यमुना की विलीनता: प्रेम की पराकाष्ठा

 यमुना की विलीनता: प्रेम की पराकाष्ठा 


हां! यही प्रेम है ....... यमुना की विलीनता..

गंगा की गाथाओं में यमुना की कथा खो सी गयी , उसकी त्याग तपस्या में यमुना की व्यथा खो सी गयी ।
गंगा की महानता और विशालता में यमुना की प्रेम कहानी गुम हुई ।
 सबके विष का पान करके , सबके प्रेम की पीड़ा को लेकर के उज्ज्वला से श्यामवर्ण  होकर , श्याम के प्रेम में डूबकर , श्याम के प्रेम को देखकर ,खोकर ,आत्मसात कर श्याम की हो गयी । श्याम उसके तट पर कन्हैया हो जाता है। प्रेम करता है, रास रचाता है, प्रेम को उसकी पराकाष्ठा तक ले जाता है और  इस प्रेम को देख वो श्याम मय होती है, उसकी हो जाती है, उसके रंग में रंग जाती है। जैसे जैसे रास बढ़ता है वो उतनी ही प्रेम मय होती जाती है। प्रेम से प्रेम उपजता है ईर्ष्या नहीं, यही है प्रेम की पराकाष्ठा।
      वो शिव की पीड़ा हरती है ( सती के अग्नि प्रवेश के बाद विरही शिव को विष्णु ने यमुना में स्नान करने की सलाह दी और तत्पश्चात् वो शांत हुए), वो राधा के प्रेम की साक्षी बनती है और विरह की सहभागिनी बनती है ।
  कृष्ण जन्म की साक्षी है, वसुदेव के यमुना पार करते समय कृष्ण के चरण स्पर्श को सब सीमायें तोड़ देना चाहती है, जब प्रेम सीमायें तोड़ता है तो प्रेमी को स्वयं चरण देने पड़ते हैं स्पर्श को, वाह - क्या प्रेम है ! वो प्रेम ही क्या जो सीमायें न तोड़ दे, वो प्रेम ही क्या जो प्रेम की असीमता को स्वीकार न कर ले ,जो ईश्वर को भी विवश न कर दे ! 
   खुसरो बाज़ी प्रेम की 
  खेलूँ पी के संग 
जीत गयी तो पिया मिले 
हारूँ पी के संग 
                       फिर भी शांत चुपचाप प्रेममयी बहती रही,  प्रेम की पीड़ा सहती रही, बहती रही .......

      विश्व प्रसिद्ध ताजमहल भी सारे विश्व में प्रेम प्रतीक के रूप में विख्यात हो गया शायद यमुना के किनारे निर्मित हुआ और यमुना में व्याप्त प्रेम की धार उसकी सहायक हो गयी और वो मोहब्बत की निशानी बन गया । यमुना के जल में समाया हुआ राधा कृष्ण का प्रेम ही था जिसने अपने किनारे निर्मित ताजमहल को अपना प्रेम तत्त्व प्रदान कर दिया। पूर्णिमा की रात जो प्रेम रस यमुना के जल में घुला उसने हो तो चांदनी रातों में ताजमहल को प्रेम की कान्ति से चमका दिया। 
प्रेम के जल से भरी पूरी यमुना आगे बढ़ी। बढ़ते बढ़ते गंगा के निकट आने लगी। वो गंगा जो उसके कृष्ण हरि  के चरण कमलों का स्पर्श कर उपजी थी। वो यमुना जो हरि के जन्म को जानकर उनके चरण स्पर्श को व्यग्रता के साथ उमड़ पड़ी। वही यमुना जब गंगा के निकट पहुंची तो विष्णुपाद से उत्पन्न गंगा की ओर भी उसे व्यग्रता से उमड़ी। भूल गई सबकुछ। बस उसे दिख रहे थे अपने हरि के चरण स्पर्श का स्पंदन जो गंगा की लहरों में लहरा था। भूल गई अपनी पहचान को, भूल गई अपने अस्तित्व को और समा गई जाकर अपने छूटे हुए प्रेमी के चरणों से उपजी गंगा के अस्तित्व में। ज्यों समा गई हो अपने चाहने वाले की बांहों में। ज्यों खो गई हो अपने स्वामी के अस्तित्व में। 
 संगम में प्रेम की पूर्णता की परिणति होती है जब वो स्वयं को खो देती है भूल जाती है अपनी पहचान भी संगम में विलीन होकर। आगे बहती है सिर्फ़ गंगा , गंगा और गंगा!
                       और गंगा की धारा में यमुना की धारा लुप्त हो जाती है ! आह ! गंगा तुम्हारी महानता में सरस्वती को अदृश्य होना पड़ा और यमुना को विलीन !
श्याम की प्रिया, प्रेम  साक्षिणी, विष्णु की गंगा को अपना सर्वस्व दान कर चल देती शिव की नगरी काशी की ओर कभी जिसका संताप हरा था।


       #विनीता मिश्रा
          लखनऊ 

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