ही निबद्ध किया है।  

विमलसूरि सन्त है उनकी रचनाधर्मिता के आलेक में पउमचरियं सत्यं, शिव सुन्दरम् से अभिमण्डित है। इसमें लोकमंगल का बीजांकुरण है, मानवता का नवीन प्रकाश है। आगम एवं अन्य लौकिक, ज्ञानवर्द्धक शास्त्रों के गम्भीर अध्ययन व उनकी सूक्ष्म व दूरदृष्टि साहित्य का परिचायक है-

विमलसूरि लिखते है,,,

(हलधर राम के इस चरित्र को जो शुद्ध भाव से सुनता है वह सम्यकत्व और अत्युत्कृष्ट बुद्धि, बल एवं आयु प्राप्त कराता है। इसके सुनने से शस्त्र उठाये हुए शत्रु और उनका उपसर्ग शीघ्र ही उपशान्त हो जाता है और यश के साथ ही वह पुण्य अर्जित करता है। इसमें सन्देह नहीं, इसके सुनने से राज्यरहित व्यक्ति राज्य और धनार्थी विपुल एवं उत्तम धन प्राप्त करता है। व्याधि तत्क्षण शान्त हो जाती है और रोग सौम्य हो जाते हैं। स्त्री की इच्छा करने वाले उत्तम स्त्री और पुत्रार्थी कुल को आनन्द देने वाला पुत्र प्राप्त करते हैं और परदेश गमन में भाई का समागम होता है।)

विमलसूरि ने कालजयी कृति के कृतिकार का दायित्व निर्वहण करते हुए साहित्य की सामाजिक व सांस्कृतिक आध्यात्मिक, दार्शनिक एवं धार्मिक उपयोगिता सिद्ध करने का पूर्व प्रयास किया है जिसमें वे पूर्णतया सफल रहे यही कारण है सहस्त्रों वर्ष पश्चात् भी पउमचरियं की प्रतिष्ठा गौरव-शिखर पर प्रतिष्ठित है।

 

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