अनिता रश्मि
टूटे-फूटे, कटे-छिजे मास्टर साहब अंतिम साँसें गिन रहे हैं। जीवन के कई रंग देखते, सहते, झेलते पतझड़ आ गया। वे सोचते थे, 'जीवन नीरस है। दुखों से भरा है। संघर्षों से तोड़नेवाला है। मनुष्य पर आस्था-विश्वास कम करनेवाला है।'
टूटन की तमाम बातों ने उन्हें घेर लिया था।
एकाएक एक आदमी कमरे में आकर उनके पैर छूने लगा। "सर, पहचाना? मैं आपका स्टूडेंट श्यामू। आपने मुझे मुफ्त में पढ़ाया था।"
थोड़ी पहचान उभरी।
"आजकल मैं कलेक्टर बन यहीं अपनी सेवाएँ दे रहा हूँ। आपने इतनी अच्छी शिक्षा और संस्कार दिए। नहीं तो मैं अभी जूत्ते ही सिलता रहता।"
वह पुनः पैर छूने लगा। उनकी अधमुंँदी आँखों में भोर का उजास भर गया। वे आँखें खोल, टकटकी बाँध नए सूर्य की चमकदार रश्मियों को देखते रहे। फिर से जीवन, संस्कार, नैतिकता पर आस्था जमने लगी।
साश्चर्य बुदबुदाहट,
"सबसे ईमानदार कलेक्टर मेरा शिष्य!"
और उनकी कब की बेचैन, तकलीफ़ से तड़पती, हताश वृद्ध आँखों में विश्वास का बिरवा अंकुरित हो उठा।
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