चीरहरण कर घूमते, बदल-बदलकर वेश!


एक–

देश ग़ुलामी जी रहा, हम पर है परहेज़।

निजता सबकी है कहाँ, ख़बर सनसनीख़ेज़।।

दो–

लाखोँ जनता बूड़ती, नहीं किसी को होश।

"त्राहिमाम्" हर ओर है, जन-जन मेँ आक्रोश।।

तीन–

प्रश्न ठिठक कर है खड़ा, उत्तर भी है गोल। 

नैतिकता दिखती यहाँ, जैसे फटहा ढोल।।

चार– 

चरम विडम्बना दिखती, घायल दिखता देश,

चीरहरण कर घूमते, बदल-बदलकर वेश।।

पाँच–

राजनीति अति क्रूर है, संवेदन से दूर।

मानवता से दूर भी, दिखती केवल सूर।।

   आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय



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