कश्मीर की पराद्वैत शैवदर्शन परम्परा : एक दृष्टि
प्रोफेसर डॉ सरोज गुप्ता, सागर (म प्र)
भारतीय दार्शनिक परम्परा में षट्दर्शन प्रमुख हैं-न्याय,सांख्य,योग वैशैषिक,पूर्व मीमांसा, उत्तर मीमांसा जिसे वेदांत कहते हैं।ये सभी दर्शन वैदिक मान्यता पर विश्वास करते हैं। बौद्ध, जैन, चार्वाक, वैष्णव तथा कुछ आगमिक दर्शन वेद का विरोध करते हैं। कश्मीर शैव दर्शन एक मात्र ऐसा दर्शन है जो वैदिक परम्परा का पोषण करता हुआ अपना स्वतंत्र आगमिक स्वरुप रखता है।
शैव दर्शन से स्पष्ट है कि इसमें परमेश्वर शिव सृष्टि के आदि कर्ता हैं। संसार का सृजन, पालन, संहार , निग्रह और अनुग्रह शिव ही करते हैं। अपने स्वरूप में वह परा , पश्यन्ती , मध्यमा और बैखरी इन वाक् शक्तियों - चित्शक्ति और आनन्दशक्ति को अपने में समाहित किए हैं। वाक् शक्तियों से शास्त्रों को प्रकट करने के लिए शिव की पांच शक्तियों से शिव के पांच मुखों- ईशान, तत्पुरुष, सद्योजात, वामदेव और अघोर का प्रादुर्भाव हुआ। 'शैवी मुखमिहोच्यते' परमेश्वर के पांच मुखों से बैखरी वाक् शक्ति प्रसारित होकर सभी तंत्रों-द्वैत, द्वैताद्वैत और अद्वैत इन तीन विभागों में प्रकट हुए। इन्हें शैवतंत्र, रुद्रतंत्र, भैरवतंत्र, अद्वैततंत्र, सिद्धातंत्र, नारसिंहकतंत्र, पिंगलाद्यतंत्र आदि नामों से जाना जाता है। कुछ में ज्ञान की प्रधानता है कुछ में क्रिया की प्रधानता है।इन सबका सार त्रिकशास्त्र या मालिनी सिद्धांत है।
पूर्वकाल में शास्त्रों का ज्ञान ऋषियों आचार्यों के मुख में ही शिव शास्त्रों का रहस्य ठहरा रहता था । अपने ज्ञान का संक्रमण करने में ऋषिगण पूर्ण समर्थ होते थे परन्तु कलियुग के प्रभाव से ऋषि मुनि अति दुर्गम स्थलों में चले गये। शिवशास्त्रों का ह्रास हुआ, गुरु शिष्य परम्परा विनष्ट होने की कगार पर पहुंच गयी।
कलियुग के प्रारंभ में इस लुप्तप्राय विद्या या शास्त्रों की पुनर्प्रतिष्ठा के लिए बुन्देलखण्ड के ऋषि दुर्वासा जी जो मंदाकिनी के तट पर चित्रकूट में साधना लीन थे। उनको श्रीकण्ठनाथ शिव ने आज्ञा दी कि तुम अपने योगबल से शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त करो। ऐसे बुन्देलखण्ड के महर्षि वन्दनीय ऋषि दुर्वासा को मैं प्रणाम करती हूं---
"शिवाप्ति कारणम्,ताप वारणम्,लालितम् हृदि।
द्वयं गुरोश् चरणरद्वयं,स्फुरतां मम्।१
वन्देऽत्रिनन्दनम्,विश्ववन्दितं करुणार्अर्णवम्।
कोप भट्टारकम् , पूर्ण योग दीक्षा प्रदम् गुरुं।2-
महर्षि अत्रि अनुसुइया के पुत्र ऋषि दुर्वासा ने अपने तपोबल से तीन मानसिक पुत्रों को उत्पन्न किया। त्र्यंबकनाथ,आमर्दकनाथ और श्रीनाथजी, जिन्होंने अद्वैत,द्वैत और द्वैताद्वैत शिवशास्त्रों का शुभारंभ किया।
इसप्रकार भारत की सुदीर्घ ज्ञान परंपरा में कश्मीर पराद्वैतशैव दर्शन, समस्त दर्शनों के नंदनवन का कल्पवृक्ष है।दिव्य भारतीय शिवभक्तों की साधना फल है ।साधना प्राप्ति की यह यात्रा वैदिक काल से लेकर कश्मीर शैव दर्शन तक हमें सर्वत्र दिखाई देती है।
कश्मीर पुण्य धरा है। यहां के स्थान स्थान पर ऋषि मुनिजन साधनारत रहते थे।महामहेश्वर अभिनव गुप्त जी कहते हैं-"स्थाने स्थाने मुनि: अखिलै चक्रिरे,यन्निवासा ---कश्मीरेभ्य: परमथपुरं पूर्ण वृत्तेन तुष्टै"। अर्थात कश्मीर में साक्षात् शिव स्वयं अधिष्ठित थे।सारी वांछित सिद्धियों को प्राप्त करने के लिए कश्मीर से उपयुक्त स्थान और कहीं नहीं था।शरद के चंद्र जैसी शुभ्र शारदा इस देश के लोगों में घर घर में बसी हुई हैं। वितस्ता नदी के किनारे प्रतिष्ठित महेश्वर के सिद्ध मंदिर में पूजाणं अर्चना करने एवं इस नदी में डुबकी लगाने से सारे पाप ताप कट जाते हैं। कश्मीर वह कल्पलता है जो भारत को तो विभूषित करती ही है साथ ही भोग और मोक्ष भी प्रदान करने वाली है। भारत में कश्मीर, उज्जयिनी और कांची विद्या, कला और संस्कृति के प्रमुख केंद्र रहे हैं। (उत्तर में कश्मीर,मध्यदेश में उज्जयिनी और दक्षिण में कांची )आचार्य शंकराचार्य ने कश्मीर में शारदा पीठ की स्थापना की जिससे इस क्षेत्र को शारदादेश भी कहा जाता है।ईसा की पहली शती से लेकर दशमी शताब्दी तक भारतीय मेधा चरमोत्कर्ष पर रही। शैवागमों , साहित्य शास्त्रों को वेद के समान परम पवित्र माना जाता रहा।शैवाद्वैत दर्शन के प्रतिष्ठापक त्र्यंबक आचार्य यहीं पर रहे।इनकी शिष्य परम्परा में दसवें आचार्य सोमानन्द हुए।सोमानन्द के शिष्य उत्पलदेव ,उत्पलदेव के शिष्य लक्ष्मण गुप्त और लक्ष्मण गुप्त के शिष्य समस्त शास्त्र परम्परा में पारंगत सूर्य के समान देदीप्यमान महामहेश्वर अभिनव गुप्त हुए। इसी प्रकार स्पंदशाखा के आद्य प्रवर्तक वसुगुप्त हुए जिन्होंने महादेव पर्वत की तलाई में तपस्या की तत्पश्चात् भगवान शंकर जी द्वारा स्वप्न में दिए आदेश से उन्हें शिवसूत्र प्राप्त हुए। संगमादित्य, वसुगुप्त,आचार्य क्षेमराज, ललितादित्य, कल्लटाचार्य,भट्टकल्लट आदि आचार्यों की सुदीर्घ परम्परा है।
सातवीं शताब्दी के आसपास भारत में व्यापारियों आक्रमणकारियों की घुसपैठ प्रारंभ हो चुकी थी। इस्लाम का प्रवेश हो चुका था। ऐसे समय में भी कश्मीर शैव दर्शन पुष्पित पल्लवित होता रहा।
कश्मीर शैव दर्शन एक मात्र ऐसा दर्शन है जो वैदिक परम्परा का पोषण करता हुआ अपना अलग अस्तित्व रखता है।
कश्मीर शैव दर्शन प्रमातृ दर्शन है।यह शाम्भव आदि योगाभ्यासों के द्वारा स्वयं साधक को प्रत्यक्ष रूप में परमेश्वर का दर्शन कराता है ।
कश्मीर शैव दर्शन प्रत्यक्ष अनुभूतिपरक है ,तर्क की केवल इतनी ही उपयोगिता है कि वह अनुभूति के मार्ग में आने वाली शंकाओं को दूर करने और बोध को दृढ़ करने में सहायता करता है।
कश्मीर शैव दर्शन जो वास्तव में स्वयं अपनी ही महिमा से प्रकाशित है । प्रत्यक्ष रूप से जो साक्षात्कार किया गया है उसी वस्तु का वर्णन इसमें किया जाता है। इस दर्शन में साक्षात् देखे हुए वस्तु तत्व का प्रधान रूप से प्रतिपादन किया जाता है।
कश्मीर शैव दर्शन का यह मत है कि यह संपूर्ण जगत एक तत्व है। यह तत्व परमेश्वर का स्वभाव रूप परिछिन्न संवित् तत्व है। यही संबित तत्व परमेश्वर के स्वतंत्र स्वभाव से ,अपनी महिमा द्वारा अपनी इच्छा से ,अपनी विलास लीला से, द्वैत अद्वैत रूप से, शुद्ध अशुद्ध रूप से, बंध मोक्ष रूप से, वैसे ही अपने को दिखाता है जैसे एक नट अपने विविध रूपों को नाना प्रकार के करतब करते हुए दिखाता है ।
कश्मीर शैव दर्शन में पराद्वैत रूप परतत्व चिदैकघन है, यह चित् अपरिमित है, स्वतंत्र है,सर्वथा शुद्ध संवित् है। स्वयं अपने प्रकाश से प्रकाशमान शुद्ध चित् प्रकाश रूप है ।यह चित् प्रकाश अपने स्वभाव से विमर्शात्मक है। प्रकाश का नैसर्गिक स्वभाव विमर्श है, प्रतीति है। प्रकाश आभास है और विमर्श इसकी प्रतीति है। दोनों एक हैं इस मूलभूत शुद्ध संवित तत्व की प्रकाशरुपता उसकी ज्ञानात्मकता है और विमर्शरुपता क्रियात्मकता है। वस्तुतः ज्ञान सर्वदा क्रियात्मक ही हुआ करता है परतत्व की ज्ञानात्मिका प्रकाशरुपता शिवता है और विमर्शात्मिका क्रियारूपता उसी परतत्व की शक्तियां है ।यह परतत्व शिवशक्त्त्यैक घन है। तात्पर्य है कि जो तत्व अपने अंतर्मुखी रूप में शिव रूप है वही अपने बाह्य प्रकाशोन्मुख अवस्था में शक्ति रूप होता है । अर्थात इन दोनों से परे वही तत्व है जो अपने स्वरूप में शिव शक्ति रूप है। शिव शिवशक्त्त्यैक घन है इनका नैसर्गिक गुण आनंद है जिसे चिदानंदमय कहते हैं। प्रकाश का स्वभाव विमर्श है और विमर्श प्रवणता आनंदमयता है।
जगतगुरु के रुप में प्रतिष्ठित भारत की ज्ञान परम्परा आज भी अक्षुण्ण है। सहस्त्राब्दियां बीत जाती हैं परन्तु भारतीय मेधा , ज्ञान विज्ञान का परम प्रकर्ष ,कालजयी रचनाओं की अनुगूंज, ज्ञान की चिंगारियां हमारे हृदयों में आज भी पुनीत भावना जागृत रखतीं हैं। कश्मीर शैव दर्शन मानवता और मानव जाति की शांति के लिए प्रेरणास्पद है।
कश्मीर शैव दर्शन कुल,क्रम और त्रिक् की सभी पद्धतियों के साथ ज्ञान -विज्ञान भेद, अनुपात प्रक्रिया, शाम्भोपाय,शाक्तोपाय,आणवोपाय,वर्णयोग,
कालाध्वा आदि विषयों का विस्तार से विवेचन करता है।मालिनीविजय तंत्र इस दर्शन का उपजीव्य ग्रंथ है। त्रिक् शैव दर्शन हमारे मानस तंतुओं को झकझोर कर दिव्यता प्रदान करते हैं।धर्म,जाति,वर्ग बंधनों से मुक्त यह दर्शन प्रत्येक भारतीय के लिए स्पृहणीय है।
प्रोफेसर सरोज गुप्ता
अध्यक्ष हिन्दी विभाग पं दीनदयाल उपाध्याय शासकीय कला एवं वाणिज्य महाविद्यालय सागर म प्र पिनकोड ४७०००१
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