जीवन में दुख का टेंडर भरा है तो सुख कैसे मिलेगा
निर्मल जैन
वृक्ष किसी को अपनी छांव देने से मना नहीं करते, सूरज भी अपना प्रकाश फैलाने में कोई भेद-भाव नहीं करता है और न ही बादल के बरसने की उदारता में स्थान से कोई फर्क पड़ता है । ऋतु आने पर डाल कोई भी हो कोयल का स्वर वही रहता है । फिर बुद्धि-विवेक संपन्न हमारा मन ही ऐसा क्यों है जो अनुकूलता में प्रसन्नता की बंसी बजाता है किंतु गम के पलों में खुशी की सरगम बजाना भूल जाता है । दुख को बदलने या मिटाने की कोशिश करना एक असफल प्रयास है । लेकिन हर गम में भी सरगम के स्वर खोज लेना यह एक सुखद समाधान है । संसार का एक भी दुख ऐसा नहीं है जिसमें सुख न छुपा हो । वास्तव में यह सुख या दुख, मानसिक ही है । दुख-सुख हमारे भावों में बसते हैं। कोई करोड़ों की संपत्ति होने पर भी हाय-हाय करता रहता है और दूसरा अपने सीमित साधनों में भी संतुष्ट और सुखी रहता है । सुखी अनुभव करने के लिए महत्व धन- वैभव का नहीं, बल्कि हमारे विचारों का है। जो जहां है जैसा है अगर वहां सुखी नहीं है तो वह फिर कहीं भी सुखी नहीं हो सकता है, और जो जहां है जैसा है अगर वहां सुखी है तो वह कहीं भी दुख का अनुभव नहीं कर सकता । इसलिए दुख का लोह-चुंबक बनकर नहीं जीना, खुश रहने की आदत डालनी है । सब दिन यदि एक समान हों तो जीवन में निराशा का साम्राज्य छा जाए। सुख और दुख दोनों मिलकर ही जीवन को समरस बनाते हैं।
खुशी और गम एक दूसरे के समानांतर चलते हैं जब एक शांत होता है तो दूसरा भी शिथिल पड़ जाता है । अपने दुख की चारदीवारी में घुट-घुट कर गलने की बजाय औरों की खुशी में अपनी खुशी खोजने का जादू सीखना है । उदास और उखड़ा-उखड़ा व्यक्तित्व आसपास में उदासी का कोहरा भर देता है और खुशी का सूरज चाहते हुए भी मुस्कान की किरणें नहीं बिखेर सकता । हमारे मन की एक और विचित्रता है कि हम दुख के लिए जितना चिंतित और उत्सुक रहते हैं उतना सुख के लिए उत्कंठित नहीं । एक बार का अपमान मन को जिंदगी भर याद रहता है किंतु सौ बार जो सम्मान मिला उसे भुला देता है । मन का ‘मैग्नेट’ हमेशा दुख को आकर्षित करता है । क्या इसलिए कि हमें दुख में रस है । कभी अपने आप से एक प्रश्न करके देखें की रोशनी की मौजूदगी में जिस उत्साह से चले थे क्या उतने ही उल्लास से अंधेरी डगर पर चल पाएंगे ? हम सभी पर धर्म सत्ता व कर्म सत्ता का शासन चलता है । इसलिए जीवन में सुख और दुख दोनों मिलते ही रहते हैं । हमने जिस चीज का टेंडर भरा है वही तो हमारे लिए खुलेगा और मिलेगा । जिस सुख की तलाश में हम अथक रूप से भागे-फिरते हैं, उसे पा जाने के बाद भी शांति और सुख कहाँ ? एक नई चिंता शुरू हो जाती है कि वह सुख बना रहे, बचा रहे । फिर उसे बचाने और बनाए रखने में जो दुख उपजता है, वह बढ़ता ही जाता है। महत्व पूर्ण यह भी है कि दुख भी बड़े काम की चीज है । कई बार तो दुखों के ये झंझावात ही महानता और जीवन में विशेष उपलब्धियों का कारण बनते हैं । दुख हमें धर्म की, प्रभु की याद दिलाता है । धर्म की शरण में जाते ही सद्बुद्धि का दरवाजा खुलता है और आनंद की स्वर लहरी गुंजायमान होने लगती है ।
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