करगिल के बालिदानियों के परिवार को समर्पित


करगिल के जो थे बलिदानी,

उनकी भी थी प्रेम कहानी

उनके सीनों में भी दिल था 

चढ़ता यौवन, मस्त जवानी 

कुछ वे जिनका ब्याह हुआ था 

कुछ की केवल हुई सगाई 

कुछ की घर में बात चली थी 

कुछ बाँकों की आँख लड़ी थी 

कुछ ऐसे थे जिनके घर में 

पत्नी और छोटे बच्चे थे 

प्यार सभी के दिल में सच्चा

फूलों में सुगन्ध के जैसा 

प्रेम संजोए अपने दिल में 

वे सीमा पर खड़े हुए थे 

प्रत्युत्तर देने दुश्मन को 

चट्टानें वह खड़ी चढ़े थे 

रणचंडी की बलि वेदी पर 

चौरासी दिन यज्ञ हुआ था 

घृत आहुति से नहीं 

वीर के प्राणों से 

यह यज्ञ हुआ था 

जीता था भारत इस रण में 

विजय पताका लहरायी थी 

पर यह विजय सैनिकों के 

प्राणों के बदले में आयी थी 

कितने हुए हताहत कितनी 

ज़ख्मी होकर घर लौटे थे 

कितने बन्दी और गुमशुदा 

हम जिनको ना गिन सकते थे 

इन सबके जो तार जुड़े थे 

परिजन और परिवार जुड़े थे 

पुत्र, पिता, प्रेमी, पति, भाई 

विजय ज्योति पर भस्म हुए थे 

उनकी पत्नी बिलख रही थीं

बहिनों की थाली की राखी 

शून्य दिशा में धूर रही थीं 

पत्थर सी माँओं की आँखे 

आँसू के बिन सूख गयी थीं 

माथे के सिन्दूर मिटे थे 

कहीं चूड़ियाँ टूट रही थीं 

बिलख रहे थे बच्चे छोटे 

माँयें बेसुध पड़ी हुयी थीं 

सावन बरस रहा था झर-झर

सूने झूले वहाँ पड़े थे 

मेंहदी के रंगों से रीती 

प्रिया हथेली देख रही थी 

पड़ी हुई थीं राहें सूनी 

जहाँ अभी तक आँख बिछी थी 

और प्रतीक्षा की घड़ियों की 

हृदय-गती अवरुद्ध हुई थीं 

शोक मग्न आकाश हुआ था 

सावन भी रोता था जैसे

बादल के आँखों के आँसू

रुधिर धरा का धोते जैसे 

बीत गया वह युद्घ पुराना 

यादें क्षीण हुईं मानस से 

पर जिनके प्रियवर सोये थे 

आँखों के तारे खोये थे 

बसर दर बरस यह बरसातें 

उनके घाव हरे करती है 

झूला, मेंहदी, कजरी, राखी 

यादों से विह्वल करती हैं 

सावन आये या ना आये 

इनकी आँखे नम रहती हैं 

पतझड़, शीत, शरद, गर्मी में 

भी वर्षा होती रहती है… 

यह आँखे निशि-दिन रोती हैं 

#शैली


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