रब का निवास

 

जहाँ प्यार और श्रद्धा,

रब का वही निवास ।

स्वर्ग वही है भाईयों,

वही एक है  खास ।।

प्यार   और   श्रद्धा,

से    जीतें   विश्वास ।

ईमान इसी पर कायम,

टिकी  हुई  है आस ।। 

शख्स बना जहान में,

वासनाओं का दास  ।

नहीं फटकने दें कभी,

तृष्णाओं  को  पास ।।

"पुखराज" को न आता,

कहीं  और  न  रास ।

अन्तर्मन  जहाँ शुद्ध  हो,

रब का वही निवास ।।

# बृजेन्द्र सिंह झाला"पुखराज",

         कोटा (राजस्थान)


बिटिया का भविष्य

रोज की तरह कलुआ शराब के नशे में धुत होकर घर आया और आते ही अपनी पत्नी रमिया को गालियाँ देते हुए मारना शुरू कर दिया। उनकी तीन वर्षीया बिटिया डरकर रोने लगी। रमिया अपनी बिटिया के भविष्य को ध्यान में रखते हुए कलुआ से रोज-रोज मार सहन करती थी। लेकिन आज एक विचार उसके दिमाग में बिजली की तरह कौंध गया, "वह अपनी बिटिया को क्या संस्कार दे रही है? बड़ी होकर अगर बिटिया का पति भी उसके साथ ऐसा ही सलूक करें तो क्या वह भी बिना किसी गलती के ऐसे ही चुप रहकर हिंसा सहन करते हुए अपनी जिंदगी गुजार दे?"

 यह सोचकर ही मातृत्व से ओतप्रोत उसका ह्रदय चीत्कार कर उठा, "नहीं... नहीं... उसकी बिटिया ये सब नहीं सहेगी। वह अपनी बिटिया को प्रतिकार करना सिखाएगी। गलत का विरोध करना सिखाएगी।"

उसकी फूल सी बच्ची पर कोई हाथ उठाए, यह सोचकर ही उसका हृदय काँप उठा। सोचते-सोचते अचानक रमिया में न जाने कैसे, चण्डी की आत्मा ने प्रवेश कर लिया। उसने पास पड़ा लकड़ी का डंडा उठाकर अपने पति पर वार करना शुरू कर दिया। दो-चार डंडे खाते ही नशे में धुत उसका पति जमीन पर औंधे मुँह गिर पड़ा और माफ़ी माँगने लगा। 

तभी उसे अपनी बिटिया की किलकारी सुनाई दी। मुड़ कर देखा तो बिटिया ताली बजाकर हँस रही थी। मानो उसे शाबाशी दे रही हो। शायद उस नन्हीं बच्ची को भी सही-गलत का भान था। रमिया को महसूस होने लगा मानो उसने अपनी बिटिया का भविष्य सुरक्षित कर दिया हो।


नमिता सिंह 'आराधना' 

अहमदाबाद 


मौन का चोला



मुश्किल है बहुत 

बहुत उत्साह को सँभालना 

उत्तेजना में उचित व्यवहार करना 

स्वयं को स्वयं बने रहने देना। 


वातावरण का अति उत्साह 

ढकेल देता है पीछे 

कभी अपने साहस को 

करता है निरुत्साहित। 


भीड़ की अतिशय उत्तेजना 

दबा देती है कहीं 

अपने रोमांच को

कर देती है निष्क्रिय।

बहुत में कुछ होकर 
खो जाने का डर 
अकसर बदल देता है 
निज के मूल आचरण को।

भीतर के भाव
बाहरी दबाव से  
यकायक ओढ़ लेते हैं 
मौन का चोला 
कोलाहल से बुना हुआ। 
डॉ. आरती ‘लोकेश’ 
दुबई,

उन शहीदों को नमन

(14 फरवरी 2019 को कश्मीर की राजधानी पुलवामा में crpf के काफिले पर आत्मघाती

हमले में शहीद हुए अमर शहीदों को नमन)


जल उठा कश्मीर,इक आतंकी हमला हुआ।

न समझ आया कुछ,एक जलता धमाका था।

चल रहा था काफिला,सफर में वीर वांके सिपाही।

दौडकर एक कार आई,आगे आकर अडी।

और टकरा गयी,कर गयी सब स्वाह।


जो दे गये वलिदान अपना,

उन वीरों को शत् शत् नमन।

सीना हिल गया भारत मात का।

वे दे गये अमरत्व तन को,

शौर्य की कहके कहानी।

गिर धरा पर, नभ छू लिया,

जा सितारों में महकी जवानी।

 

जनक के रक्त को ऊंचा उठाया,

बना कुलदीप,वांका,बडा नामी।

देश की रज तोल दी,उर क्षीर ने,

लाडला,चांद नभ का,आंचल छोड भागा।

सावन बन गया पतझर,

शान पा गयी बहन की राखी।

स्नेह की सरिता सागर पा गयी।


अधूरी लोरियां छोड बेटी की,

छोडा नन्हा हाथ बचपन का।

स्वर्ग में तिरंगा थाम बैठे।

खनकती चूडियों की शान भी,

उजालों का मोल कर लाई।

चमकती मांग सिंदूरी,

लाली लवों की देश के काम आई।


नमन उन वीर वांके भारत मां के लालों को,

ओढ मुंह सो गये, भारत मां के आंचल में।

नमन भारत मां के चरणों में,

जो सर्वस्व देकर तिरंगा थाम लाई।


         अनीता सिंह 'सुरभि'


चीरहरण कर घूमते, बदल-बदलकर वेश!


एक–

देश ग़ुलामी जी रहा, हम पर है परहेज़।

निजता सबकी है कहाँ, ख़बर सनसनीख़ेज़।।

दो–

लाखोँ जनता बूड़ती, नहीं किसी को होश।

"त्राहिमाम्" हर ओर है, जन-जन मेँ आक्रोश।।

तीन–

प्रश्न ठिठक कर है खड़ा, उत्तर भी है गोल। 

नैतिकता दिखती यहाँ, जैसे फटहा ढोल।।

चार– 

चरम विडम्बना दिखती, घायल दिखता देश,

चीरहरण कर घूमते, बदल-बदलकर वेश।।

पाँच–

राजनीति अति क्रूर है, संवेदन से दूर।

मानवता से दूर भी, दिखती केवल सूर।।

   आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय



तू चल बटोही तू चल बटोही,

 

जाकर ढूंढो उन राहों को,

जो हैं अब तक खोई,

तू चल बटोही तू चल बटोही,


कठिनाई से मत घबराना,

पग पग पर बढ़ते ही जाना,

तुझको इस नभ को छूना है,

चाहे परिश्रम हो दूना है,

क्रम रखना अबरोही,

तू चल बटोही, तू चल बटोही।।1।। 


चाहे पथ में बाधा आयें,

चाहे पग कंटक चुभ जायें,

दुर्गम पहाड़ों पर चढ़ना है,

अपनी किस्मत को गढ़ना है,

तेवर तुम रखना अपना विद्रोही,

तू चल बटोही तू चल बटोही।।2।।

संघर्षों से लोहा लेना,

जीवन की नौका को खेना,

पर हित की खातिर जीना है,

तना रहे तेरा सीना है,

जागेगी ये तेरी किस्मत खोई,

तू चल बटोही तू चल बटोही।।3।।


बीज कर्म के अब बोने हैं,

कलह कलुषता भी धोने हैं,

जोश रगों में फिर भरना है,

अपना नाम अमर करना है,

नाम पुकारे फिर तेरा हर कोई,

तू चल बटोही तू चल बटोही।।4।।

हरीश चंद्र हरि नगर


*हिंदी दोहे विषय - मंगल*


सत्य सनातन से सदा,रक्षा करें त्रिदेव।
मंगल ही मंगल करें,#राना धवल स्वमेव।।

#राना संकट सत्य पर,भगवन लें अवतार।
जन का शुभ मंगल करें,दुष्टों का संहार।।

सत्य बात जब हम कहें,#राना रहता ओज।
शुभ मंगल सब चाहते,करें तथ्य की खोज।।

मिलता मंगल राह पर,#राना दिव्य प्रकाश।
आता है संतोष धन,होता है आभाष।।

मंगल जहाँ विचार हों,पास न आती हार।
#राना यह सब देखकर,करे नमन हर बार।।

धना कहे #राना सुनो,मंगल दिन है आज। 
मंगल पर मंगल गुने,आज सभी आवाज।।
             ***
 *✍️ -राजीव नामदेव "राना लिधौरी"*

लहूलूहान कविता



 दीवार में   दरारों को   बढ़ने दिया।

आंधियों को मेरा पता किसने दिया।।


क्या  अकेला   मैं ही   गुनहगार   हूं।

कहां है वो शख्स, क़त्ल जिसने किया ।‌।


खूब उड़ाया ज़माने ने मेरा मज़ाक।

कितने  पाटों के बीच पिसने दिया ‌।।


करेंगे वार इसी ओ़ज़ार से, मैं जानता था ।

ओ़ज़ार को फिर क्यूं मैंने  घिसने दिया ।।


दर्द बहुत था, पर आए न आंख में आंसू ।

बह रहा था रक्त , मैंने रिसने दिया।।


रिश्तों के ज़ख्म भी मेरे हिस्से आए ।

उंगलियां मेरी तरफ, दर्द इसने दिया ।।

                 ( डॉ. राजेश श्रीवास्तव )


ईश्वर का डबल प्रेम

 

वैसे तो ईश्वरीय कृपा से मुझे पढ़ने-लिखने से प्रेम शुरू से ही था। पर जब कोई साक्षात्कार के समय इस “शुरू” शब्द की उम्र पर प्रश्न करता तो सोचती कि, इस बार तो आयु की जेल से बाहर आना ही पड़ेगा। एक दिन, एक आविष्कारक जैसे कमर पर एक हाथ रखते हुये मैंने माँ से पूछ ही लिया, तो जवाब मिला कि, जब तूने “गुड़िया” पर कविता लिखी थी। लो और देखो, माँ भी उम्र की गुत्थी तो न सुलझा पायी पर यह तो साफ़ हुआ कि, अपनी पहली “गुड़िया” कविता गुड़िया खेलने की उमर में ही लिखी होगी।

मेरा लेखन तो बदस्तूर रहा पर वक्त और इस लेखन-नदी ने एक धारा अलग कर उसका रुख़ सृष्टि और ब्रम्हाण्ड को समझने की तरफ़ मोड़ दिया। आविष्कारक जो ठहरी। ईश्वर ने मेरी हाथ की रेखाओं में शायद एक अतिरिक्त रेखा गढ़ दी थी, जिसके चलते ज्योतिषी भी शुरू कर दी थी। अब यहाँ से शुरू हुआ एक लेखक और ज्योतिष का अंतर्द्वंद और ईश्वर का डबल प्रेम।

चाँद पर कविता लिखने लगती तो पूनम की शीतलता, आग और अंधेरी रात अमावस्या की राख़ दिखती। दो पंक्तियाँ और आगे बढ़ती तो, आग का राख़ होने और राख़ का फिर आग बनना…..शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष के चक्कर में शब्द ही आपस में लड़ने लगते। रोशनी और अँधेरों पर कुछ लिखने का मन होता तो अचानक महसूस होता की जैसे आज तो चाँद की किरणों ने और रूहों ने एक जन्मपत्री बना दी है। कवयित्री मन बादलों के पार आसमान के मन में झाँकता चाहता, तो लगता आसमान कुछ कह रहा है शायद.... आदम की जन्म की बातें, सिर्फ बारह लफ़्ज़ों में और नौ नुक्ते लगा कर। यहाँ भी राशियाँ और ग्रह मेरे कवि मन के लेखन पर भारी पड़ते। गर्दिश और आँधी कवयित्री मन झंझोड़ता तो फिर ज्ञानी मन की शिक्षा सुनाई देती मानों अचानक हवाएँ कह रही है देखो, कहीं तुम्हारा ज़राबख्तर ही न जल जाये, इसीलिए आग से तो तुम्हें दोस्ती करनी ही पड़ेगी। वक्त तो नंगा है उसे शर्म नहीं आती। जैसे-तैसे अभ्यास से लेखक और ज्योतिष मन के कठिन अंतर्द्वंद और ईश्वर के इस डबल प्रेम को अपने अन्तर्मन के चक्षु खोल कर तपस्या कर के स्वीकारा ही था तभी वक्त ने एक और चाल चल दी.... “शनि की साढ़ेसाती”। पर शनि की साढ़ेसाती तो तब शुरू हुई जब फ़ेसबूक पर दोनों दलों के बीच मुझे लेकर प्रश्नों की बौछारें शुरू हुई। लेखक वर्ग मुझे यह कहते हुए साहित्यकार मानने से इंकार करने लगा कि, एक म्यान में दो तलवारें कैसे? और इधर नक्षत्रों को पढ़ने वाले की बैठक में मेरी एंट्री बंद होने लगी। यह दोनों बुद्धिजीवी वर्ग मेरे प्रति डबल ईश्वरीय अनुकंपा को समझना ही नहीं चाहते थे। जनाब इति तो तब हुई जब मैंने एक कवि-सम्मेलन हेतु कवियों को न्योते भेजे। तारीख और स्थान तय हो चुका था पर कवियों की स्वीकृति पर तो मानो राहू-केतू कुंडली मारे बैठे थे। मेरे कवियत्री मन की कोमल भावनाएँ आहत होने लगी थी। संवेदनाओं को सूर्य-ग्रहण लगता इसके पहले मैंने आमंत्रित कवियों को इस ईश्वरीय डबल प्रेम के बारे में समझाया। तो इस शर्त पर निमंत्रण स्वीकार होना तय हुआ कि, मैं अपने दो फ़ेसबुक अकाउंट बनाऊँ। एक लेखिका-कवयित्री वाला और दूसरा ज्योतिष का। चलो मैंने तुरंत ही हामी भरी और ईश्वर को गुहार लगाई कि....हे प्रभु, इस समझौते पर अब कोई ग्रहण न लगाना। शायद मेरी गुहार ने आसमान लांघ लिया है और आज दोनों धाराएँ सही बह रही हैं।  

 

अनिता कपूर 


'तुलदीदास जी'


फूल गुँथे जिसकी वेणी में
रखा उसको पशु की श्रेणी में।

कोख से जिसकी जनम लिया
वह दुइ दिन में मरि गयी महतारी
चुनिया दासी ने पाला उनको
वह भी हुइ गयी राम को प्यारी।

बड़े हुये तो ब्याह रचाया
प्रेम के मारे बुरा था हाल
घरवाली थी अति सुंदर
उसके पीछे पहुँचे ससुराल।

पर हाथ लगी निराशा उनके
एक हाथ से बजे न ताली  
रत्नावली के कटु बचनों ने
उनके प्रेम की हवा निकाली।

हृदय में बात चुभी तीर सी
बुद्धि शीघ्र उनकी तब जागी
छोड़-छाड़ घरबार सभी
तब तुलसीदास बने वैरागी।

प्रेम प्रताड़ित तुलसीदास
जब ना आये पत्नी को रास
खायी उसकी ऐसी झिड़की
खुली बंद अकल की खिड़की।

पत्नी के उन कटु बचनों से
हुयी शिकार उनकी हर नारी
इसीलिये लिखा है शायद
नारी ताड़न की अधिकारी।  

प्रखर बुद्धि और राम समर्पित
गोस्वामी ने कलम उठाई
जग-जीवन और ऊँच-नीच पर
लिखीं सैकड़ों तब चौपाई।

नारी जाति से हुयी विरक्ति  
बात न उसकी कोई भायी
ढोल, गंवार और पशु संग
वह उनकी चपेट में आयी।

फूल गुँथे जिसकी वेणी में
रखा उसको पशु की श्रेणी में।


-शन्नो अग्रवाल


कर्णधार ही बेसुध बैठे


अपने पथ से विचलित होकर,

भटकी आज जवानी है।

कर्णधार ही बेसुध बैठे,

कैसी अजब कहानी है।।


जिन कंधों पर भार वतन का,

झुकते  दिखते वे कंधे।

मंज़िल की पहचान नहीं है,

आँखों वाले हैं अंधे।।

अजब-ग़ज़ब है हाल युवा का,

देख हुई हैरानी है।

कर्णधार ही बेसुध बैठे,

कैसी अजब कहानी है।।


रक्त बर्फ-सा शीत हुआ है,

मन भी लगता मरा हुआ।

सच कहने की हिम्मत खो दी,

चुप बैठा है डरा हुआ।।

शुतुरमुर्ग़-सम छुपकर बैठा,

देख दशा तूफ़ानी है।

कर्णधार ही बेसुध बैठे,

कैसी अजब कहानी है।।


नशाख़ोर खा जाता सबको,

नशा नाश का आगम है।

भरी जवानी गई नशे में,

नशा करे जीवन कम है।।

धुआँ-धुआँ-सा जोश हुआ अब,

मादकता मनमानी है।

कर्णधार ही बेसुध बैठे,

कैसी अजब कहानी है।।


मोबाइल में डूब गया सब,

समय क़ीमती बीत रहा।

ज़हर निगलता धीरे-धीरे,

ना पुस्तक का मीत रहा।

खेल-खेत सब भूल गया तू,

लगे धरा बेगानी है।

कर्णधार ही बेसुध बैठे,

कैसी अजब कहानी है।।


जाग युवा! ख़ुद को पहचानो,

ताक़त का आह्वान करो।

तोड़ बढ़ो तम-कारा को तुम,

बल पर भी अभिमान करो।।

ऊर्जा के नव स्रोत बनो तुम,

फिर दुनिया दीवानी है।

कर्णधार ही बेसुध बैठे,

कैसी अजब कहानी है।।


-डॉ. शिशुपाल 

शिक्षक व साहित्यकार

संगरिया (राजस्थान)


'विवाह समारोहों में बढ़ती फिजूलखर्ची और प्रदर्शन की होड़'


 हमारे देश में प्रचलित 16 संस्कारों में से विवाह एक महत्वपूर्ण संस्कार है। कुछ  समय पहले तक शादियां पूर्ण पारम्परिक तरीके से और अपने गृह नगर और अपने ही निवास स्थान में होती थीं, लेकिन आजकल शादियों का स्वरूप पूरी तरह से बदल गया है। आज़ शादी भी एक व्यवसाय बन गया है और उसकी व्यवस्था इवेंट मैनेजमेंट कंपनियों द्वारा की जाने लगी है। इस कारण शादी-ब्याह पारिवारिक उत्सव न होकर स्टेटस सिंबल और प्रदर्शन का विषय बन गया है। आजकल विवाह समारोहों में प्रदर्शन इस हद तक बढ़ गया है, जिसे देखकर लगता है कि यह विवाह समारोह न होकर के कोई फैशन शो या फिल्मी इवेंट है।
विवाह समारोहों में बढ़ती फिजूलखर्ची न केवल चिन्ता का विषय है अपितु उसमें सुधार की अत्यन्त आवश्यकता है। अगर दिन-प्रतिदिन बढ़ती फिजूलखर्ची को नहीं रोका गया तो यह अन्धानुकरण हमें पतन के गर्त में धकेल देगा। आइए, कुछ मुख्य बिन्दुओं पर नजर डालते हैं-
प्री वेडिंग शूट
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हमारे भारतीय समाज में विवाह से पूर्व इस तरह के फोटो शूट और लड़के-लड़कियों का खुलेआम प्रेम प्रदर्शन बिल्कुल भी मान्य नहीं कहा जा सकता लेकिन पश्चिमी सभ्यता का अंधानुकरण करके युवा पीढ़ी अपने आपको माॅडर्न कहलाने का कोई मौका खोना नहीं चाहती। अगर एक अविवाहित जोड़े ने हिल स्टेशन पर प्री वेडिंग शूट करवाया है तो दूसरा बिकनी में नजर आ रहा है। और तो और उसे बड़ी बेशर्मी से विवाह के समय बड़े पर्दे पर बड़े-बुजुर्गों और बच्चों के सामने प्रदर्शित करके नैतिकता की सारी सीमाओं को लांघा जा रहा है।
डेस्टिनेशन वेडिंग 
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 आजकल विवाह पारिवारिक उत्सव न होकर महज़ दिखावा बन गया है। घरेलू शादियों की जगह अब डेस्टिनेशन वेडिंग ने ले ली है और यह एक फैशन बनता जा रहा है। अपनी मनपसंद जगह पर जाकर शादी करना, वहां पर करोड़ों रुपए खर्च करके होटल या रिसाॅर्ट बुक करना और अपने बराबर की हैसियत वाले गिने-चुने रिश्तेदारों को ही आमंत्रित करना अपनी शान समझा जाता है। अमीर लोगों के लिए तो ऐसा करना कोई मुश्किल काम नहीं लेकिन आजकल मध्यम वर्गीय परिवार भी उनकी देखा-देखी में अपने ख़ून पसीने की कमाई को बर्बाद कर रहे हैं, जो  सिवाय फिजूलखर्ची के और कुछ नहीं है। इस देखा-देखी में कितने परिवार ज़िन्दगी भर के लिए क़र्ज़ के बोझ तले दब जाते हैं, जो किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है।
डेकोरेशन यानि साज-सज्जा 
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अब विवाह समारोहों में हर रस्म के लिए अलग-अलग जगह का चुनाव और थीम का चुनाव एक शगल बन गया है। शगुन के काम अब दिखावे के लिए होने लगे हैं। हल्दी, मेंहदी, मायरा और वरमाला से लेकर शादी के मंडप तक सजावट के लिए करोड़ों रुपए पानी की तरह बहाए जाते हैं। 
पोशाकों और ज्वेलरी पर खर्च
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आजकल विवाह समारोहों में प्रत्येक थीम के लिए अलग-अलग रंगों की पोशाक रखी जाती है। अगर आपके पास साड़ियों या ड्रेसेज का खज़ाना है भी तो वह बेकार है। क्योंकि थीम के अनुसार आपको नये वस्त्र खरीदने ही पड़ेंगे, नहीं तो आप आउट डेटेड कहलायेंगे। फिर सोशल मीडिया पर शादी की फोटोज़ पोस्ट भी करनी रहती है। एक बार जो ड्रेस पोस्ट कर दी, वह दुबारा पहनना तो शान के खिलाफ समझा जाता है। मिसेज खन्ना ने एक लाख की ड्रेस बनवाई है तो हम क्यों पीछे रहें? मिसेज वर्मा तो हमेशा ही ड्रेस की मैचिंग ज्वेलरी पहनती हैं। तो फिर फैशनेबल ज्वेलरी, स्मार्टवॉच, मेकअप का सामान और  मैचिंग सैंडिल भी तो होने चाहिए।
और तो और आजकल पुरुषों में भी ड्रेसिंग सेंस को लेकर होड़ लगने लगी है। पहले उनके लिए सिर्फ सीमित विकल्प थे लेकिन आजकल तो पति-पत्नी अलग-अलग इवेंट में एक ही रंग की ड्रेस पहनने लगे हैं। पहले पुरुषों के लिए पैंट-शर्ट और सूट ही पोशाक के रूप में प्रचलित थे लेकिन अब तो विभिन्न प्रकार के रेडीमेड कुर्ते-पायजामे, धोती-कुर्ता और शेरवानी सभी बाजार में उपलब्ध हैं। तथा उनकी मैचिंग के जूते और मोजड़ी वगैरह भी बाजार में मिलते हैं। एक शादी में भागीदारी के लिए खरीददारी करने में अच्छी खासी जेब हल्की हो जाती है।
मेंहदी डिजाइनर और पार्लर खर्च 
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पहले के  विवाह समारोहों में परिवार की महिलाएं ही एक-दूसरे को मेंहदी लगाती थी लेकिन आजकल उसके लिए मेंहदी लगाने वालों को किराए पर बुलाया जाता है और उन्हें मुंहमांगी रकम दी जाती है। उसके अलावा परिवार की महिलाओं और दुल्हन के साज-शृंगार हेतु ब्यूटी पार्लर की सेवाएं लेना अनिवार्य हो गया है। आजकल पुरुषों में भी धीरे-धीरे यह संक्रामक बीमारी फैलने लगी है। निश्चित रूप से ये सब आपके बजट को बढ़ाने वाले कारक हैं। 
भोजन की बर्बादी
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विवाह समारोहों में बढ़ती फिजूलखर्ची से जुड़ा हुआ एक और महत्वपूर्ण कारक है- व्यंजनों की असीमित संख्या और भोजन के दौरान होने वाली अन्न की बर्बादी। पहले जहाँ केवल भारतीय व्यंजन ही हमारी थाली की शोभा बढ़ाते थे, अब उनकी जगह कांटिनेंटल डिशेज ने ले ली है। अब अगर भारतीय शादी-ब्याह में चाइनीज, मेक्सिकन, इटालियन और थाई व्यंजन न हो तो वह शादी मामूली मानी जाती है। जिसने जितना ज्यादा खर्च किया और जितने ज्यादा व्यञ्जन खाने में परोसे, उसे उतनी ही वाहवाही मिलती है।
मेन कोर्स से पहले चाट के नाम पर उत्तर भारतीय, दक्षिण भारतीय व्यंजनों के साथ तमाम महाद्वीपीय व्यंजनों की लाइन लगी रहती है। अब पेट तो बेचारा एक ही है लेकिन जीभ सभी व्यंजनों का स्वाद चखने को लालायित रहती है और इसी कारण प्रत्येक काउंटर पर लम्बी लाइन देखी जा सकती है। ऐसा लगता है कि वहां पर खड़ा प्रत्येक व्यक्ति जन्मों से भूखा हो और एक-दूसरे से पहले प्लेट में डिश झपटने के लिए चील-कौए जैसी छीना झपटी पर उतारू। अब पेट तो पेट है, एक ही समय में बेचारा कितना ठूंसेगा? लिहाज़ा दो कौर लेने के बाद प्लेट डस्टबिन के हवाले कर दी जाती है।
नतीजा यह होता है कि जहां पर जूठी प्लेटें रखी जाती हैं, वहां पर आधे जूठे खाने का ढेर लग जाता है और वह किसी के काम नहीं आता है। आज़ जहां पूरे विश्व में आबादी का एक बड़ा भाग भुखमरी और कुपोषण से पीड़ित है, वहां पर हम लोग कितने अन्न की बर्बादी करते हैं। अगर वही अन्न किसी भूखे के पेट में जाता है तो उसकी आत्मा उस भोजन से तृप्त होगी। इसलिए अपनी प्लेट में जूठा छोड़ने से पहले एक बार इस बारे में अवश्य सोचें और अन्न  की बर्बादी न करें। साथ ही साथ केवल दिखावे के लिए शादियों में की जाने वाली फिजूलखर्ची से बचें।

 सरिता सुराणा
हैदराबाद 

तुलसीदास भक्ति काल के शिरोमणि


गोस्वामी तुलसीदास का जन्म 11 अगस्त 1511 में सोरोन में हुआ था। उनके बचपन का नाम रामबोला था। उनकी माँ का नाम हुलसी देवी और पिता का नाम आत्माराम था। उनके गुरू नरहरिदास थे। गुरूकुल में रहते हुए, गुरू के कहे तुलसीदास ने चारों वेदों, उपनिषदों और ज्योतिष का अध्ययन किया। वाल्मीकि रामायण को पढ़, उसी का चौपाई रूप 'रामचरितमानस' अवधी भाषा में लिख दिया। वे एक कवि, एक दार्शनिक, एक समाज सुधारक, एक अनुवादक, एक रहस्यवादी थे। उनके व्यक्तित्व के कई रूप सामने आते हैं। वे भक्ति काल के शिरोमणि हैं। 

उनकी मृत्यु 30 जुलाई 1623 को अस्सी घाट बनारस की हुई यानी वह 112 बरस जीये। यह बात  बहुत समझने की है। इतनी लम्बी आयु पाना एक बहुत बड़ी सीख की सीढ़ी है। 

गोस्वामी तुलसीदास का शांत, रीढ़ साधे बैठा, माथे पर चंदन का लम्बा तिलक, गले में माला और हाथ में कलम। हमारे ऋषि मुनि सदा कहते आये हैं कि जब भी बैठो देह की रीढ़ सीधी हो। ऋषि मुनि के किसी भी चित्र को देखो। उनका तन रीढ़ के बल तना खड़ा दिखाई देगा। चाहे वे खड़े हों या बैठे। देह की रीढ़ सीधी होगी तो आपके  शरीर की ऊर्जा की यात्रा अधिष्ठान से सहस्त्रार की ओर सहज हो जायेगी। आप अपनी ऊर्जा की सजगता का साथ पा जायेंगे। आपको बैठना भर आ जाए। इस बैठने में एक निरन्तरता हो। चार छ: माह रीढ़ सीधी करके बैठना हो जाए तो जीवन में रूपांतरण घटने लगेगा। 

तुलसीदास यह उपलब्ध चित्र, भारतीय वैदिक परम्परा और गुरुकुल की याद दिलाता है। जो कि मानवीय देह में अस्तित्व का सुंदरतम स्वरूप है। उनका व्यक्तित्व अस्तित्व की जड़ों में पैठ किये है। गोस्वामी तुलसीदास को समझने के लिए हमें , अपनी देह के तल, सजगता के तल से सामञ्जस्य बनाना पड़ेगा। अपने अंतर के जगत से तालमेल बिठाना पड़ेगा। तभी हम उनकी समझ को छू सकेंगे। 

भारत में ज्ञान परम्परा का केन्द्र गुरूकुल थे। आँकड़ों को देखें तो पता चलता है कि सन् 1850 तक, भारत में लगभग साढ़े सात लाख गाँव थे। साथ ही इस समय, सात लाख तीस हजार गुरुकुल भी थे। यानि औसतन हर गाँव में एक गुरुकुल था। इन गुरुकुलों में 18 विषय पढ़ाये जाते थे। ये सब तथ्य इस ओर संकेत करते हैं कि भारत में उस समय एक बहुत ही व्यवस्थित और विकसित शिक्षा प्रणाली थी। गुरुकुलों में शिक्षा नि:शुल्क दी जाती थी। इन गुरुकुलों को राजा महाराजाओं का प्रश्रय नहीं था।

उस समय, उत्तर भारत में 97 प्रतिशत और दक्षिण भारत में पूरी सौ प्रतिशत साक्षरता थी। साक्षरता के ये तथ्य दो अंग्रेज अधिकारियों, जी. डब्ल्यू. लूथर के उत्तरी भारत और थोमस मुनरो के दक्षिण भारत के साक्षरता सर्वे पर आधारित हैं। 

भारत के औपनिवेशिक काल में अंग्रेजों का एक ही उद्देश्य था। भारत के इस शैक्षणिक ताने बाने को तहस नहस कर, इस देश को गुलामी की जंजीरों में कस देना।

भारत में अंग्रेजी शिक्षा के जनक, मैकाले ने तो स्पष्टतः कहा था कि भारत की शिक्षा व्यवस्था और संस्कृति को नष्ट करके ही इस देश को सदा सदा के लिए गुलामी की बेड़ियों में बांँधा जा सकता है। उनका एक ही मत था कि भारतीय शिक्षा व्यवस्था का सफाया कर, अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था का ढाँचा खड़ा किया जाये ताकि अंग्रेजी विश्वविद्यालयों से निकलने वाले छात्र, दिखने में भारतीय लगेंगे लेकिन वे अंग्रेजी व अंग्रेजों का हित साधेंगे। इस सोच के साथ अंग्रेज लार्ड मैकाले ने गुरुकुल परम्परा को नष्ट कर दिया। अंग्रेजों ने भारतीय शिक्षा पद्धति और संस्कृति को धराशाही करने में कसर नहीं छोड़ी। अंग्रेजों की शिक्षा ने हमें दिया भी है लेकिन छीना भी बहुत है। 

तुलसीदास को पढ़ते हुए, अमृत रूपी भक्ति की प्यास पाठक को भी बराबर अनुभूत होती है। तुलसी को पढ़ते हुए उनकी असहायता, उनका छोटापन, उनका समर्पण है। उनसा समर्पण यानि उनसा झुकना यदि किसी के जीवन में घट जाए तो समझो जीवन सत् चित्त आनंद की राह पर है। तुलसी लिखते हैं: 

सीय राममय सब जग जानी, करऊं प्रनाम जोरि जुग पानी। 

और 

निज बुद्धि बल  भरोस मोहि नाहीं, तातें बिनय करउं सब पाहीं। 

यदि आपको झुकना आ जाये। यदि आपमें समर्पण घट जाए तो अस्तित्व आपके साथ खड़ा हो लेता है। 


एक प्रसंग बहुत रोचक है। तुलसीदास की पत्नी का बिन बताए पीहर चले जाना। तुलसीदास का पत्नी के पीछे अचानक आ धमकना। युवावस्था की प्रेम के शिखर की बात है। वे उफनती नदी को पार करके रत्नावली के पास पहुँचे थे। रत्नावली ने अपने पति को यह उलाहना दिया:

लाज न आवत आपको, दौरे आयहु साथ।

धिक् धिक् ऐसे प्रेम को, कहा कहौं मैं नाथ ॥

अस्थि, चर्म मय देह यह, ता सों ऐसी प्रीति।

नेकु जो होही राम से, तो काहे भव भीति।।


पत्नी की उपरोक्त उक्ति जीवन का बहुत ही अनुपम उदाहरण है। यह उलाहना तुलसीदास के जीवन, उनकी सोच पर बहुत गहरी चोट करता है। उनकी ऊर्जा जो पत्नी प्रेम की ओर बह रही थी उसे सहस्त्रार की ओर मोड़ दिया। यह चोट भी तभी पड़ सकती है जब उलाहना सुनने वाले में समझ हो। सुनने वाला मानसिक रूप से खुला हो तभी किसी के कहे की चोट पड़ सकती है। तभी देह की ऊर्जा की दिशा ऊपर की ओर, संसार से उबरने की ओर, आध्यात्म की ओर चल पड़ेगी। 

तुलसीदास की पत्नी रत्नावली की इस एक कही ने, इस एक चोट ने उनकी दिशा और दशा बदल दी। पत्नी के कहे को सुनने और समझने वाले कभी असफल नहीं हुए हैं। इसीलिए अक्सर कहा जाता है कि सफल पुरूष के पीछे नारी का हाथ है। 

तुलसीदास की निम्न पंक्ति को लेकर उनकी बहुत आलोचना की जाती है। 

'ढ़ोर, गंवार, शूद्र अरु नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी।'


मेरे देखे कुछ लोग इन पंक्तियों को बोल बोल कर, भाषण देकर , केवल 'ताड़न' शब्द को लेकर, तुलसीदास के पीछे लट्ठ लेकर, एक प्रतियोगिता की दौड़ में शामिल हुए से लगते हैं कि देखें कौन अपने हाथ में उठाए लट्ठ पहले वार करता है!

तुलसी के उपरोक्त लिखे ये शब्द, उस काल की कोई प्रचलित कहावत भी हो सकती है। जिसे तुलसी ने छंदबद्ध कर लिख दिया हो। हो सकता है कि वे 'तारन' शब्द लिखना चाहते हों। गलती से 'र' के स्थान पर 'ड़', ताड़न लिखा गया हो। 

ढ़ोर, शूद्र अरु नारी, ये सब तारन के अधिकारी। 

यदि तारन अर्थात स्नेह के अधिकारी हैं या सहायता के अधिकारी हैं तो इस वाक्य का पूरा अर्थ ही सकारात्मक हो जायेगा। इस दृष्टि से आलोचकों का हथियाया लट्ठ काम का न रह जायेगा। 

मेरे देखे जो संत 'परहित सरिस धर्म नहीं भाई, परपीड़ा सम नहीं अधमाई' लिख रहा है। वह जीव को, स्त्री को और शूद्र को ताड़ने को कैसे कह सकता है ? एक समाज सुधारक उन्हें दुत्कारने की क्यों कहेगा ? यह समझने जैसा है। 


गोस्वामी तुलसीदास का जन्म मुगल काल में हुआ था खासकर जब भारत में अकबर का राज्य था। कहते हैं तुलसीदास को अकबर ने बुलाया था। वे बुलावे पर नहीं गये और कहा कि हमारे राम बुलायेंगे तब ही जाऊँगा। इस बात से नाराज अकबर ने तुलसीदास को जेल में डलवा दिया था। जेल में रहते हुए तुलसीदास ने हनुमान चालीसा रच डाली। उनकी सजगता ने कारावास के नर्क को स्वर्ग में बदल दिया। उनके भक्ति भाव का रस टस से मस न हुआ। तुलसी ने कैदी होते हुए कारावास को गीतमय बना दिया। 

तुलसी दास कृत रामचरितमानस भारतवंशियों के घर घर में मिल जायेगा। शुरुआती तौर पर, 1873 में लल्ला रुख जहाज से अंग्रेजों ने मजदूरों को अनुबंधित कर विदेश भेजा था। ये अनुबंधित मजदूर गिरमिटिया कहलाये। इन

गिरमिटिया लोगों के साथ रामचरितमानस धर्म ग्रंथ, विदेशों में यानि फीजी, ट्रिनिडाड टोबेगो, मॉरीशस और सूरीनाम आदि देशों में पहुँची। इन लोगों के विदेश गमन के समय कुछ कपड़े लत्तों की गठरी में रामचरितमानस भी साथ लाये। यह तथ्य यह दर्शाता है कि भक्ति भाव सजगता असमय का, असहाय का सबसे बड़ा सहारा है। यह उन दिनों की बात है जब सोसियल मीडिया नहीं था। उन दिनों की लोकप्रियता हृदय में बसती थी। 

तुलसी काया खेत है, मनसा भयो किसान,

राम नाम अवलंब बिनु, परमारथ की आस। 

राममय होने का अर्थ है अनंत से मिलन। अंतर्मन के विस्तार की विधि कोई तुलसी से सीखे। यह गहरे पानी पैठ की नाईं है। 


रामा तक्षक


 कुरल काव्य ग्रंथ 


  कृतज्ञता

कुरल-काव्य के इस परिच्छेद में कृतज्ञता के महात्म पर विशद प्रकाश डाला गया है। यह स्पष्ट किया गया है कि बिना किसी प्रत्युपकार की भावना के जो उपकार या दया किसी व्यक्ति के प्रति निष्पादित की जाती है वह संसार में सर्वोत्तम तथा अविस्मरणीय है। मनुष्य की महानता इसी में है कि वह उपकार करे और उसे भूल जाए और उपकृत व्यक्ति के लिए यही आवश्यक है कि वह ऐसे उपकार के लिए सदैव कृतज्ञ रहे। कृतज्ञता से बड़ा कोई पुण्य नहीं और कृतघ्नता से बड़ा संसार में कोई पाप नहीं।

1. जो मनुष्य किसी अन्य व्यक्ति पर दया करते समय यह नहीं सोचता कि जिस व्यक्ति पर वह दया कर रहा है वह उसका आभारी रहे, ऐसी दया का प्रतिदान करने की सामर्थ्य तो स्वर्ग तथा पृथ्वी, किसी में भी नहीं होती अर्थात् ऐसी दया तो शब्दातीत होती है।

2. कोई भी उपकार भले ही वह कितना भी छोटा क्यों न हो परन्तु वह संसार में सबसे भारी होता है अर्थात् वह संसार में सर्वोत्तम होता है।

3. यदि कोई मनुष्य किसी के प्रति बिना किसी प्रतिदान की आकांक्षा के भलाई करता है तो ऐसी भलाई सागर से भी अधिक बड़ी होती है अर्थात् उसकी महानता वर्णनातीत होती है।

4. किसी से भी प्राप्त किया लाभ भले ही वह कितना भी  छोटा क्यों न हो, सत्पुरुष के लिए अत्यंत बड़ा होता है।

5. कृतज्ञता की सीमा, किए गए उपकार पर निर्भर नहीं करती अपितु वह जिस व्यक्ति  पर उपकार किया गया है, उसकी योग्यता पर निर्भर करती है।

6. महात्माओं अर्थात् सत्पुरुषों की मित्रता की अवहेलना करना नितांत अनुचित है। साथ ही मनुष्य को उन लोगों का भी त्याग  कभी नहीं करना चाहिए जिन्होंने संकट के समय उसका साथ दिया हो।

7. जो मनुष्य किसी व्यक्ति को किसी कष्ट से उबारता है, उसका स्मरण तो जन्म-जन्मांतर तक कृतज्ञता के साथ किया जायेगा अर्थात् उसका यह कृत्य सदैव अविस्मरणीय रहेगा।

8. उपकृत व्यक्ति द्वारा किसी भी उपकार को भुला देना अत्यंत नीचता का कार्य है परन्तु यदि कोई मनुष्य अपने द्वारा किए गए उपकार को शीघ्र ही भुला देता है तो यह उसकी महानता है।

9. यदि कोई व्यक्ति किसी मनुष्य को कोई हानि अथवा कष्ट पहुँचाता है और ऐसे व्यक्ति ने पूर्व में कभी कोई उपकार उस मनुष्य के प्रति किया हो, तो ऐसे पूर्व में किए गए उस व्यक्ति के उपकार का स्मरण उसी क्षण उस उस मनुष्य को तत्समय होने वाली भयंकर हानि अथवा कष्ट को भी भुला देता है।

10. इस संसार में अन्य सभी दोषों से कलंकित मनुष्यों का उद्धार तो संभव है परन्तु कृतघ्न मनुष्य तो वो अभागा है जिसकी उद्धार कभी संभव नहीं है।

( कुरल काव्य ग्रंथ )

सुबोध कुमार जैन 

आध्यात्मिक विकास कोई पार्ट-टाइम गतिविधि नहीं है।

 

निर्मल जैन 

       मछलियों को लगता था कि जिस तरह वे तड़पती हैं पानी के लिए, पानी भी उनके लिए वैसे ही तड़पता होगा। लेकिन जैसे ही मछलियों को पकड़ने वाला जाल खींचा जाता है तो पानी मछलियों को छोड़ कर जाल के छिद्रों से बाहर निकल भागता है। हमने भी सांसरिक उपलब्धियों सुविधाओं को लेकर ऐसा ही भ्रम पाल रखा है। अपने स्वस्थ्य और नैतिक मूल्यों को दाव पर लगा कर हम बड़ी बड़ी गाडियाँ, आलीशान भवन, सुख सुविधाओं के कितने ही उपकरण जुटाते हैं। गाड़ी में जरा सा डेंट आ जाए, कोई उपकरण सुविधा देना बंद कर दे या भवन के किसी कंगूरे में दरार दिख जाये तो मन व्याकुल हो उठता है। यह सब हमारी एकांगी आसक्ति है। वास्तविकता तो यह है कि जब हम इस संसार से विदा लेंगे तो वो हमारी लाड़ली कार या विशाल अट्टालिका और वे सारे उपकरण हमारी बिदाई पर लेशमात्र भी उदास नहीं होंगे न उनकी आँखें नाम होंगी। हमसे तो पक्षियों की सोच बेहतर है कि वो उन चीजों को पीछे छोड़ देते हैं जिन्हें साथ ले जाना जरूरी नहीं है। क्यों हम भी ईर्ष्या, वैमनस्य, उदासी, भय और पश्चाताप के  भार से मुक्त और सरल होकर उड़ना शुरू करें तब जानेंगे कि जिन्दगी कितनी खूबसूरत है।  

       आवश्यकता से अधिक संपदा का संग्रह हमें अपनी अंतरात्मा से विलग करता है। आत्मा या भावना से संबंध समाप्त होते ही उस खालीपन को भरने के लिए हम बाहरी स्रोतों जैसे शक्ति या संपदा के संचय पर अधिकाधिक आश्रित होते जाते हैं। जितना हम हम संपन्नता प्राप्त करते जाते हैं उतना ही रस हीन और खोखला जीवन जीने  लगते हैं। सुबह तैयार हो कर आखेट पर निकल पड़ते हैं। लौटते हैं देर रात को और सीधे बिस्तर की ओर भागते हैं। न कोई पारिवारिक जीवन, न सामाजिक जीवन। पद, पैसे और प्रभाव की वासना चौबीसों घंटे नचाती रहती है। यह दासता का आधुनिक संस्करण है। यह पैसे के लिए जीवन देना है, न कि जीवन जीने के लिए पैसा कमाना है। हम एक जिंदगी में दो जिंदगियां नहीं जी सकते। चिंताओं के साथ ऐश्वर्यपूर्ण जीवन या चिंता मुक्त सरल और शांत जीवन शैली? यह सच है कि सभी को अपनी पसंद का जीवन जीने का हक है। लेकिन खास बात यह है कि हम अपना विकल्प खुद चुन रहे हैं या विकल्प हम पर आरोपित किए जा रहे हैं। आज सब इस दौड़ में हाँफ रहे है कि  चाहे जैसे भी हो अमीर बनो, नहीं तो तुम्हारा जीने का अधिकार खतरे में है।

            शक्तिशाली आध्यात्मिक विकास कोई पार्ट-टाइम गतिविधि नहीं है। इसके लिए उच्च स्तर के आंतरिक फोकस और प्रतिबद्धता की आवश्यकता है। धन इसमें बाधक नहीं, धन तो सापेक्ष है, उसका संग्रह और उस संग्रह की सुरक्षा समस्या है। इस संग्रह और सुरक्षा में हमारा आध्यात्मिक विकास की ओर उतना ध्यान नहीं दे पाते जितना अपेक्षित होता है। परिणाम होता है कि हम आध्यात्मिकता के प्रमुख ध्येय अहं, क्रोध, लालच, वासना और आसक्ति से मुक्त नहीं हो पाते और इन बुराइयों के शिकार हो जाते हैं। एक बुराई से चलकर दूसरे में पहुंचते हैं और इस तरह बुराई के दुष्चक्र में फंसकर अपनी सुख-शांति की बलि चढ़ाते रहते है।  एक और भूल करते हैं कि भौतिक समस्याओं पर ध्यान तो ध्यान केंद्रित किया जाता है, लेकिन उनको पैदा करने वाली मनोवृत्ति और आंतरिक समस्याओं की उपेक्षा करते रहते हैं। जबकि आंतरिक समस्याओं के निवारण होते ही भौतिक समस्याओं का स्वत: ही समाधान हो जाता है।


नारी: शक्ति, संवेदनशीलता और समाज की धुरी

 नारी: शक्ति, संवेदनशीलता और समाज की धुरी

श्रीमती प्रियंका काला (रिसर्च स्कॉलर) ।

 

नारी मानव समाज का अभिन्न अंग है, जिसमें शक्ति, संवेदनशीलता और करुणा का अद्वितीय संगम होता है। भारतीय संस्कृति में नारी को देवी के रूप में पूजा जाता है, जो उसके महत्व और सम्मान को दर्शाता है। वह समाज की धुरी है, जो परिवार, समाज और राष्ट्र के विकास में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

नारी की शक्ति

नारी को प्राचीन काल से ही शक्ति का प्रतीक माना गया है। वह शक्ति की देवी दुर्गा, काली और सरस्वती के रूप में पूजित होती है। नारी में अद्वितीय धैर्य, सहनशीलता और साहस होता है, जिससे वह कठिन से कठिन परिस्थितियों का सामना कर सकती है। चाहे वह अपने परिवार की सुरक्षा हो या समाज की भलाई के लिए संघर्ष, नारी हर चुनौती को स्वीकार करती है और उसे पार करती है।

धैर्य और सहनशीलता: नारी में अद्वितीय धैर्य होता है। वह परिवार के सदस्यों के बीच सामंजस्य बनाए रखने और कठिन परिस्थितियों में धैर्यपूर्वक सामना करने में सक्षम होती है। उसकी सहनशीलता उसे मानसिक और भावनात्मक रूप से मजबूत बनाती है।

साहस और संघर्ष: नारी में अद्वितीय साहस होता है। वह समाज की बुराइयों के खिलाफ लड़ने के लिए हमेशा तैयार रहती है। चाहे वह दहेज प्रथा हो, बाल विवाह हो या घरेलू हिंसा, नारी ने हर मोर्चे पर अपनी शक्ति का परिचय दिया है।

नारी की संवेदनशीलता

नारी की संवेदनशीलता उसकी सबसे बड़ी ताकत है। वह अपने परिवार के सदस्यों के मनोभावों को समझती है और उनकी भावनाओं का सम्मान करती है। उसकी संवेदनशीलता उसे एक अच्छे माँ, पत्नी, बेटी, और मित्र के रूप में उभरने में मदद करती है।

माँ का रूप: एक माँ के रूप में नारी का संवेदनशीलता का परिचय मिलता है। वह अपने बच्चों की खुशियों और दुखों को समझती है और उन्हें सही मार्गदर्शन देती है। माँ का प्यार और देखभाल बच्चों के जीवन में स्थायित्व और सुरक्षा का अनुभव कराता है।

पत्नी का रूप: एक पत्नी के रूप में नारी अपने पति के साथ जीवन की हर चुनौती को साझा करती है। वह अपने पति की सहचरी और जीवनसंगिनी होती है, जो परिवार को एक सूत्र में बांधकर रखती है।

समाज में नारी की भूमिका

नारी की भूमिका समाज में अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। वह परिवार की धुरी है और समाज की प्रगति में महत्वपूर्ण योगदान देती है। नारी शिक्षा, स्वास्थ्य, विज्ञान, कला, और विभिन्न पेशेवर क्षेत्रों में अपनी पहचान बना रही है। उसकी क्षमता और प्रतिभा ने उसे समाज में एक महत्वपूर्ण स्थान दिलाया है।

1.शिक्षा और ज्ञान: नारी ने शिक्षा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। वह शिक्षक, वैज्ञानिक, लेखक और विद्वान के रूप में समाज को ज्ञान का प्रकाश प्रदान कर रही है।

2.स्वास्थ्य और चिकित्सा: नारी ने स्वास्थ्य और चिकित्सा के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। वह डॉक्टर, नर्स और चिकित्सा विशेषज्ञ के रूप में समाज की सेवा कर रही है।

3.प्रशासन और नेतृत्व: नारी ने प्रशासन और नेतृत्व के क्षेत्र में भी अपनी क्षमता को साबित किया है। वह राजनेता, प्रशासक और सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में समाज का नेतृत्व कर रही है।

आज आजादी के अमृत काल में जब संसद की नवीन भवन में प्रवेश के साथ नरेंद्र मोदी सरकार ने नारी शक्ति वंदन विधेयक लाकर यह संदेश दिया कि भारत आज भी मनुस्मृति की उन पंक्तियों को स्वीकार करता है जिनमें कहा गया है यत्र नार्यस्तु पूजन दे रमंते तत्र देवता: अर्थात जहां नारियों को पूजा जाता है, सम्मान दिया जाता है वहां देवताओं का वास होता है। कितना सार्थक विषय है जिस प्रकार एक परिवार में नवीन गृह में प्रवेश किया जाता है तो कन्या पूजन घट स्थापना के साथ गृह लक्ष्मी की पूजन की जाती है ठीक वैसे ही नवीन संसद का शुभारंभ नारी शक्ति विधेयक से करने से संभवत यही भाव फलीभूत भी हो रहा है और स्वीकार किया है कि

नारी अस्य समाजस्य कुशलवास्तुकारा अस्ति।।


निष्कर्ष

नारी शक्ति और संवेदनशीलता का अद्वितीय संगम है। उसकी शक्ति और संवेदनशीलता ने उसे समाज का एक महत्वपूर्ण स्तंभ बना दिया है। वह अपने परिवार और समाज के लिए प्रेरणा स्रोत है और हर चुनौती का सामना कर उसे पार करती है। नारी का सम्मान और उसकी शक्ति का आदर करना हम सभी का कर्तव्य है। समाज के विकास और प्रगति के लिए नारी का योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण है, और उसे समान अवसर और सम्मान प्रदान करना हमारी जिम्मेदारी है।

                                                                                    


बिंदी


हम दोनों एयरपोर्ट पर बैठे हैं। वो न्यूयार्क जा रही थी और मैं कैलिफोर्निया।

जा दोनों ही अमेरिका रहे थे। उसने पूछा क्यों लगाती हो बिंदी? मैंने हंस कर कुछ यह कह कर टाला --

मेरी यह बिंदी, पहचान बन बन गई है मेरी। शायद मुझे सूट भी करती है। शायद आप लोगों को मुझे अब ऐसे ही देखने की आदत हो गई है या शायद हमारी संस्कृति के किसी एक छोटे से कोने का प्रतिनिधित्व करती है या फिर मेरी भौंहों के बीच आई सिलवटें ढांपती है या फिर इसी बिंदी से बने निशान को अब इसी से ढांपने जैसी मजबूरी।

वो मेरे पास बैठी थी चकित सी मुझे घूरती हुई

यह जान कर उसकी नजरें थोड़ी बदल गई मगर वो और चकित हो गई।

मुझे उसने कई बार ऊपर से नीचे देखा।

आँखों में मूक प्रश्न-

मैं समझ गई वो शोच रही है मैं अगर विदेश में रहती हूँ

तो क्यों में पेंट या स्कर्ट में नहीं हूँ?

क्यों में उसकी तरह बाल कटी नहीं हूँ?

प्रवासी हूँ फिर उसकी जैसी क्यों नहीं हूँ?

फिर मैंने भी आँखों की भाषा से ही उससे पूछा-

क्या यह जरूरी है की प्रवासियों को यही गाना याद रहे “शीला, शीला की जवानी या मुन्नी बदनाम हुई या झंडू बाम होना जरूरी है?”

उसके आँखों में गुस्सा या नाराज़गी

उफ्फ़ मेरी ये बड़ी बिंदी

एक बारगी तो मुझे लगा की पानीपत का युद्ध ने इतिहास न रच दे।

कल सुबह एक ब्रेकिंग न्यूज- बिंदी वो भी बड़ी बिंदी ने करवाया तीसरा युद्ध और बिंदी ही बनी ढाल

खैर फिर मुझे यकायक एक उपाय सुझा अपनी धाराप्रवाह इंग्लिश से करने लगी  उसे धाराशायी। वो घबराई, उठी अपना बैग उठा कर कॉफी लेने चली गयी।

पर वो भी कम नहीं थी प्रश्नों के गोले छोड़ गयी।

जिस पर मेरी रिसर्च आज भी चालू है

रिसर्च का विषय “बिंदी”, उसके साइज़ और उसे कब और क्यों लगाएँ और क्यों न लगाएँ?

और इसके लिए आजकल एक लैब असिस्टेंट की तलाश है।

-अनिता कपूर


तपती धरती करे पुकार


!

तपती धरती करें पुकार सुनो नर और नार,

वृक्ष लगाकर तपती धरती का करो शृंगार!


तुझको बचाने की भरसक कोशिश करता हूँ, 

हरपल तेरे जलते दामन की चिंता करता हूँ !


बून्द बून्द सींचता हूँ जलती धरती बचाने को ,

वृक्ष लगा कर धरती माँ को हरीभरी करता हूँ!


कोई तो तरस खायेगा जलते हुए अंगारो पर,

अंजुली से आग बुझाने की कोशिश करता हूँ !


कौन हैं जहाँ में जो समझे दर्द तेरे जलने का,

दिनरात उनसे तेरी अस्मिता की बातें करता हूँ !


कभी कोई आएगा प्यासा प्यास बुझाने को,

विराने में ठण्डी छबील का इंतजाम करता हूँ!


दूर तलक सहरा पसरा नग जमीदोज हो गए,

दावानल सुलगे मधुबन जिसे तीर्थ कहता हूं!


बिन पानी पखेरू तरसे हलक तर करने को,

ताल तलैया रीते बंजर भू को माँ कहता हूं!


दामन छलनी पत्थर की खानों से बतलाता हूँ,

माँ के आँचल को छलनी होने से रोको कहता हूं!


प्राण पखेरू उड़ रहे तोते ज्यों छूटे पिंजरे से,

साया ढूंढ दुबक गये इक दूजे की काया में !


उगता दिनकर अगन बरसावे दिशि प्राची में ,

मरुधरा की बालू सावन में धधके अंगारों सी!


रोको वसुन्धरा के दामन की अब बर्बादी को,

व्यर्थ जल दोहन से प्यासे जीवन को बचाओ!


उजड़ गये चमन हवाएं तप रही बिन नीर के,

राही प्यासा जल बिन सूखी नदिया के तीर पे !


घर आँगन चौराहे पर भरपूर दरख़्त लगाओ,

विनती करूँ मानव की उखडी सांसे बचाओ !

गोविन्द नारायण शर्मा

  सिंधोलियाँ मालपुरा

     टोंक राजस्थान

      


दो जून की रोटी

 दो जून की रोटी 


शॉपिंग मॉल, रेस्टोरेंट 

या हो आईनॉक्स मूवी हॉल

हम शौक से खर्च करते हैं पैसे

चाहे हो दुगना, तिगुना 

या चौगुना दाम

वहां जबान सिल जाती है

मंहगाई के ऊपर 

सवाल उठाने में,

उल्टे कुछ और पैसे टिप 

के रूप में भी छोड़ आते हैं।


परंतु,

उस गरीब डाभ वाले, सब्जी वाले

या कोई आए फेरी करने वाला

जो पहुंचा देता है आपके घर तक

सारा सामान

बदले में कुछ मुफ्त भी 

दे ही देता है बिन बोले

जहां से हम पौष्टिक 

और अच्छी चीजें पाते हैं 

"उससे हम जरा भी नहीं हिचकते"

मोल भाव करने में

और ज़रा भी नहीं सोचते हम

उनके बच्चों और 

उनके जीवन के बारे में

कि उसके दिन रात के कठिन

परिश्रम के बदले वो

पाता है तो सिर्फ दो जून की रोटी।


संतोष कुमार वर्मा "कविराज" 

कांकिनाड़ा, पश्चिम बंगाल


सूरज

 

अथक यात्रा करता रहता है 

पर कभी न अकड़ दिखाता

सूरज हमको धूप रौशनी 

देकर कृषि उपजाता है

जीवन दान दिया धरती को 

मानव को भी प्राण दिया

हमने कुछ न किया अर्पण

पर उसने कभी न ध्यान दिया

नियत कर्म करता रहता है 

वह निरंतर चलता जाता है

मानव अपनी ओर देख लो

किंचित उपलब्धि पा कर

तुम गर्व से इठला जाते हो

अपने समक्ष औरों को तुम

बौना सा भान कराते हो

क्या घमंड ने पल भर भी

सूरज का संकल्प है तोड़ा 

शान में अपनी झूम झूम कर 

अपना नियम नहीं तोड़ा 

अरे कभी सूरज बन कर

देखो तो कितना सुख है

परोपकार करके भी देखो 

सुख देने में कितना सुख है 

दुर्लभ मानव जीवन का 

सुंदर उपयोग करो देखो 

बन सूरज लक्ष्य साधना है 

अपने मन में संकल्प करो।   


शशिलता गुप्ता 

बैंगलोर


सपने पूरे हो मन के

 


चारों तरफ खुशहाली छाए, 

दीप जलें खुशियों के। 

मनवांछित फल मिलें सभी को

सपने पूरे  हों  मन के। 

देश बढे  प्रगति पथ पर, 

मार्ग खुलें हो रोजगार के। 

सबको मिले रोटी, वस्त्र और मकान, 

स्वस्थ रहे  हर एक इंसान।

नेककर्म होंसब जन के, सपनेपूरे हों मन के। 


गीत प्रेम के सबमिल गायें

देश प्रेम में सब खो जाएं। 

चारों तरफ हो  चैनो अमन

बंसी की धुन में हों मगन

देश भक्ति के स्वर छ्नके। 

सपने पूरे............... 

जाति धर्म का भेद नहीं हो

भाई भतीजावाद नहीं हो। 

चोरी, हत्या, पाप दूर हों, 

वेवजह वाद विवाद नहीं हो।

चले सभी सीना तन के, 

सपने......... 

राम राज्य हम ले आयें

गांधीजी का स्वप्न सजायें

मानवता की राह पकड़ के

देश को उत्तम पथ दिखलायें। 

खुशियाँ छलकें तन मन से

सपने पूरे हों मन के। 

पूनम शर्मा, पूर्णिमा। 








*एक कविता ईश्वर के लिए *

 

कितना मुश्किल रहा होगा तुम्हारा ईश्वर होना 

कि बड़े इम्तहान तुमने भी दिए 

इतनी कठिन परीक्षा कभी न हुई किसी की

देखे बुरे दिन 

कि पिता का तर्पण भी अधूरा रहा


ईश्वर होना तुम्हारा लक्ष्य तो रहा नहीं होगा

किन्तु जब साधा प्रेम,दया, न्याय और सत्य का मार्ग 

कि अहिंसा और धर्म के गढ़े होंगें अर्थ 

तुमने  मुस्कुराया होगा सबसे पहले 

कि प्रेमगीत गाया होगा पहली बार 


ईश्वर होना कितना कठिन रहा होगा 

सचमुच , बड़ा ही अजूबा हुआ होगा

जब पहले -पहल

किसी ने पुकारा होगा तुम्हें ईश्वर कहकर ।


- डॉ. राजेश श्रीवास्तव

, भोपाल


मित्रता

 

सुख-दुःख में भागीदार रहे जो,

साथ   निभाऐं  मग में ।

मित्रता      ही    हो     ऐसी,

प्रसिद्ध रहे नित जग में ।।

कृष्णार्जुन और कृष्ण-सुदामा का,

इतिहास अनोखा ।

हर   वक्त   रहे     तैयार   हमेशा,

कहीं कभी न धोखा ।।

राम-निशाद-सुग्रीव-विभीषण,

थे वो परम मीत ।

मित्रता   के   दम   जिन्होंने,

जग लिया है जीत ।।

दुनिया में जितने भी सारे,

नाते-रिश्ते होते ।

बढ़ कर इन सबसे कहीं ज्यादा,

मित्र फरिश्ते होते ।।

मित्रता के भाव की,

नहीं अन्तर में सीमा ।

और व्यवहार जगत में,

इसके आगे है धीमा ।।

लहू से इक-दूजे के,

ग़म को नहलादें मित्र ।

नेह मयी भीनी खुशबू से,

जो सदा उॅड़ेले इत्र ।।

मित्र मित्र के लिये,

लगा देते आपस में जान ।

उसूलों के साथ निभाऐं,

मित्रता की आन ।

मित्र मित्र में खोजें तो,

पाऐगें नया ज़माना ।

तैयार हमेशा वादे पर,

जैसे केसरिया बाना ।।

कभी न बनना प्यारे,

उसके आगे फूल-फक़ीर ।

मित्रता ही इक ज़ुबाँ जो,

वो पत्थर की लकीर ।।

साथ निभाऐं अन्तिम क्षण तक,

हो न शिथिलता डग में ।

मित्रता ऐसी ही हो,

प्रसिद्ध रहे नित जग में ।।

सुख-दुःखमें भागीदार रहे जो,

साथ निभाऐं मग में ।

मित्रता ऐसी ही हो,

प्रसिद्ध रहे नित जग में ।।

#  बृजेन्द्र सिंह झाला"पुखराज")

         कोटा (राजस्थान)


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