"महर्षि रमण "के आश्रम के पास गांव में एक व्यक्ति रहता था ! वह रोज-रोज के गृह-क्लेश से परेशान था ।एक दिन उसने परेशान होकर "आत्महत्या "करने का विचार बनाया ताकि रोज-रोज के कलह से छुटकारा मिल सके , परंतु आत्महत्या करना इतना आसान व सरल नहीं था ।घर की सभी जिम्मेदारियां भी उसी के कंधे पर थी ।वह व्यक्ति परेशानी की हालत में" महर्षि रमण" के आश्रम में पहुंचा और अपनी सारी "मन की व्यथा " को बता कर आत्महत्या करने के उपाय पर उनके विचार जानने चाहे ।
महर्षि उस वक्त पत्तल बनाने में व्यस्त थे। उस व्यक्ति की बात सुनते और पत्तले बनाते रहे ।
उस व्यक्ति को उनकी तल्लीनता देख कर आश्चर्य हो रहा था ,कि उसे "सब्र "न हुआ तो महर्षि से पूछा - "स्वामी जी आप इन पत्तलो को बनाने में इतनी मेहनत क्यों कर रहे हैं? जबकि आप जानते हैं ,कि बस एक बार के भोजन के बाद यह कूड़े -कचरे में फेंक दी जाएगी !
महर्षि ने मुस्कुरा कर कहा--" तुम ठीक कहते हो, परंतु किसी वस्तु का पूरा उपयोग हो जाने के बाद उसे फेंकना बूरा नहीं है, बुरा तो कहा जाएगा जब उसका उपयोग किए बिना ही अच्छी अवस्था में उस वस्तु को कूड़े -कचरे में फेंक दिया जाए! तुम तो शिक्षित भी हो और अनुभवी भी मेरे कहने का आशय समझ गए होंगे ?
महर्षि की बात सुनकर उस व्यक्ति ने केवल जीने का उत्साह आया बल्कि "आत्महत्या "का विचार भी त्याग दिया !
"हमें भी ईश्वर ने जो "मानव जीवन "की सौगात दी है! हम उसका पूर्ण व श्रेष्ठ उपयोग स्वयं व परहित के लिए करें। "
धन्यवाद
श्रीमती राजकुमारी वी. अग्रवाल शुजालपुर मंडी मध्य प्रदेश
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