क्यो चुप्पी साधे हो आषाढ़ी बादल
उमसती गर्मी से तन - मन बेचैन है
रोज कहते हो कल आऊँगा
बरखा रानी को संग लाऊँगा
आते हो पर चुपचाप ही चले जाते हो
बिना बरसे बरखा को भी संग ले जाते हो
ऐसी क्या नाराज़गी दिल में लिये हो
क्या तुम भी हमसे मुँह फेरे हुए हो
देखो ना ताल तलैया सूखे है
वृक्ष और विटप भी सूख रहे हैं
किसान बीज बो चुके है खेत में
उनमें अंकुर निकलवाओ ना
बादल भैया आओ ना
इतना ना तरसाओना
क्या तुम्हे गिल्ली डंडा याद नहीं
और आँख मिचौली की फरियाद नहीं
अब आ भी जाओ ना नखरे दिखलाओ
उस दिन अरावली की पहाड़ियों को
तुमने अपने आलिंगन में लिया था
लेकिन फिर बिना बरसे ही चले गये
तुम जब डेरा डालते हो
दिल प्रसन्न हो जाता है
परंतु थोड़ी देर में ही छितरा जाते हो
तब बहुत बुरा लगता है
© शुभदा भार्गव
अजमेर ।
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