पूज्य संत विद्यासागर जी महाराज का समाधिस्थ होना देश के एक ऐसे महामुनि का प्रयाण करना है, जिन्होंने अपने त्याग और सदाचरण से असंख्य धर्मप्रेमियों को सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी। एक उत्कृष्ट साहित्यविद के रूप में मूक माटी उनका प्रेरक आध्यात्मिक महाकाव्य है, जिसमें ज्ञान के गूढ़ रहस्य उकेरे गए हैं। वे 488 पृष्ठों के इस दीर्घकाय महाकाव्य में लिखते हैं कि जिस प्रकार माटी मूक रहकर महान बनती है, ठीक उसी प्रकार मूक रहकर मनुष्य भी महानता की श्रेणी में आ सकता है। उनकी इस अप्रतिम कृति की अकादमिक लोकप्रियता इस तथ्य से समझी जा सकती है कि इस ग्रंथ पर विगत 35 वर्षों में चार डी-लिट, 30 पी-एचडी., 08 एम. फिल. तथा 02 एम. एड. और 06 स्नातकोत्तर लघु शोध प्रबन्ध लिखे जा चुके हैं। पूज्य संत श्री 108 विद्यासागर जी महाराज मूक माटी में लिखते हैं~
जो मोह से मुक्त हो जीते हैं
राग-रोष से रीते हैं
जनम-मरण-जरा-जीर्णता
जिन्हें छू नहीं सकते अब...
सप्त भयों से मुक्त, अभय-निधान, निद्रा-तन्द्रा जिन्हें घेरती नहीं ....
शोक से शून्य, सदा अशोक हैं।...
जिनके पास संग है न संघ,
जो एकाकी है....
सदा-सर्वथा निश्चिन्त हैं,
अष्टादश दोषों से दूर। (पृष्ठ 326-327)
वे कहते हैं कि राही बनना ही तो हीरा बनना है और इसीलिए वे आजन्म संत पथ के राही बने और मेरे जैसे असंख्य लोगों के जीवन को प्रभावित किया। पूज्य गुरुवर के समाधिस्थ होने पर उन्हें विनम्रतापूर्वक कृतज्ञ स्मरण।
पुनीत बिसारिया