लहूलूहान कविता



 दीवार में   दरारों को   बढ़ने दिया।

आंधियों को मेरा पता किसने दिया।।


क्या  अकेला   मैं ही   गुनहगार   हूं।

कहां है वो शख्स, क़त्ल जिसने किया ।‌।


खूब उड़ाया ज़माने ने मेरा मज़ाक।

कितने  पाटों के बीच पिसने दिया ‌।।


करेंगे वार इसी ओ़ज़ार से, मैं जानता था ।

ओ़ज़ार को फिर क्यूं मैंने  घिसने दिया ।।


दर्द बहुत था, पर आए न आंख में आंसू ।

बह रहा था रक्त , मैंने रिसने दिया।।


रिश्तों के ज़ख्म भी मेरे हिस्से आए ।

उंगलियां मेरी तरफ, दर्द इसने दिया ।।

                 ( डॉ. राजेश श्रीवास्तव )


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