ईश्वर का डबल प्रेम

 

वैसे तो ईश्वरीय कृपा से मुझे पढ़ने-लिखने से प्रेम शुरू से ही था। पर जब कोई साक्षात्कार के समय इस “शुरू” शब्द की उम्र पर प्रश्न करता तो सोचती कि, इस बार तो आयु की जेल से बाहर आना ही पड़ेगा। एक दिन, एक आविष्कारक जैसे कमर पर एक हाथ रखते हुये मैंने माँ से पूछ ही लिया, तो जवाब मिला कि, जब तूने “गुड़िया” पर कविता लिखी थी। लो और देखो, माँ भी उम्र की गुत्थी तो न सुलझा पायी पर यह तो साफ़ हुआ कि, अपनी पहली “गुड़िया” कविता गुड़िया खेलने की उमर में ही लिखी होगी।

मेरा लेखन तो बदस्तूर रहा पर वक्त और इस लेखन-नदी ने एक धारा अलग कर उसका रुख़ सृष्टि और ब्रम्हाण्ड को समझने की तरफ़ मोड़ दिया। आविष्कारक जो ठहरी। ईश्वर ने मेरी हाथ की रेखाओं में शायद एक अतिरिक्त रेखा गढ़ दी थी, जिसके चलते ज्योतिषी भी शुरू कर दी थी। अब यहाँ से शुरू हुआ एक लेखक और ज्योतिष का अंतर्द्वंद और ईश्वर का डबल प्रेम।

चाँद पर कविता लिखने लगती तो पूनम की शीतलता, आग और अंधेरी रात अमावस्या की राख़ दिखती। दो पंक्तियाँ और आगे बढ़ती तो, आग का राख़ होने और राख़ का फिर आग बनना…..शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष के चक्कर में शब्द ही आपस में लड़ने लगते। रोशनी और अँधेरों पर कुछ लिखने का मन होता तो अचानक महसूस होता की जैसे आज तो चाँद की किरणों ने और रूहों ने एक जन्मपत्री बना दी है। कवयित्री मन बादलों के पार आसमान के मन में झाँकता चाहता, तो लगता आसमान कुछ कह रहा है शायद.... आदम की जन्म की बातें, सिर्फ बारह लफ़्ज़ों में और नौ नुक्ते लगा कर। यहाँ भी राशियाँ और ग्रह मेरे कवि मन के लेखन पर भारी पड़ते। गर्दिश और आँधी कवयित्री मन झंझोड़ता तो फिर ज्ञानी मन की शिक्षा सुनाई देती मानों अचानक हवाएँ कह रही है देखो, कहीं तुम्हारा ज़राबख्तर ही न जल जाये, इसीलिए आग से तो तुम्हें दोस्ती करनी ही पड़ेगी। वक्त तो नंगा है उसे शर्म नहीं आती। जैसे-तैसे अभ्यास से लेखक और ज्योतिष मन के कठिन अंतर्द्वंद और ईश्वर के इस डबल प्रेम को अपने अन्तर्मन के चक्षु खोल कर तपस्या कर के स्वीकारा ही था तभी वक्त ने एक और चाल चल दी.... “शनि की साढ़ेसाती”। पर शनि की साढ़ेसाती तो तब शुरू हुई जब फ़ेसबूक पर दोनों दलों के बीच मुझे लेकर प्रश्नों की बौछारें शुरू हुई। लेखक वर्ग मुझे यह कहते हुए साहित्यकार मानने से इंकार करने लगा कि, एक म्यान में दो तलवारें कैसे? और इधर नक्षत्रों को पढ़ने वाले की बैठक में मेरी एंट्री बंद होने लगी। यह दोनों बुद्धिजीवी वर्ग मेरे प्रति डबल ईश्वरीय अनुकंपा को समझना ही नहीं चाहते थे। जनाब इति तो तब हुई जब मैंने एक कवि-सम्मेलन हेतु कवियों को न्योते भेजे। तारीख और स्थान तय हो चुका था पर कवियों की स्वीकृति पर तो मानो राहू-केतू कुंडली मारे बैठे थे। मेरे कवियत्री मन की कोमल भावनाएँ आहत होने लगी थी। संवेदनाओं को सूर्य-ग्रहण लगता इसके पहले मैंने आमंत्रित कवियों को इस ईश्वरीय डबल प्रेम के बारे में समझाया। तो इस शर्त पर निमंत्रण स्वीकार होना तय हुआ कि, मैं अपने दो फ़ेसबुक अकाउंट बनाऊँ। एक लेखिका-कवयित्री वाला और दूसरा ज्योतिष का। चलो मैंने तुरंत ही हामी भरी और ईश्वर को गुहार लगाई कि....हे प्रभु, इस समझौते पर अब कोई ग्रहण न लगाना। शायद मेरी गुहार ने आसमान लांघ लिया है और आज दोनों धाराएँ सही बह रही हैं।  

 

अनिता कपूर 


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